पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य
न्यायाधीश जस्टिस दीपक
मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार
होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को
नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी
पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ
भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे
में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।
Sunday, March 25, 2018
Tuesday, March 20, 2018
माफ़ियों के बाद अब ‘आप’ का क्या होगा?
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी
के लिए
आम आदमी पार्टी का जन्म पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2012 में हुआ था.
लगता था कि शहरी युवा वर्ग राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए उठ खड़ा हुआ है.
वह भारतीय लोकतंत्र को नई परिभाषा देगा.
सारी उम्मीदें अब टूटती नज़र आ रही हैं.
संभव है कि अरविंद केजरीवाल माफी-प्रकरण के कारण फंसे
धर्म-संकट से बाहर निकल आएं. पार्टी को क़ानूनी माफियां आसानी से मिल जाएंगी, पर नैतिक और
राजनीतिक माफियां इतनी आसानी से नहीं मिलेंगी.
क्या वे राजनीति के उसी घोड़े पर सवार हो पाएंगे जो
उन्हें यहां तक लेकर आया है? अब उनकी यात्रा की
दिशा क्या होगी? वे किस मुँह से जनता के बीच जाएंगे?
ख़ूबसूरत मौका खोया
दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश से एक आदर्श नगर-केंद्रित
राजनीति का मौक़ा आम आदमी पार्टी को मिला था.
उसने
धीरे-धीरे काम किया होता तो इस मॉडल को सारे देश में लागू करने की बातें होतीं, पर पार्टी ने
इस मौक़े को हाथ से निकल जाने दिया.
उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का कैनवस इतना बड़ा था
कि उसपर कोई तस्वीर बन ही नहीं सकती थी.
ज़ाहिर है कि केजरीवाल अब बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ बड़े
आरोप नहीं लगाएंगे. लगाएँ भी तो विश्वास कोई नहीं करेगा.
उन्होंने अपना भरोसा खोया है. पार्टी की सबसे बड़ी
चुनौती अब यह है कि वह अपनी राजनीति को किस दिशा में मोड़ेगी.
चंद मुट्ठियों में क़ैद और विचारधारा-विहीन इस पार्टी का
भविष्य अंधेरे की तरफ़ बढ़ रहा है.
समर्थकों से धोखा
केजरीवाल की बात छोड़ दें, पार्टी के
तमाम कार्यकर्ता ऐसे हैं जिन्होंने इस किस्म की राजनीति के कारण मार खाई है, कष्ट सहे हैं.
बहुतों पर मुक़दमे दायर हुए हैं या किसी दूसरे तरीक़े से
अपमानित होना पड़ा. वे फिर भी अपने नेतृत्व को सही समझते रहे. धोखा उनके साथ हुआ.
संदेश यह जा रहा है कि अब उन्हें बीच भँवर में छोड़कर
केजरीवाल अपने लिए आराम का माहौल बनाना चाहते हैं. क्यों?
बात केवल केजरीवाल की नहीं है. उनकी समूची राजनीति का
सवाल है. ऐसा क्यों हो कि वे चुपके से माफी मांग कर निकले लें और बाकी लोग मार
खाते रहें?
फिर से खड़ी होती कांग्रेस
Monday, March 19, 2018
क्षेत्रीय क्षत्रपों में हलचल
तेलुगु देशम पार्टी ने अपने चार साल पुराने गठबंधन को
खत्म करके एनडीए से अलग होने का फैसला अचानक ही नहीं किया होगा। पार्टी ने बहुत
तेजी से मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का फैसला भी कर लिया।
आंध्र की ही वाईएसआर कांग्रेस ने इसके पहले अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिसके
नोटिस को स्पीकर स्वीकार नहीं किया। सब जानते हैं कि सरकार गिरने वाली नहीं है, पर
अचानक इस प्रस्ताव को समर्थन मिलने लगा है। इसके साथ कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम और वामपंथी
पार्टियाँ नजर आ रहीं हैं। याद करें, पिछले लोकसभा चुनाव के पहले आंध्र प्रदेश और
तेलंगाना राजनीतिक कारणों से खबरों में रहते थे।
क्षेत्रीय क्षत्रपों की राष्ट्रीय आकांक्षाएं
बीजेपी की राजनीति का पहला निशाना कांग्रेस है और कांग्रेस का पहला निशाना बीजेपी है. दोनों पार्टियों के निशान पर क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, बल्कि दोनों की दिलचस्पी क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ की है. इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों की दिलचस्पी राष्ट्रीय दलों को पीछे धकेलकर केन्द्र की राजनीति में प्रवेश करने की है. देश में क्षेत्रीय राजनीति का उदय 1967 में कांग्रेस की पराजय के साथ हुआ था. इस
परिघटना के तीन दशक बाद जबतक बीजेपी का उदय नहीं हुआ, राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ
कांग्रेस थी. सन 2004 तक एनडीए और उसके बाद यूपीए और फिर एनडीए सरकार के बनने से
ऐसा लगा कि राष्ट्रीय जनाधार वाले दो दल हमारे बीच हैं. पर, अब कांग्रेस के निरंतर
पराभव से अंदेशा पैदा होने लगा है कि उसकी राष्ट्रीय पहचान कायम रह भी पाएगी या
नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दी इलाके की राजनीति विराजती है, जो राष्ट्रीय
राजनीति की धुरी है. दोनों राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो चुका है.
हाल
की घटनाओं पर नजर डालें तो दो बातें नजर आ रहीं है. एक, बीजेपी ने पूर्वोत्तर और
दक्षिण भारत में पैर पसारने की कोशिश की है. दूसरे दक्षिणी राज्यों समेत देश के
दूसरे इलाकों की राजनीति केन्द्र की तरफ बढ़ रही है. तेलुगु देशम ने मोदी सरकार के
खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का बिगुल बजाकर केवल आंध्र के आर्थिक सवाल को ही नहीं
उठाया है, बल्कि चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी उजागर किया
है. इस अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरेगी नहीं, पर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को
सामने आने का मौका जरूर मिला है.
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