दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने किसानों
की बदहाली को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाने में सफलता जरूर हासिल की, पर राजनीतिक
दलों के नेताओं की उपस्थिति और उनके वक्तव्यों के कारण यह रैली महागठबंधन की चुनाव
रैली में तब्दील हो गई। रैली का स्वर था कि किसानों का भला करना है, तो सरकार को बदलो।
खेती-किसानी की समस्या पर केन्द्रित यह आयोजन एक तरह से विरोधी दलों की एकता की
रैली साबित हुआ। सवाल अपनी जगह फिर भी कायम है कि विरोधी एकता क्या किसानों की
समस्या का स्थायी समाधान है? सवाल यह भी है कि मंदिर की राजनीति के मुकाबले इस राजनीति में क्या खोट है? राजनीति में सवाल-दर-सवाल है, जवाब किसी के पास नहीं।
किसानों की समस्याओं का समाधान सरकारें बदलने से
निकलता, तो अबतक निकल चुका होता। ये समस्याएं आज की नहीं हैं। रैली का उद्देश्य किसानों
के दर्द को उभारना था, जिसमें उसे सफलता मिली। किसानों के पक्ष में दबाव बना और तमाम
बातें देश के सामने आईं। रैली में राहुल गांधी, शरद पवार, सीताराम येचुरी, अरविंद
केजरीवाल, फारुक़ अब्दुल्ला, शरद यादव और योगेन्द्र यादव वगैरह के भाषण हुए।
ज्यादातर वक्ताओं का निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर था। बीजेपी की भागीदारी
थी नहीं इसलिए जो कुछ भी कहा गया, वह एकतरफा था।