Sunday, March 24, 2019

दानिस्ता ने वीडियो न बनाया होता तो...?


21 मार्च को होली के दिन गुरुग्राम के भूपसिंह नगर के रहने वाले मोहम्मद साजिद के परिवार ने अपने आसपास के समाज का ऐसा भयानक चेहरा देखा जिससे वे ख़ौफ़ में हैं. इस खौफ के खिलाफ नागरिक समाज ने अपनी नाराजगी व्यक्त की है. यह नाराजगी इतनी असरदार नहीं होती या शायद होती ही नहीं, अगर इस हिंसा का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल न हुआ होता. इस वीडियो के कारण बड़ी संख्या में लोगों की अंतरात्मा को ठेस लगी. यह क्या हो रहा है?  

मीडिया का असर है कि हमारी भावनाएं भड़कने में देर नहीं लगती है. और हमें मानवीयता का एहसास भी किसी दूसरे वीडियो से होता है. नब्बे के दशक में जब महम की हिंसा का वीडियो पहली बार सामने आया था, तब हमें लगा कि राजनीति में यह क्या हो रहा है. वस्तुतः हमने पहली बार उसकी तस्वीरें देखी थीं, हो तो वह काफी पहले से रहा था. आरक्षण के विरोध में आत्मदाह करने की पहले वीडियो ने काफी बड़े वर्ग को व्यथित कर दिया था. फिर हाल के वर्षों में हमें दलितों की पिटाई के वीडियो देखने को मिले हैं. गोरक्षकों की हिंसा और मॉब लिंचिंग के वीडियो भी बड़ी संख्या में सामने आए हैं. इन वीडियो के राजनीतिक प्रभाव को देखते हुए ऐसे फर्जी वीडियो भी सामने आए हैं, जिनका उद्देश्य किसी एक खास तबके की भावनाओं को भड़काना होता है. यह खेल अभी चलेगा, क्योंकि चुनाव करीब हैं.

कश्मीर पर नई लाल रेखा

http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-24
पिछले पाँच साल में कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की नीतियाँ निरंतर सख्त होती गईं हैं और इस वक्त अपने कठोरतम स्तर पर हैं। इन पाँच वर्षों में सरकार ने नर्म रुख अख्तियार करने की कोशिश भी की, पर हालात ऐसे बने कि उसका रुख सख्त होता चला गया। पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं से लगता है कि सरकार ने राजनयिक स्तर पर एक और नई रेखा खींची है। यह रेखा हुर्रियत के खिलाफ है। हुर्रियत के दो महत्वपूर्ण घटकों जमाते-इस्लामी और अब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध लगाया गया है। 


पाकिस्तान दिवस (23 मार्च) की पूर्व-संध्या पर दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग में हुए कार्यक्रम में भारत सरकार के मंत्री इसलिए शामिल नहीं हुए, क्योंकि हुर्रियत को बुलाया गया था। यह एक और रेड लाइन रेखा है। उधर प्रधानमंत्री ने इमरान खान के नाम बधाई संदेश भी भेजा है। इसे कुछ लोग संशय बता रहे हैं। ऐसा नहीं है। कश्मीर के मामले में भारत का कड़ा संदेश है और बधाई एक परम्परा के तहत है, जो दुनिया के सभी देश एक-दूसरे के साथ निभाते हैं। इन पत्रों का औपचारिक महत्व होता है आधिकारिक नहीं।  

Sunday, March 17, 2019

गठबंधन राजनीति का बिखराव!

http://epaper.haribhoomi.com/epaperimages/17032019/17032019-MD-RAI-4.PDF
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि कांग्रेस के साथ हम किसी भी राज्य में गठबंधन नहीं करेंगे। मायावती ने ही साथ नहीं छोड़ा, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और तेदेपा का गठबंधन टूट गया है। बीजेपी को हराने के लिए सामने आई ममता बनर्जी तक ने अपने बंगाल में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उचित नहीं समझा। दिल्ली में कांग्रेसी झिड़कियाँ खाने के बावजूद अरविन्द केजरीवाल बार-बार चिरौरी कर रहे हैं। सम्भव है कि दिल्ली और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो जाए। इसकी वजह है कांग्रेस के भीतर से लगातार बाहर आ रहे विपरीत स्वर।

17वीं लोकसभा और चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों की प्रक्रिया सोमवार 18 मार्च से शुरू हो रही है, पर अभी तक क्षितिज पर एनडीए और यूपीए के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई तीसरा चुनाव पूर्व मोर्चा या महागठबंधन नहीं है। जो भी होगा, चुनाव परिणाम आने के बाद होगा और फिर उसे मौके के हिसाब से सैद्धांतिक बाना पहना दिया जाएगा। यह भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे का यथार्थ है। जैसा हमेशा होता था स्थानीय स्तर पर सीटों का बँटवारा हो जरूर रहा है, पर उसमें जबर्दस्त संशय है। टिकट कटने और बँटने के चक्कर में एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाने की दौड़ चल रही है।

Friday, March 15, 2019

शिखर पर पहुँचाएंगे नई पीढ़ी के वोटर


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लोकसभा के आगामी चुनाव में भारत के 89.9 करोड़ वोटर भाग लेंगे. दुनिया के किसी लोकतंत्र में एकसाथ इतने वोटरों की भागीदारी कभी नहीं हुई. सन 2014 के चुनाव में 81.5 करोड़ वोटरों ने हिस्सा लिया था. इसबार 8.4 करोड़ वोटरों की वृद्धि हुई है. इनमें भी 1.6 करोड़ वोटरों की आयु 18 से 19 वर्ष के बीच है. उनके अलावा छह करोड़ से ऊपर वोटर भी नौजवानों की परिभाषा में आते हैं. इतनी बड़ी संख्या में युवा वोटरों की चुनाव में भागीदारी क्या बताती है? ये वोटर अपनी राजनीति और व्यवस्था से क्या चाहते हैं?

राष्ट्रीय राजनीति के ज्यादातर नियंता अपने जीवन के संध्याकाल में प्रवेश कर चुके हैं. सही या गलत उनके पास अनुभव हैं और अतीत की यादें हैं. पर नए मतदाताओं के पास केवल उम्मीदें और हौसले हैं. इनमें से काफी नौजवान कुपोषण, गरीबी और तमाम असुविधाओं की बाधाओं को पार करके यहाँ तक पहुँचे हैं. व्यवस्था के निर्माण में उनकी भागीदारी बेहद महत्वपूर्ण है। उनके सपने पूरे होंगे, तो इसी व्यवस्था की मदद से होंगे. और वे इस व्यवस्था को पुष्ट करेंगे. सवाल है कि क्या हमारा लोकतंत्र इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों की उम्मीदों को पूरा करेगा?

संयुक्त राष्ट्र की परिभाषाएं सामान्यतः 15 से 24 साल की अवस्था को युवा की श्रेणी में रखती हैं. भारत की राष्ट्रीय युवा नीति-2003 में 13 से 35 वर्ष की आयु को युवा की श्रेणी में रखा गया था. बाद में 2014 की राष्ट्रीय नीति में इसे 15-29 वर्ष कर दिया गया. यह परिभाषा बदलती रहती है, पर किसी भी परिभाषा से देखें, तो पाएंगे कि दुनिया के सबसे युवा देशों में भारत सबसे आगे है. सन 2018 में भारत की सकल आबादी की औसत उम्र 27.9 वर्ष थी और 2020 में देश की कुल आबादी में 34 फीसदी युवा होंगे.

Wednesday, March 13, 2019

स्त्रियों को टिकट देने में हिचक क्यों?

http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//13032019//13032019-md-hr-10.pdf
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने घोषणा की है कि हम एक तिहाई सीटें महिला प्रत्याशियों को देंगे। प्रगतिशील दृष्टि से यह घोषणा क्रांतिकारी है और उससे देश के दूसरे राजनीतिक दलों पर भी दबाव बनेगा कि वे भी अपने प्रत्याशियों के चयन में महिला प्रत्याशियों को वरीयता दें। उधर ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं। दोनों घोषणाएं उत्साहवर्धक हैं, पर दोनों लोकसभा के लिए हैं। ओडिशा में विधानसभा चुनाव भी हैं, पर उसमें टिकट वितरण का यही फॉर्मूला नहीं होगा। बंगाल में अभी चुनाव नहीं हैं, इसलिए कहना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की रणनीति क्या होगी। बहरहाल दोनों घोषणाएं सही दिशा में बड़ा कदम हैं। 
सत्रहवें लोकसभा चुनाव में देश के 90 करोड़ मतदाताओं को भाग लेने का मौका मिलेगा, इनमें से करीब आधी महिला मतदाता हैं। पर व्यावहारिक राजनीति इस आधार पर नहीं चलती। आने दीजिए पार्टियों की सूचियाँ, जिनमें पहलवानों की भरमार होगी। राजनीति की सफलता का सूत्र है विनेबिलिटीयानी जीतने का भरोसा। यह राजनीति पैसे और डंडे के जोर पर चलती है। पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के विश्लेषण से एक बात सामने आई कि युवा और खासतौर से महिला मतदाताओं ने चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह भूमिका इसबार के चुनाव में और बढ़ेगी, पर राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी आज भी कम है। कमोबेश दुनियाभर की राजनीति पुरुषवादी है, पर हमारी राजनीति में स्त्रियों की भूमिका वैश्विक औसत से भी कम है। सामान्यतः संसद और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10 फीसदी से ऊपर नहीं जाती।