कर्नाटक विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेंद्र
मोदी ने पहले तो एचडी देवगौड़ा की तारीफ की और फिर अगले ही रोज कहा कि जेडीएस को
वोट देने का मतलब है वोट की बरबादी। क्या उनके इन उल्टे-सीधे बयानों के पीछे कोई गहरी
राजनीति है? वे वोटर को बहका रहे
हैं या अपने प्रतिस्पर्धियों को? क्या बीजेपी
और जेडीएस का कोई छिपा समझौता है? क्या बीजेपी
ने कांग्रेस को हराने के लिए जेडीएस को ढाल बनाया है? भारतीय राजनीति में सोशल इंजीनियरी का
स्वांग तबतक चलेगा, जबतक वोटर को अपने हितों की समझ नहीं होगी। मुसलमान वोटर पर भी
यही बात लागू होती है।
कर्नाटक की सोशल इंजीनियरी उत्तर भारत के राज्यों से भी
ज्यादा जटिल है। ऐसे में देवेगौडा की तारीफ या आलोचना मात्र से कुछ फीसदी वोट इधर
से उधर हो जाए, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। इस इंजीनियरी में सिद्धरमैया और अमित शाह
में से किसका दिमाग सफल होगा, इसका पता चुनाव परिणाम आने पर लगेगा। इतना समझ में आ
रहा है कि बीजेपी की कोशिश है कि दलितों और मुसलमानों के एकमुश्त वोट कांग्रेस को मिलने
न पाएं। इसमें जेडीएस मददगार होगी।
सोशल इंजीनियरी का स्वांग
क्या जेडीएस खुद को चारे की तरह इस्तेमाल होने देगी? उसका बीएसपी और असदुद्दीन ओवेसी की एआईएमआईएम
के साथ समझौता है और उसका अपना भी वोट-आधार है। उसके गणित को भी समझना होगा। सन
2015 में जबसे ओवेसी बिहार में चुनाव लड़ने गए हैं, उनकी साख घटी है। माना जाता है
कि वे कांग्रेस को मिलने वाला मुसलमान वोट काटने के लिए जाते हैं।
राज्य में दलित और मुसलमान दो सबसे बड़े सामाजिक वर्ग
हैं। ये दोनों एक साथ आ जाएं, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं, पर क्या ऐसा सम्भव है? प्रश्न है कि दलित और मुसलमान क्या टैक्टिकल
वोटिंग करेंगे? दलित ध्रुवीकरण अभी राज्य
में नहीं है, पर मुसलमान वोट सामान्यतः बीजेपी को हराने वाली पार्टी को जाता है। सिद्धरमैया
भी चाहते हैं कि बीजेपी और जेडीएस का याराना नजर आए। इससे मुसलमानों की जेडीएस से
दूरी बढ़ेगी। हाल में कांग्रेस ने जेडीएस के कुछ मुस्लिम नेताओं को अपनी तरफ तोड़ा
भी है।