जयललिता के आश्वासन के बाद तमिलनाडु के कूडानकुलम एटमी बिजलीघर के विरोध में चल रहा आमरण अनशन स्थगित हो गया है, पर मामला कुछ और जटिल हो गया है। जयललिता ने कहा है कि प्रदेश विधानसभा प्रस्ताव पास करके केन्द्र से अनुरोध करेगी कि बिजलीघर हटा ले। जापान के फुकुशीमा हादसे के बाद नाभिकीय ऊर्जा विवाद का विषय बन गई है, पर अभी दुनिया भर में एटमी बिजलीघर चल रहे हैं और लग भी रहे हैं। चीन ने नए रिएक्टर स्थापित करने पर रोक लगाई थी, पर अब 25 नए रिएक्टर लगाने की घोषणा की है। केवल विरोध के आधार पर बिजलीघरों के मामले में फैसला नहीं होना चाहिए। हाँ सरकार को यह बताना चाहिए कि ये बिजलीघर किस तरह सुरक्षित हैं।
इस साल मार्च में जापानी सुनामी के बाद जब फुकुशीमा एटमी बिजलीघर में विस्फोट होने लगे तभी समझ में आ गया था कि आने वाले दिनों में नए एटमी बिजलीघर लगाना आसान नहीं होगा। एटमी बिजलीघरों की सुरक्षा को लेकर बहस खत्म होने वाली नहीं। रेडिएशन के खतरों को लेकर दुनिया भर में शोर है। पर सच यह भी है कि आने वाले लम्बे समय तक एटमी बिजली के बराबर साफ और सुरक्षित ऊर्जा का साधन कहीं विकसित नहीं हो पा रहा है। सौर, पवन और हाइड्रोजन जैसे वैकल्पिक ऊर्जा विकल्प या तो बेहद छोटे हैं या बेहद महंगे।
दुनिया में एटमी बिजली का सबसे बड़ा उत्पादक अमेरिका है। उसके बाद फ्रांस और जापान। और अब सैद्धांतिक रूप से सबसे बड़ा विरोधी जर्मनी। फुकुशीमा दुर्घटना के बाद जर्मनी ने घोषणा की कि सन 2022 तक देश के सारे न्यूक्लियर रिएक्टर बन्द कर दिए जाएंगे। जर्मन कम्पनी ज़ीमैंस ने कहा है कि हम एटमी ऊर्जा की तकनीक का कारोबार खत्म कर रहे हैं। सवाल रोचक है कि जर्मनी अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को कैसे पूरा करेगा। पर उससे बड़ा सवाल भारत के सामने है, जिसने हाल में एटमी ऊर्जा का जबर्दस्त कार्यक्रम तैयार किया है। सन 2008 में अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील होते ही फ्रांस के साथ समझौता हुआ और महाराष्ट्र के जैतापुर में काम शुरू हो गया। इसका विरोध है। बंगाल के हरिपुर में रूसी मदद से बिजलीघर लगाने की कोशिशों का शुरू से ही विरोध था। अब तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने साफ कर दिया है कि यह बिजलीघर नहीं लगेगा।
विरोध का सबसे ताज़ा उदाहरण है तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले का कूडानकुलम बिजलीघर, जिसे लेकर दस दिन तक आमरण अनशन चल रहा था, जो मुख्यमंत्री जयललिता के इस आश्वासन के बाद स्थगित हो गया कि कैबिनेट एक प्रस्ताव पास करके केन्द्र से कहेगी कि इस बिजलीघर को हटा ले। कूडानकुलम इन सारी परियोजनाओं में सबसे पुरानी है। रूस के साथ यह समझौता 1988 में हो गया था जब राजीव गांधी और मिखाइल गोर्बाचेव ने इस पर दस्तखत किए थे। नाभिकीय ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शिकार यह बिजलीघर हो गया। अब यह लगभग तैयार है और आगामी दिसम्बर से यहाँ बिजली बनाने का कार्यक्रम है। एक हजार मैगावाट से शुरू करके इसका विस्तार करके अंततः यहाँ 9200 मैगावाट बिजली बनाने का कार्यक्रम है। पास में एक नौसैनिक बेस भी बनाया जा रहा है और एक पोर्ट भी तैयार हो गया है। क्या इसे आसानी से खत्म किया जा सकता है?
जिस रोज जयललिता कूडानकुलम के लोगों को बिजलीघर हटाने का आश्वासन दे रहीं थी, भारत के आणविक ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष श्रीकुमार बनर्जी संयुक्त राष्ट्र आणविक ऊर्जा एजेंसी की विएना बैठक में कह रहे थे कि नाभिकीय ऊर्जा विकासशील देशों की जनता के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में मददगार होगी। और यह भी कि एटमी बिजली तैयार करने में हुई दुर्घटनाओं में जान-माल की क्षति उतनी नहीं हुई है, जितनी दूसरे स्रोतों से हुई है। भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सन 2032 में सात लाख 78 हजार मैगावॉट बिजली की ज़रूरत होगी। अगस्त 2011 में हमारी हर तरह की बिजली की इंस्टॉल्ड कैपेसिटी एक लाख 81 मैगावॉट थी। सन 2017 तक हम इसमें एक लाख तेरह हजार मैगावॉट और जोड़ देंगे। कोयले और गैस से तैयार होने वाली बिजली आज भी सबसे बड़ा सेक्टर है और अगले बीस साल तक रहेगा, पर वह भी अनंत काल तक नहीं चलेगी। कोयले की बिजली पर्यावरण के लिए खतरनाक है। बहरहाल एटमी बिजली के जबर्दस्त प्रसार के बावजूद सन 2032 तक हम करीब 63000 मैगावॉट नाभिकीय ऊर्जा पैदा कर पाएंगे। वह भी तब जब बिजलीघर लगाने का विरोध न हो।
कूडानकुलम, हरिपुर और जैतापुर के अलावा अब जहाँ-जहाँ बिजलीघर लगाने की पेशकश हो रही है, वहाँ विरोध के स्वर हैं। हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के जसपारा, मीठी विर्दी, खदरपुर, मांडवा, सोसिया और आंध्र के कोव्वाडा में विरोध के स्वर उठे हैं। फुकुशीमा दुर्घटना के बाद भारत में ही नहीं सारी दुनिया में नाभिकीय ऊर्जा को लेकर सवाल उठ रहे हैं। विरोध के स्वर एक हैं, पर कारण अनेक हैं। कूडानकुलम में ही आंदोलन का नेतृत्व अब पीपुल्स मूवमेंट अगेंस्ट न्यूक्लियर इनर्जी के हाथ में चला गया है। नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ बोलने वाले ताकतवर एनजीओ एक जगह आ गए हैं। इनमें मेधा पाटकर का संगढन भी शामिल है।
कूडानकुलम के आंदोलन के पीछे उस इलाके के निवासियों की दूसरी परेशानियाँ भी हैं। सबसे बड़ा कारण है भूमि अधिग्रहण। भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वालों के पास भी केवल एक कारण नहीं होता। बड़ी संख्या में लोगों का विरोध मुआवजे को लेकर है। कूडानकुलम का इलाका सन 2004 की सुनामी का शिकार हुआ था। तब से अब तक इस इलाके में पुनर्वास के कार्यों को लेकर भी शिकायतें हैं। इसके अलावा स्थानीय शिकायतें अलग हैं। पर कुल मिलाकर प्रदेश और केन्द्र सरकार को रास्ते खोजने होंगे।
हमारी सरकारें किसी समस्या के उठने के बाद जागती हैं। कूडानकुलम में भी यह बात जाहिर हुई। इतने बड़े बिजलीघर पर बरसों से काम चल रहा था, कोई विरोध नहीं हुआ। इसलिए सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया। देश के शुरूआती एटमी बिजलीघर लगाने में विरोध के स्वर नहीं उठे। पर फुकुशीमा दुर्घटना और जैतापुर तथा हरिपुर के विरोध को देखते हुए यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि कूडानकुलम में भी विरोध होगा। नौ दिन से आमरण अनशन चल रहा था, केन्द्र सरकार का कोई मंत्री या अधिकारी घटनास्थल नहीं पहुँचा। नवें दिन पीएमओ में राज्यमंत्री वी नारायणसामी आंदोलनकारियों से बात करने गए तो आंदोलनकारियों ने उनसे बात नहीं की। मुख्यमंत्री जयललिता का रुख भी पहले कुछ और था, फिर जनता के रुख को देखते हुए वह बदल गया। बंगाल में ममता बनर्जी ने भी हरिपुर के मामले में जनता के विरोध के साथ जाना उचित समझा।
विकास से जुड़ी तमाम बातों पर जनता के साथ विचार-विमर्श लगभग नहीं के बराबर है। इसमें केवल ऊर्जा ही नहीं हर तरह की नीतियाँ शामिल हैं। अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील पर दस्तखत करते वक्त भी ऐसा ही हुआ। लोग नहीं जानते कि यह डील क्या है, क्यों है। इसके फायदे-नुकसान क्या हैं। यह आज की बात नहीं है। हमने न तो नेहरू की समाजवादी नीतियों पर विचार किया और न 1991 के बाद की नई अर्थव्यवस्था पर। 1995 में गैट और फिर विश्व व्यापार संगठन में शामिल होते वक्त जनता को अर्ध सूचनाओं और अफवाहों पर यकीन करना पड़ता था। पूरा मीडिया इनके सहारे चलता था। आज भी ऐसा ही लगता है। आपने किसी न्यूज़ चैनल पर कूडानकुलम के मसले पर चर्चा नहीं देखी होगी। हुई भी है तो मामूली और एक छोटे से तबके के बीच।
भारत के छह एटमी बिजलीघरों में इस वक्त 4780 मैगावॉट की क्षमता है। कूडानकुलम में अचानक दो हजार मैगावॉट का इज़ाफा हो जाएगा। और यह बिजलीघर नहीं लगा तो सात हजार का सम्भावित विस्तार रुक जाएगा। एटमी ऊर्जा अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद भी सन 2032 में कुल ऊर्जा उत्पादन के दस प्रतिशत से भी कम होगी। भारत और चीन आने वाले वक्त में ऊर्जा के सबसे बड़े उपभोक्ता होंगे। फुकुशीमा हादसे के बाद चीन ने अपने एटमी बिजलीघरों का काम रोक दिया था। अब उसने 25 रिएक्टरों को स्थापित करने का काम शुरू कर दिया है। चीन की राजनीतिक स्थिति हमसे अलग है। वहाँ फैसले आसानी से लागू हो सकते हैं। पर हमारे यहाँ बेहतर विमर्श के रास्ते हैं। उसके साथ ही कुछ सवाल भी हैं। हमारा लोकतंत्र विमर्श का मौका देता है। यह विमर्श विकास में सहायक है या अवरोध? राजनेता क्या पॉपुलिज़्म का मोह छोड़ेगे? ऊर्जा विकास का मूलाधार है। इसके बारे में हमारा कोई मौलिक सोच है भी या नहीं? क्या हम अपने सारे कार्यों के लिए पश्चिम की नकल करेंगे? क्या हमारे पास कोई वैकल्पिक मॉडल है? लगता है इन सब बातों के मूल में बैठी है वैचारिक जड़ता। उसका समाधान पहले होना चाहिए।
दुनिया में एटमी बिजली का सबसे बड़ा उत्पादक अमेरिका है। उसके बाद फ्रांस और जापान। और अब सैद्धांतिक रूप से सबसे बड़ा विरोधी जर्मनी। फुकुशीमा दुर्घटना के बाद जर्मनी ने घोषणा की कि सन 2022 तक देश के सारे न्यूक्लियर रिएक्टर बन्द कर दिए जाएंगे। जर्मन कम्पनी ज़ीमैंस ने कहा है कि हम एटमी ऊर्जा की तकनीक का कारोबार खत्म कर रहे हैं। सवाल रोचक है कि जर्मनी अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को कैसे पूरा करेगा। पर उससे बड़ा सवाल भारत के सामने है, जिसने हाल में एटमी ऊर्जा का जबर्दस्त कार्यक्रम तैयार किया है। सन 2008 में अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील होते ही फ्रांस के साथ समझौता हुआ और महाराष्ट्र के जैतापुर में काम शुरू हो गया। इसका विरोध है। बंगाल के हरिपुर में रूसी मदद से बिजलीघर लगाने की कोशिशों का शुरू से ही विरोध था। अब तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने साफ कर दिया है कि यह बिजलीघर नहीं लगेगा।
विरोध का सबसे ताज़ा उदाहरण है तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले का कूडानकुलम बिजलीघर, जिसे लेकर दस दिन तक आमरण अनशन चल रहा था, जो मुख्यमंत्री जयललिता के इस आश्वासन के बाद स्थगित हो गया कि कैबिनेट एक प्रस्ताव पास करके केन्द्र से कहेगी कि इस बिजलीघर को हटा ले। कूडानकुलम इन सारी परियोजनाओं में सबसे पुरानी है। रूस के साथ यह समझौता 1988 में हो गया था जब राजीव गांधी और मिखाइल गोर्बाचेव ने इस पर दस्तखत किए थे। नाभिकीय ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शिकार यह बिजलीघर हो गया। अब यह लगभग तैयार है और आगामी दिसम्बर से यहाँ बिजली बनाने का कार्यक्रम है। एक हजार मैगावाट से शुरू करके इसका विस्तार करके अंततः यहाँ 9200 मैगावाट बिजली बनाने का कार्यक्रम है। पास में एक नौसैनिक बेस भी बनाया जा रहा है और एक पोर्ट भी तैयार हो गया है। क्या इसे आसानी से खत्म किया जा सकता है?
जिस रोज जयललिता कूडानकुलम के लोगों को बिजलीघर हटाने का आश्वासन दे रहीं थी, भारत के आणविक ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष श्रीकुमार बनर्जी संयुक्त राष्ट्र आणविक ऊर्जा एजेंसी की विएना बैठक में कह रहे थे कि नाभिकीय ऊर्जा विकासशील देशों की जनता के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में मददगार होगी। और यह भी कि एटमी बिजली तैयार करने में हुई दुर्घटनाओं में जान-माल की क्षति उतनी नहीं हुई है, जितनी दूसरे स्रोतों से हुई है। भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सन 2032 में सात लाख 78 हजार मैगावॉट बिजली की ज़रूरत होगी। अगस्त 2011 में हमारी हर तरह की बिजली की इंस्टॉल्ड कैपेसिटी एक लाख 81 मैगावॉट थी। सन 2017 तक हम इसमें एक लाख तेरह हजार मैगावॉट और जोड़ देंगे। कोयले और गैस से तैयार होने वाली बिजली आज भी सबसे बड़ा सेक्टर है और अगले बीस साल तक रहेगा, पर वह भी अनंत काल तक नहीं चलेगी। कोयले की बिजली पर्यावरण के लिए खतरनाक है। बहरहाल एटमी बिजली के जबर्दस्त प्रसार के बावजूद सन 2032 तक हम करीब 63000 मैगावॉट नाभिकीय ऊर्जा पैदा कर पाएंगे। वह भी तब जब बिजलीघर लगाने का विरोध न हो।
कूडानकुलम, हरिपुर और जैतापुर के अलावा अब जहाँ-जहाँ बिजलीघर लगाने की पेशकश हो रही है, वहाँ विरोध के स्वर हैं। हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के जसपारा, मीठी विर्दी, खदरपुर, मांडवा, सोसिया और आंध्र के कोव्वाडा में विरोध के स्वर उठे हैं। फुकुशीमा दुर्घटना के बाद भारत में ही नहीं सारी दुनिया में नाभिकीय ऊर्जा को लेकर सवाल उठ रहे हैं। विरोध के स्वर एक हैं, पर कारण अनेक हैं। कूडानकुलम में ही आंदोलन का नेतृत्व अब पीपुल्स मूवमेंट अगेंस्ट न्यूक्लियर इनर्जी के हाथ में चला गया है। नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ बोलने वाले ताकतवर एनजीओ एक जगह आ गए हैं। इनमें मेधा पाटकर का संगढन भी शामिल है।
कूडानकुलम के आंदोलन के पीछे उस इलाके के निवासियों की दूसरी परेशानियाँ भी हैं। सबसे बड़ा कारण है भूमि अधिग्रहण। भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वालों के पास भी केवल एक कारण नहीं होता। बड़ी संख्या में लोगों का विरोध मुआवजे को लेकर है। कूडानकुलम का इलाका सन 2004 की सुनामी का शिकार हुआ था। तब से अब तक इस इलाके में पुनर्वास के कार्यों को लेकर भी शिकायतें हैं। इसके अलावा स्थानीय शिकायतें अलग हैं। पर कुल मिलाकर प्रदेश और केन्द्र सरकार को रास्ते खोजने होंगे।
हमारी सरकारें किसी समस्या के उठने के बाद जागती हैं। कूडानकुलम में भी यह बात जाहिर हुई। इतने बड़े बिजलीघर पर बरसों से काम चल रहा था, कोई विरोध नहीं हुआ। इसलिए सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया। देश के शुरूआती एटमी बिजलीघर लगाने में विरोध के स्वर नहीं उठे। पर फुकुशीमा दुर्घटना और जैतापुर तथा हरिपुर के विरोध को देखते हुए यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि कूडानकुलम में भी विरोध होगा। नौ दिन से आमरण अनशन चल रहा था, केन्द्र सरकार का कोई मंत्री या अधिकारी घटनास्थल नहीं पहुँचा। नवें दिन पीएमओ में राज्यमंत्री वी नारायणसामी आंदोलनकारियों से बात करने गए तो आंदोलनकारियों ने उनसे बात नहीं की। मुख्यमंत्री जयललिता का रुख भी पहले कुछ और था, फिर जनता के रुख को देखते हुए वह बदल गया। बंगाल में ममता बनर्जी ने भी हरिपुर के मामले में जनता के विरोध के साथ जाना उचित समझा।
विकास से जुड़ी तमाम बातों पर जनता के साथ विचार-विमर्श लगभग नहीं के बराबर है। इसमें केवल ऊर्जा ही नहीं हर तरह की नीतियाँ शामिल हैं। अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील पर दस्तखत करते वक्त भी ऐसा ही हुआ। लोग नहीं जानते कि यह डील क्या है, क्यों है। इसके फायदे-नुकसान क्या हैं। यह आज की बात नहीं है। हमने न तो नेहरू की समाजवादी नीतियों पर विचार किया और न 1991 के बाद की नई अर्थव्यवस्था पर। 1995 में गैट और फिर विश्व व्यापार संगठन में शामिल होते वक्त जनता को अर्ध सूचनाओं और अफवाहों पर यकीन करना पड़ता था। पूरा मीडिया इनके सहारे चलता था। आज भी ऐसा ही लगता है। आपने किसी न्यूज़ चैनल पर कूडानकुलम के मसले पर चर्चा नहीं देखी होगी। हुई भी है तो मामूली और एक छोटे से तबके के बीच।
भारत के छह एटमी बिजलीघरों में इस वक्त 4780 मैगावॉट की क्षमता है। कूडानकुलम में अचानक दो हजार मैगावॉट का इज़ाफा हो जाएगा। और यह बिजलीघर नहीं लगा तो सात हजार का सम्भावित विस्तार रुक जाएगा। एटमी ऊर्जा अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद भी सन 2032 में कुल ऊर्जा उत्पादन के दस प्रतिशत से भी कम होगी। भारत और चीन आने वाले वक्त में ऊर्जा के सबसे बड़े उपभोक्ता होंगे। फुकुशीमा हादसे के बाद चीन ने अपने एटमी बिजलीघरों का काम रोक दिया था। अब उसने 25 रिएक्टरों को स्थापित करने का काम शुरू कर दिया है। चीन की राजनीतिक स्थिति हमसे अलग है। वहाँ फैसले आसानी से लागू हो सकते हैं। पर हमारे यहाँ बेहतर विमर्श के रास्ते हैं। उसके साथ ही कुछ सवाल भी हैं। हमारा लोकतंत्र विमर्श का मौका देता है। यह विमर्श विकास में सहायक है या अवरोध? राजनेता क्या पॉपुलिज़्म का मोह छोड़ेगे? ऊर्जा विकास का मूलाधार है। इसके बारे में हमारा कोई मौलिक सोच है भी या नहीं? क्या हम अपने सारे कार्यों के लिए पश्चिम की नकल करेंगे? क्या हमारे पास कोई वैकल्पिक मॉडल है? लगता है इन सब बातों के मूल में बैठी है वैचारिक जड़ता। उसका समाधान पहले होना चाहिए।
जानकारी परक लेख,
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