हमारा मीडिया क्या पूरी तरह स्वतंत्र है? |
सन 1757 में जब प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना को ईस्ट इंडिया कम्पनी की मामूली सी फौज ने हराया था, तब इस देश में अखबार या खबरों को जनता तक पहुँचाने वाला मीडिया नहीं था। आधुनिक भारत के लिए वह खबर युगांतरकारी थी। सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी ब्रेकिंग न्यूज़ उंगलियों पर गिनाई जा सकतीं हैं। पर उन खबरों पर सम्पादकीय नहीं लिखे गए। किसी टीवी शो में बातचीत नहीं हुई। पर 1857 की क्रांति होते-होते अखबार छपने लगे थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्यालय कोलकाता में था और वहीं से शुरूआती अखबार निकले। विलियम डैलरिम्पल ने अपनी पुस्तक ‘द लास्ट मुगल’ में लिखा है कि पूरी बगावत के दौरान ‘दिल्ली उर्दू अखबार’ और ‘सिराज-उल-अखबार’ का प्रकाशन एक दिन के लिए भी नहीं रुका। आज इन अखबारों की कतरनें हमें इतिहास लिखने की सामग्री देतीं हैं।
भारतीय पत्रकारिता का इतिहास एक माने में हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास है। राजा राम मोहन राय, पं युगल किशोर शुक्ल, शिव प्रसाद सिंह सितारे हिन्द, बालकृष्ण भट्ट, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पं मदनमोहन मालवीय, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधवराव सप्रे, गणेश शंकर विद्यार्थी, मुंशी प्रेमचंद, अमृत लाल चक्रवर्ती से लेकर महात्मा गांधी तक सब पत्रकार थे और राष्ट्र निर्माता भी। उस पत्रकारिता ने ही आज़ादी के बाद के भारत की तस्वीर खींची थी। आज़ाद भारत की पत्रकारिता के विचार और मूल्य स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही परिभाषित हो गए थे। आज हम अपने मीडिया को लेकर विचलित हैं तो इसकी वजह यह भी है कि हमें उससे बड़ी अपेक्षाएं हैं।
किसी दूसरे विकासशील देश में पत्रकारिता को वह महत्व नहीं मिला जो भारत में है। आजादी के बाद इसीलिए नए अखबारों का तेजी से प्रकाशन शुरू हुआ। पत्रकारिता एक कारोबार के रूप में नहीं, राष्ट्र निर्माण के एक टूल के रूप में उभर कर सामने आई। आज प्रकाशित हो रहे 95 फीसदी से ज्यादा अखबार और पत्रिकाएं 1946 के बाद के हैं। आज भी पत्रकारिता को जो सम्मान इस देश में प्राप्त है वह असाधारण है। चीनी समाज आर्थिक विकास के मामले में हमसे आगे है, पर लोकतांत्रिक संस्थाओं और पत्रकारीय मर्यादाओं में वह हमारे सामने कहीं नहीं है। देश में हर रोज़ अखबारों की 10 करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ छपकर निकलती हैं। सवा अरब की आबादी के लिहाज से यह संख्या कुछ भी नहीं है। शिक्षा और साक्षरता की अपार सम्भावनाएं अभी हमारे सामने हैं। दस करोड़ से ज्यादा इंटरनेट कनेक्शन हैं। और इसका तेजी से विस्तार हो रहा है।
दक्षिण एशिया में भारत ने सबसे पहले खुद को गणतंत्र घोषित किया। संविधान में मानवाधिकारों को परिभाषित किया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे पवित्र माना गया। पश्चिमी समाज को छोड़ दें तो कहीं भी वैचारिक स्वतंत्रता को इतना जबर्दस्त सामाजिक समर्थन प्राप्त नहीं है, जैसा भारत में है। 1975 से 1977 के बीच का एक दौर इस स्वतंत्रता पर बंदिशों का दौर था। पर उन बंदिशों के खिलाफ जनता की जो प्रतिक्रिया थी उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को पहले से ज्यादा मजबूत किया। 1954 में पहले प्रेस आयोग ने इस कर्म को कारोबारी दायरे से बाहर रखने की कोशिश की थी। वे सुझाव ठंडे बस्ते में पड़े रह गए। हमने ध्यान दिया होता तो शायद आज के कई सवाल न उठे होते। संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) को प्रेस की आज़ादी की परिभाषा सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से मिली।
भारत बहुलता का देश है। तमाम भाषाओं, समुदायों और संस्कृतियों में बँटे समाज को एक गुलदस्ते में संजोकर रखने के काम में जो भूमिका हिन्दी सिनेमा की है तकरीबन वही भूमिका मीडिया की है। हमने 1962, 1965 और 1971 के तीन युद्ध देखे। साठ के दशक में खाद्य संकट देखा। दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर के अलगाववादी आंदोलनों और साम्प्रदायिक-जातीय दंगों का सामना किया। इमर्जेंसी के दौरान दो साल की तानाशाही भी देखी। इन सब संकटों के बावज़ूद भारत को एक रखने में यहाँ के प्रेस की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही। बेशक उसके एक हिस्से से और कई बार काफी बड़े हिस्से से शिकायतें रहीं, पर महत्वपूर्ण था गलतियों को स्वीकार करना। अयोध्या आंदोलन की गलतियों से हिन्दी अखबारों ने सबक सीखा। आरक्षण विरोधी आंदोलन से भी इसी किस्म के सबक सीखे गए।
इमर्जेसी के दौरान अखबारों पर लगी पाबंदियों के बाद पहली बार भारतीय जनता ने प्रेस के महत्व को समझा। उसके बाद ही हिन्दी अखबारों का विस्तार शुरू हुआ। हमारे अर्ध सामंती समाज में गाँव-देहात में आज भी कई तरह के अत्याचार-अनाचार हैं। और एक दोषपूर्ण छद्म आधुनिकीकरण थोपने की कोशिशें भी हैं। इन्हें सामने लाने में प्रेस ने रचनात्मक भूमिका निभाई है और भविष्य में अपनाने की ज़रूरत होगी। इसी दौरान छोटे-छोटे उद्यमियों ने अखबारों के सफल कारोबारी मॉडल को सफल बनाकर दिखाया। टाइम्स ऑफ इंडिया के साहू जैन परिवार, हिन्दुस्तान टाइम्स के बिड़ला परिवार और देवदास गांधी, हिन्दू के कस्तूरी श्रीनिवासन, थंती के सीपी आदित्यनार, आनन्द बाजार पत्रिका के अशोक सरकार, इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका, जागरण के नरेन्द्र मोहन, अमर उजाला के डोरीलाल अग्रवाल, राजस्थान पत्रिका के कर्पूर चन्द्र कुलिश, पंजाब केसरी के लाला जगत नारायण और मलयाला मनोरमा के के एम मैथ्यू समेत अनेक उद्यमियों ने देश के मीडिया को एक औद्योगिक आधार प्रदान किया।
हम अपने मीडिया के विस्तार पर नज़र डालें तो अब तक की प्रगति गर्व की अनुभूति प्रदान करती है। जैसी कि उम्मीद की जाती है हमारा मीडिया जनता के हितों से जुड़कर ही चला है। आजादी के बाद के पहले दशक में ही भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था का सबसे बड़ा नासूर बनकर सामने आया था। अखबारों के सामने भी भ्रष्टाचार से लड़ाई का मसला सर्वोपरि था। इमर्जेसी के दौरान सरकारी अमले के दुर्व्यवहार के खिलाफ मीडिया ने कमान सम्हाली। उसके बाद भागलपुर आँखफोड़ कांड से लेकर कमला मामले तक अखबारों ने उठाए। बोफोर्स मामला मीडिया के कारण ही सुर्खियों में रहा। उसके बाद हर्षद मेहता कांड से लेकर टूजी तक की लड़ाई मीडिया के मैदान में हुई है।
क्या यह मीडिया युवा वर्ग की ज़रूरतों को समझता है? |
नए भारत के मीडिया पर नज़र डालें तो उसका अंतर्विरोधी रूप भी सामने आता है। हमारे प्रारम्भिक पत्रकार सरल और आत्म प्रचार से दूर रहने वाले थे। उन्हें जो मूल्य और सिद्धांत पिछली पीढ़ी से मिले थे वे आज़ादी की लड़ाई से जुड़े थे। पिछले दो दशक में मीडिया का एक विस्तार और हुआ है। उसमें कारोबार और पूँजी निवेश पर ज्यादा ज़ोर है। पाठकों की पीढ़ी भी बदल गई है। नए पाठक के पास नए भारत के सपने वही नहीं हैं, जो पिछली पीढ़ी के थे। ऐसे में मीडिया की भूमिका बदली है। मीडिया भी बदला है। अब अखबार के मुकाबले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज्यादा प्रभावशाली होकर उभरा है। मैक्लुहान के शब्दों में मीडिया का महत्व उसके मैसेज से ज्यादा है। मसलन गीत और संगीत के सहारे खबर सुनाते वक्त संगीत का मीडिया हावी होगा। उसमें संदेश या मैसेज पीछे रह जाएगा। ऐसा इस नए मीडिया के साथ हुआ। पर यह स्थिति ज्यादा देर नहीं रहेगी। खबर, सूचना विचार का नया मीडिया इंटरनेट पर सवार होकर जल्द सामने आ रहा है। उसमें भी शुरुआती दौर तकनीक-केन्द्रित है। बहुत जल्द चीजें बदल जाएंगी।
यह सदी भारत की है। भारत की ताकत उसकी विचार-शक्ति है। केवल तेल-फुलेल या कॉज्मेटिक्स किसी समाज की ताकत नहीं होते। फिलहाल हमें कुछ विसंगतियाँ नज़र आ रहीं हैं, तो वे फौरी हैं। ज्यादा से ज्यादा एक डेढ़ दशक तक चलने वाली। मेरी धारणा है कि बिजनेस मैनेजमेंट संस्थानों में, खासकर जहाँ मीडिया मैनेजमेंट की शिक्षा दी जाती है, पत्रकारीय मर्यादा की कक्षाएं लगनी चाहिए। मीडिया मैनेजरों को समझना चाहिए कि इस कारोबार में केवल बिजनेस बढ़ाना काफी नहीं है। साख घटाकर बिजनेस बढ़ाने का मतलब है दूरगामी आत्मघात। पत्रकारीय गुणवत्ता अनिवार्य रूप से कारोबार विरोधी नहीं होती। जनता पैसा देकर अखबार खरीदती है। यह पैसा वह साख के नामपर देती है। हमारा दुर्भाग्य है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रवेश के दौर में हमारा मीडिया नहीं था। वह तब होता तो आज हमारी तमाम परेशानियों के हल अपने अतीत के उदाहरणों में मिल जाते। बहरहाल हमें अपने गणतंत्र और जनता पर भरोसा करना चाहिए। सारे भटकाव दूर होंगे। मीडिया इसकी ड्राइविंग फोर्स होगा।
आप सब को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएं.
ReplyDeleteBahut gambheer sawal hain, ispar hamen sochna hoga.
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हमे तो पूरा भरोसा है अपने संविधान और गणतंत्र पर। आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की आपको हार्दिक शुभकामनायें.
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