भारतीय समाज के बारे में मुझसे पूछें तो मुझे एकसाथ तमाम बातें सूझती हैं। हम एक ओर सभ्यता के अग्रगामी समाजों में से एक हैं वहीं दुनिया के निकृष्टतम कार्य हमारे यहाँ होते रहे हैं। हमारे पास विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है। ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य और शिल्प तक हर क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों की परम्परा है। फिर भी हम आज नकलची हैं। जीवन के किसी क्षेत्र में हम आज कुछ भी मौलिक काम नहीं कर रहे हैं। इसकी तमाम वजहों में से एक है कि हम खुले और ईमानदार विमर्श से भागते हैं। नई बातों को स्वीकार करने का माद्दा हममे नहीं है। अमेरिकी समाज की ताकत उसका इनोवेशन है। नई रचनात्मकता के लिए खुला और पूर्वग्रह रहित निश्छल मन चाहिए।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जबतक आप किसी की हाँ में हाँ मिलाते रहिए वह आपसे खुश रहेगा। जैसे ही आप अपने ऐसे विचार व्यक्त करें जो व्यक्ति के या व्यक्तियों और संस्थाओं के विचारों से मेल नहीं खाते तो फौरन आपको खारिज कर दिया जाएगा। लोकतंत्र का मतलब भीड़ की राय ही नहीं होता। कई बार अल्पसंख्यक राय ही सही होती है। वह सही है या नहीं इसकी परख करने में समय लगता है। मोटे तौर पर यह बात सारी दुनिया पर लागू होती है।
सुकरात को ज़हर किसी तानाशाह ने नहीं नगर राज्य व्यवस्था ने दिया जो अपने वक्त की लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। फिर भी मुझे पश्चिमी समाज के मुकाबले अपने समाज से शिकायत ज्यादा है। एक तो इसलिए कि मुझे अपने समाज की जानकारी ज्यादा है। दूसरे पिछले एक हजार साल से ज्यादा वक्त में भारतीय समाज का भटकाव बढ़ा है। हमने अपने बंधुओं को ऊँचे और नीचे के सामाजिक स्तरों में बँटने दिया। विज्ञान और वैज्ञानिकता का निषेध किया। अंधविश्वास के बढ़ावा दिया। हम सारा दोष विदेशी हमलावरों को देते हैं। कमी हमारे पूर्वजों में थी। हार तो उनकी थी।
हमारे यहाँ जो भी विदेशी आए उन्होंने हमें ज़रूर लूटा, पर कुछ न कुछ दिया भी। अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति और प्रशासनिक व्यवस्था का हम विरोध करते हैं, पर वह न होती तो कौन सी पद्धति होती? इतिहास का पहिया उल्टा घुमाया नहीं जा सकता, पर अपने समाज का तटस्थता से आकलन तो किया ही जा सकता है।
आज भी मुझे जो रास्ता दिखाई पड़ रहा है, वह भरोसा नहीं दिलाता। हमारी आज़ादी की पूरी लड़ाई सिर्फ अंग्रेजी राज को हटाकर भारतीय सत्ताधारियों को स्थापित करने की थी तो वह काम 1947 में पूरा हो गया। अंग्रेजों में कुछ न कुछ लोग अनुशासित, कुशल और न्यायप्रिय भी थे। उन्हें हटाया ठीक किया, पर जो लोग आए और जो व्यवस्था आई, उसकी मूल भावना सामाजिक बदलाव और कल्याण की नहीं सत्ता पर कब्ज़ा करने की है।
हमारे यहाँ एक ओर नितांत अंधेरा ही वहीं इस अंधेरे से लड़ने के नाम पर अक्सर लोग खड़े होते हैं और मौका पाते ही बहती गंगा में हाथ धोने लगते हैं। शोर मचाने वाले भी एकतरफा ही सोचते हैं। पुष्ट और पक्की सूचना का अभाव है। ऑब्जेक्टिव इतिहास-दृष्टि और समय-बोध की कमी भी है। हमारा नेतृत्व एक ओर स्वार्थी है वहीं वह लोकप्रियता और लोक-लुभावन में फर्क नहीं समझता। अच्छे नेता को जनता के मन की बात कहनी चाहिए, पर जब ज़रूरत हो जनता को फटकार लगाने की सामर्थ्य भी उसमें होने चाहिए। कबीर या गांधी की तरह।
हमें एक मज़बूत लोकतंत्र, शारीरिक और मानसिक रूप से पुष्ट जनसमूह, न्यायपूर्ण-पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। उसके बाद जो होगा, सब ठीक होगा। इसमें तरह-तरह के लोगों की भूमिका है। पत्रकार के रूप में मेरी या इस संस्था की जो भूमिका है, उसपर कभी आगे बात करेंगे। फिलहाल मेरे दो लेख इस पोस्ट के साथ हैं। आप इन दोनों पर अपनी कोई राय देंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जबतक आप किसी की हाँ में हाँ मिलाते रहिए वह आपसे खुश रहेगा। जैसे ही आप अपने ऐसे विचार व्यक्त करें जो व्यक्ति के या व्यक्तियों और संस्थाओं के विचारों से मेल नहीं खाते तो फौरन आपको खारिज कर दिया जाएगा। लोकतंत्र का मतलब भीड़ की राय ही नहीं होता। कई बार अल्पसंख्यक राय ही सही होती है। वह सही है या नहीं इसकी परख करने में समय लगता है। मोटे तौर पर यह बात सारी दुनिया पर लागू होती है।
सुकरात को ज़हर किसी तानाशाह ने नहीं नगर राज्य व्यवस्था ने दिया जो अपने वक्त की लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। फिर भी मुझे पश्चिमी समाज के मुकाबले अपने समाज से शिकायत ज्यादा है। एक तो इसलिए कि मुझे अपने समाज की जानकारी ज्यादा है। दूसरे पिछले एक हजार साल से ज्यादा वक्त में भारतीय समाज का भटकाव बढ़ा है। हमने अपने बंधुओं को ऊँचे और नीचे के सामाजिक स्तरों में बँटने दिया। विज्ञान और वैज्ञानिकता का निषेध किया। अंधविश्वास के बढ़ावा दिया। हम सारा दोष विदेशी हमलावरों को देते हैं। कमी हमारे पूर्वजों में थी। हार तो उनकी थी।
हमारे यहाँ जो भी विदेशी आए उन्होंने हमें ज़रूर लूटा, पर कुछ न कुछ दिया भी। अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति और प्रशासनिक व्यवस्था का हम विरोध करते हैं, पर वह न होती तो कौन सी पद्धति होती? इतिहास का पहिया उल्टा घुमाया नहीं जा सकता, पर अपने समाज का तटस्थता से आकलन तो किया ही जा सकता है।
आज भी मुझे जो रास्ता दिखाई पड़ रहा है, वह भरोसा नहीं दिलाता। हमारी आज़ादी की पूरी लड़ाई सिर्फ अंग्रेजी राज को हटाकर भारतीय सत्ताधारियों को स्थापित करने की थी तो वह काम 1947 में पूरा हो गया। अंग्रेजों में कुछ न कुछ लोग अनुशासित, कुशल और न्यायप्रिय भी थे। उन्हें हटाया ठीक किया, पर जो लोग आए और जो व्यवस्था आई, उसकी मूल भावना सामाजिक बदलाव और कल्याण की नहीं सत्ता पर कब्ज़ा करने की है।
हमारे यहाँ एक ओर नितांत अंधेरा ही वहीं इस अंधेरे से लड़ने के नाम पर अक्सर लोग खड़े होते हैं और मौका पाते ही बहती गंगा में हाथ धोने लगते हैं। शोर मचाने वाले भी एकतरफा ही सोचते हैं। पुष्ट और पक्की सूचना का अभाव है। ऑब्जेक्टिव इतिहास-दृष्टि और समय-बोध की कमी भी है। हमारा नेतृत्व एक ओर स्वार्थी है वहीं वह लोकप्रियता और लोक-लुभावन में फर्क नहीं समझता। अच्छे नेता को जनता के मन की बात कहनी चाहिए, पर जब ज़रूरत हो जनता को फटकार लगाने की सामर्थ्य भी उसमें होने चाहिए। कबीर या गांधी की तरह।
हमें एक मज़बूत लोकतंत्र, शारीरिक और मानसिक रूप से पुष्ट जनसमूह, न्यायपूर्ण-पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। उसके बाद जो होगा, सब ठीक होगा। इसमें तरह-तरह के लोगों की भूमिका है। पत्रकार के रूप में मेरी या इस संस्था की जो भूमिका है, उसपर कभी आगे बात करेंगे। फिलहाल मेरे दो लेख इस पोस्ट के साथ हैं। आप इन दोनों पर अपनी कोई राय देंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।
आपके यह तथा अखबार के दोनों लेख एकदम सटीक बैटन पर आधारित हैं.लोगों को ध्यान देना और अमल करने की कोशिश करना चाहिए.
ReplyDeleteबहुत सच्ची बात लिखी है आपने . भारतीय सभ्यता हमें जी-हूज़ुरी सिखाती है, लेकिन प्रश्न करना नहीं सिखाती. शायद इसलिए हम हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं लेकिन नए सोच विचार नहीं ला सकते. जब तक हम नहीं बदलेंगे, देश नहीं बदलेगा.
ReplyDeleteNice post .
ReplyDeletehttp://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/organised-crime-against-india.html