Friday, April 19, 2019

पाकिस्तान क्यों है इस चुनाव का बड़ा मुद्दा?


भारतीय चुनावों में पाकिस्तान का मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण बनकर नहीं बना,  जितना इसबार नजर आ रहा है. इसकी एक वजह 14 फरवरी के पुलवामा हमले को माना जा रहा है. इसके पहले 1999 के करगिल कांड और 2008 के मुम्बई हमले के बाद भी चुनाव हुए थे, पर तब इतनी शिद्दत से पाकिस्तान चुनाव का मुद्दा नहीं बना था, जितना इस बार है. 1999 के लोकसभा चुनाव करगिल युद्ध खत्म होने के दो महीने के भीतर हो गए थे, इसबार चुनाव के दो दौर पूरे हो चुके हैं फिर भी पाकिस्तान और आतंकवाद अब भी बड़ा मसला बना हुआ है. 
यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को पाकिस्तानी फैक्टर से लाभ मिल रहा है, पर सवाल है कि यह इतना महत्वपूर्ण बना ही क्यों? कुछ लोगों को लगता है कि पुलवामा कांड जानबूझकर कराया गया है. यह अनुमान जरूरत से ज्यादा है. यों तो 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई हमले के पीछे भी भारतीय साजिश का एंगल लोगों ने खोज लिया था, पर उसे 2009 के चुनाव से नहीं जोड़ा था. इस बार के चुनाव में पाकिस्तान कई ऐतिहासिक कारणों से महत्वपूर्ण बना है. सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस बार पाकिस्तान खुद एक कारण बनना चाहता है. 
हाल में पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा, हमारे पास विश्वसनीय जानकारी है कि भारत हमारे ऊपर 16 से 20 अप्रैल के बीच फिर हमला करेगा. 16 अप्रैल की तारीख निकल गई, कुछ नहीं हुआ. भारत में अंदेशा था कि शायद पुलवामा जैसा कुछ और न हो जाए. दूसरी तरफ इमरान खान का बयान था कि भारत में नरेंद्र मोदी दूसरा कार्यकाल मिला तो यह पाकिस्तान के लिए बेहतर होगा और कश्मीर के हल की संभावनाएं बेहतर होंगी. पाकिस्तानी नेताओं मुँह से पहले कभी इस किस्म के बयान सुनने को नहीं मिले.

Monday, April 15, 2019

कहाँ गए चुनाव-सुधार के दावे और वायदे?


http://inextepaper.jagran.com/2112325/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/15-04-19#page/8/1
जनवरी 2017 में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट माँगना गैर-कानूनी है। कौन नहीं जानता कि इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की थी। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं। क्या आप भरोसे से कह सकते हैं कि इन संकीर्ण आधारों पर वोट नहीं माँगे जाते हैं या माँगे जा रहे हैं? चुनावी शोर के इस दौर में आपको क्या कहीं से चुनाव-सुधारों की आवाज सुनाई पड़ती है? नहीं तो, क्यों?

 जिन दिनों देश सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों से गुजर रहा है सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉण्डों की वैधता और उपादेयता पर सुनवाई चल रही है। चुनाव आयोग का कहना है कि ये बॉण्ड काले धन को सफेद करने का एक और जरिया है। हालांकि कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि हम जीतकर आए, तो इन बॉण्डों को खत्म कर देंगे। पर चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था तो कांग्रेस की ही देन है। चुनावी बॉण्डों के रूप में कम्पनियाँ बजाय नकदी के बैंक से खरीदे गए बॉण्ड के रूप में चंदा देती हैं। सच यह है कि पिछले 72 साल में सत्ताधारी दलों ने हमेशा व्यवस्था में छिद्र बनाकर रखे हैं ताकि उन्हें चुनावी चंदा मिलता रहे।

Sunday, April 14, 2019

धन-बल के सीखचों में कैद लोकतंत्र


https://www.haribhoomi.com/full-page-pdf/epaper/rohtak-full-edition/2019-04-14/rohtak-main-edition/358
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि चुनावी बॉण्डों पर स्थगनादेश जारी नहीं किया है, पर राजनीतिक चंदे के बारे में महत्वपूर्ण आदेश सुनाया है। अदालत ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे चुनावी बॉण्ड के जरिए मिली रकम का ब्यौरा चुनाव आयोग के पास सीलबंद लिफाफे में जमा कराएं। इस ब्यौरे में दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का विवरण भी दिया जाए। यह ब्यौरा 30 मई तक जमा कराना होगा। वस्तुतः अदालत इससे जुड़े व्यापक मामलों पर विचार करके कोई ऐसा फैसला करना चाहती है, जिससे पारदर्शिता कायम हो।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अदालत में चुनावी बॉण्ड योजना पर रोक लगाने की गुहार लगाई है। इस योजना को केंद्र सरकार ने पिछले साल जनवरी में अधिसूचित किया था। चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी होने के पहले से ही इसका विरोध किया था। विरोध की वजह है दानदाताओं की गोपनीयता। हमारे विधि आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़ी अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजनीति में धन के इस्तेमाल के साथ जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण चीज है सार्वजनिक जानकारी। जन प्रतिनिधित्व कानून, आयकर कानून, कम्पनी कानून और दूसरे सभी कानूनों के तहत बुनियादी बातों का पता सबको होना चाहिए।

Sunday, April 7, 2019

कैसे लागू होगा कांग्रेस का घोषणापत्र?



epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-04-07
चुनाव घोषणापत्रों का महत्व चुनाव-प्रचार के लिए नारे तैयार करने से ज्यादा नहीं होता। मतदाताओं का काफी बड़ा हिस्सा जानता भी नहीं कि उसका मतलब क्या होता है। अलबत्ता इन घोषणापत्रों की कुछ बातें जरूर नारों या जुमलों के रूप में याद रखी जाती हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि बाद में भी पार्टियों के कार्य-व्यवहार को लेकर इनके आधार पर सवाल किए जाते हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों की पहली नजर इनकी व्यावहारिकता पर जाती है। इसे लागू कैसे कराया जाएगा? फिर तुलनाएं होती हैं। अभी बीजेपी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है, कांग्रेस ने किया है। इसपर निगाह डालने से ज़ाहिर होता है कि पार्टी सामाजिक कल्याणवाद के अपने उस रुख पर वापस पर वापस आ रही है, जो सन 2004 में वामपंथी दलों के समर्थन पाने के बाद न्यूनतम साझा कार्यक्रम के रूप में जारी हुआ था। इसकी झलक पिछले साल कांग्रेस महासमिति के 84वें अधिवेशन में मिली थी।

Saturday, April 6, 2019

कांग्रेस फिर ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस

इस बात को शुरू में ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं। उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने सामाजिक कल्याणवाद पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक छद्म राष्ट्रवाद के जवाब में कांग्रेस ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। केवल गैर-बीजेपीवाद कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरी है।