Monday, September 19, 2011

राजनीति में जिसका स्वांग चल जाए वही सफल है



दारुल-उल-उलूम देवबंद के पूर्व मोहातमिम गुलाम मुहम्मद वस्तानवी ने नरेन्द्र मोदी के बारे में क्या कहा था? यही कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात का विकास हुआ है। और दूसरे यह कि जहाँ तक विकास की बात है मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं बरता गया। उन्होंने यह भी कहा कि 2002 के दंगे देश के लिए कलंक हैं। दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। दंगों के दौरान पुलिस ने मुसलमानों को नहीं बचाया, क्योंकि ऊपर से राजनीतिक दबाव था। वस्तानवी ने इसके अलावा यह भी कहा कि मुसलमानों को अच्छी शिक्षा लेनी चाहिए। उनके लिए नौकरियों का बंदोबस्त तभी हो सकता है जब वे अच्छी तरह पढ़ें।

मोदी के बारे में वस्तानवी का बयान एकतरफा नहीं था। पर शायद देवबंद के प्रमुख पद पर बैठे व्यक्ति से देश के ज्यादातर मुसलमानों को ऐसी उम्मीद नहीं थी। मोदी के बारे में मुसलमानों को नरम बयान नहीं चाहिए। गुजरात में मुसलमानों का जिस तरह संहार किया गया वह क्या कभी भुलाया जा सकता है? फिर वस्तानवी ने ऐसा बयान क्यों दिया? वे तो गुजराती हैं। उन्हें तो दंगों की भयावहता की जानकारी थी। उनकी ईमानदारी पर पहले किसी को संदेह नहीं था। पर इस बयान से कहानी बदल गई। उन्हें पद से हटा दिया गया। और जब उन्हें हटाया जा रहा था तभी यह बात कही जा रही थी कि उनके हटने की वजह यह भी है कि वे गुजरात से हैं। वस्तानवी उन कुछ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी राय है कि हमें गोधरा कांड के बाद हुए दंगों से आगे बढ़ना चाहिए। बात मोदी को माफ करने या उन्हें समर्थन देने की नहीं है। बल्कि नए दौर में मुसलमानों के दूसरे सवालों को रेखांकित करने की भी है।


इसमें दो राय नहीं कि नरेन्द्र मोदी का तीन दिन का उपवास और साम्प्रदायिक सद्भाव कार्यक्रम शुद्ध रूप से नाटक है। यह राजनीतिक रूप से वैधानिकता और स्वीकार्यता को बढ़ाने की कोशिश है। और 2014 में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने की कोशिश भी। पर इसमें हैरत की बात क्या है? देश का कौन सा राजनीतिक दल नाटक नहीं करता? कौन सी पार्टी मुसलमानों की हमदर्द है? और कौन ऐसा नेता है जिसे उसकी पार्टी देश की सेवा करने के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठने का निमंत्रण दे और वह सेवा करने से मना कर देता है? यह सब स्वांग है, पर यह स्वांग ही इस देश का राजनीतिक यथार्थ है।

सन 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की तेरह दिन की सरकार बनी तब भाजपा की छवि अछूत की थी। उसपर बाबरी मस्जिद के विध्वंस का कलंक लगा था। उस सरकार को बचाने के लिए निर्दलीय सांसद तक सामने नहीं आया। दो साल बाद फिर चुनाव हुए तो भाजपा के साथ कई पार्टियाँ थीं। फिर भी एनडीए के पास बहुमत नहीं था। पर इस बार वह बहुमत जुटा लिया गया। वह सरकार भी ज्यादा लम्बी नहीं चली। इसके बाद 1999 में बनी तेरहवीं लोकसभा में एनडीए को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया। भाजपा आज अछूत पार्टी नहीं है। सन 2004 के चुनाव में तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के समीकरणों में पार्टी ने सावधानी बरती होती तो शायद उसकी सरकार होती। भारतीय राजनीति में छवि का महत्व है। और छवि बदलती भी है। 1977 में बुरी तरह पराजित इंदिरा गांधी तीन साल बाद 1980 में सम्मान के साथ जीत कर आईं।

मोदी क्या इस छवि-परिवर्तन में सफल होंगे? इसका जवाब भविष्य देगा, पर इतना साफ है कि उन्हें राजनीतिक रूप से पराजित करने का जिम्मेदारी जिन लोगों पर है उनके पास मोदी की 2002 के दंगों के बाद बनी छवि का कार्ड ही है। और यही कार्ड मोदी को ताकत देता है। सन 2007 के चुनाव में मोदी ने इस बात का इंतज़ार किया कि कांग्रेस साम्प्रदायिकता और दंगों का मामला उठाए। और जैसे ही सोनिया गांधी ने उन्हें ‘मौत का सौदागर कहा’ मोदी ने भावनाओं की आँधी शुरू कर दी। मीडिया उनकी हिंसक छवि बनाता है और मोदी ऐसे हर मौके पर मीडियाकर्मियों से उलझ कर अपने समर्थकों के सामने बहादुर होने की छवि बनाने में कामयाब होते हैं।

मोदी की समय की समझ अपने प्रतिद्वंदियों से बेहतर है। जब सिंगुर-आंदोलन चल रहा था और टाटा की नैनो परियोजना संकट में थी, मोदी ने टाटा को निमंत्रण देकर उसका फायदा उठाया। सन 2005 में अमेरिका ने मोदी को वीज़ा देने से इनकार कर दिया था। आज उनके संसदीय दस्तावेज़ में मोदी की सकारात्मक छवि का ज़िक्र हो रहा है। इस छवि को बनाने में मोदी के अतिशय विरोध का बड़ा हाथ है। गुजरात अपने आप में प्रगतिशील राज्य है। वहाँ सामाजिक-आर्थिक असमानता का स्तर शेष देश से कम है। इसे रेखांकति करने के बजाय मोदी विरोध की राजनीति उल्टे रास्ते पर चलने लगती है। सन 2005 में राजीव गांधी फाउंडेशन की रपट में गुजरात को आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में सबसे अच्छा प्रदेश माना गया। हालांकि उस रपट में दर्ज तथ्य मोदी के मुख्यमंत्री बनने के पहले के थे, पर उस रपट के नियंता विवेक देब्रॉय को राजीव गांधी इंस्टीट्यूट के निदेशक पद से हटना पड़ा। कांग्रेस ने अपने नेताओं को बनाने की कोशिश नहीं की। गुजरात नहीं, सारे देश में। मोदी के मुकावले आयातित शंकर सिंह वाघेला आपकी लड़ाई क्या लड़ेंगे।

क्या मोदी राष्ट्रीय नेता बनेंगे? साफ है कि वे बनना चाहते हैं। पर आक्रामक हिन्दुत्ववादी छवि वाला व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। अटल बिहारी वाजपेयी नेता न होते तो देश में एनडीए की सरकार भी न बनती। अटल बिहारी ने भाजपा की कट्टर छवि को हावी नहीं होने दिया। जैसा कि विनायक सेन ने कहा है कि मोदी को 2002 में मुसलमानों के संहार की बात को स्वीकार करके माफी माँगनी चाहिए। वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह ने 12 अगस्त 2005 को कांग्रेस की ओर से 1984 की माफी माँगी थी। इसके लिए साहस चाहिए। इसके साथ ही जिन लोगों पर आरोप हैं उन्हें जल्द से जल्द सजा दिलाने का रास्ता साफ करना चाहिए। देश का नेता बनने के लिए वैचारिक दायरा बड़ा करना होगा। वे ऐसा कर भी सकते हैं।

कार्टून मंजुल की वैबसाइट से साभार

2 comments:

  1. मोदी भाई साहब की महत्वाकांक्षा के बारे में आपने बहुत सही लिखा है लेकिन वस्तानवी साहब को मोदी के बारे में नरम बयान देने का ख़मियाज़ा नहीं भुगतना पड़ा बल्कि हक़ीक़त को देवबंद के लोग मीडिया से ज़्यादा जानते हैं।
    मदनी ख़ानदान दीन के नाम पर मुसलमानों पर बादशाहों जैसी ज़िंदगी गुज़ार रहा है। वस्तानवी साहब के आने से उनकी बादशाहत गए दौर की गुज़री हुई बात बनने वाली थी और मदरसे के छात्रों में जो जागरूकता उनके प्रबंधन में आती, उसके बाद उन्हें गुमराह करके दिल्ली में भीड़ के तौर पर इस्तेमाल करना और सोनिया गांधी को अपने पीछे मुस्लिम भीड़ दिखाकर राज्य सभा की सीट का सौदा करना संभव न रह जाता।
    इसी भय के चलते आपस में गुत्थम गुत्था मदनी चाचा-भतीजा आपस में एक हो गए और दोनों के समर्थक आलिम जो शूरा के सदस्य हैं, वे भी वस्तानवी साहब के खि़लाफ़ एक हो गए। सो वस्तानवी साहब को हटना पड़ा।
    दीन में सियासत करने वाले ऐसे ही लोग मुसलमानों के रहनुमा बने हुए हैं और मुसलमानों का बेड़ा ग़र्क़ करने में ऐसे ही रहनुमाओं का हाथ है।
    ऐसे ही रहनुमाओं में से कुछ को एक पार्टी के साथ देखा जा सकता है तो कुछ दूसरे रहनुमाओं को उसकी मुख़ालिफ़ दूसरी पार्टी के साथ।
    अटल-मोदी युगल काल में मुसलमानों के साथ जो भी बीती, उसका एक सकारात्मक पक्ष भी है और वह यह है कि मुसलमानों में इस्लाम को जानने और उस के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारने का जज़्बा बढ़ा है और इसी के साथ दर्जनों नहीं बल्कि सैकड़ों मुस्लिम संगठनों ने जन्म लिया जो कि अपने हमवतन बिरादरान से साथ संवाद करके उनकी ‘ग़लतफ़हमियों का निवारण‘ करने में लगा हुआ है।

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  2. मोदी के बारे में वस्तानवी का बयान ||
    सन 2005 में राजीव गांधी फाउंडेशन की रपट में गुजरात को आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में सबसे अच्छा प्रदेश माना गया ||उस रपट के नियंता विवेक देब्रॉय को राजीव गांधी इंस्टीट्यूट के निदेशक पद से हटना पड़ा।

    बढ़िया विश्लेषण ||
    डा. अनवर जमाल को भी बधाई ||

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