Sunday, August 20, 2017

बार-बार क्यों हो रहीं है ट्रेन दुर्घटनाएं?


खतौली के पास हुई ट्रेन दुर्घटना ने तीन-चार किस्म की चिंताओं को जन्म दिया है. पहली नजर में लगता है कि यह दुर्घटना मानवीय गलती का परिणाम है. एक तरफ भारतीय रेलवे 200 किलोमीटर की स्पीड से रेलगाड़ियाँ चलाने जा रहा है, दूसरी तरफ मानवीय गलतियों की संभावना अब भी बनी हुई है.

इन रेल दुर्घटनाओं को लेकर तीन बड़ी चिंताएं सामने आती हैं. पहली चिंता यह कि रेल संरक्षा (सेफ्टी) को लेकर काकोदकर समिति की सिफारिशें प्राप्त होने के पाँच साल बाद भी हम कोई बड़ा कदम नहीं उठा पाए हैं.

दूसरी चिंता यह है कि हम रेलगाड़ियों की स्पीड बढ़ाने पर लगातार जोर दे रहे हैं, जबकि दुर्घटनाएं बता रहीं हैं कि सेफ्टी के सवालों का संतोषजनक जवाब हमारे पास नहीं है. तीसरी बड़ी चिंता इस बात को लेकर भी है कि इनके पीछे तोड़फोड़ या आतंकी संगठनों का हाथ तो नहीं है.

खतौली की दुर्घटना को लेकर फौरन नतीजों पर नहीं पहुँचा जा सकता. अलबत्ता तोड़फोड़ या आतंकी गतिविधि के अंदेशे की जाँच करने के लिए उत्तर प्रदेश एटीएस की टीम भी घटनास्थल पर पहुँची है. तोड़फोड़ के अंदेशे की जाँच फौरन करने की जरूरत होती है, क्योंकि देर होने पर साक्ष्य मिट जाते हैं.

दुर्घटनाओं का संख्या बढ़ी है

बहरहाल यह बात परेशान करती है कि हाल में रेल दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ी है. खासतौर से रेलगाड़ियों के पटरी से उतरने की संख्या काफी ज्यादा है. हाल में 9 अप्रैल को दक्षिण पूर्व रेलवे के हावड़ा-खड़गपुर खंड पर एक मालगाड़ी पटरी से उतरी.

युद्ध के नगाड़े क्यों बजा रहा है मीडिया?

एबीपी न्यूज़ पर रात में एक कार्यक्रम आ रहा था कि भारत और चीन के बीच लड़ाई छिड़ी तो कौन सा देश किसके साथ होगा। कार्यक्रम-प्रस्तोता ने अपने मन से और कुछ सामान्य समझ से दोनों देशों के समर्थकों के नाम तय किए और सूची बनाकर पेश कर दी। इसी तरह जी न्यूज पर एक कार्यक्रम चल रहा था, जिससे लगता था कि भारत और चीन के युद्ध की उलटी गिनती शुरू हो गई है। क्या हिंदी या अंग्रेजी के ज्यादातर चैनलों की टीआरपी लड़ाई का नाम लेने से बढ़ती है? क्या वजह है कि शाम को ज्यादातर चैनलों की सभाओं में भारत और पाकिस्तान के तथाकथित विशेषज्ञ बैठकर एक-दूसरे को गाली देते रहते हैं? चैनल जान-बूझकर इसे बढ़ावा देते हैं? सवाल है कि क्या दर्शक यही चाहता है? 


चैनलों के इस जुनूनी व्यवहार के मुकाबले भारत सरकार का रुख काफी शांत और संयत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण में चीन और पाकिस्तान का नाम तक नहीं था। केवल कश्मीर के बारे में कुछ बातें थीं और एक जगह भारत की शक्ति के संदर्भ में सर्जिकल स्ट्राइक का जिक्र था। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात सुषमा स्वराज ने हाल में राज्यसभा में कही। उन्होंने सपा नेता रामगोपाल यादव के युद्ध की तैयारी के बयान पर कहा कि युद्ध से समाधान नहीं निकलता। सेना को तैयार रखना होता है। धैर्य और भाषा-संयम और राजनयिक रास्तों से हल निकालने की कोशिश की जा रही है। आज सामरिक क्षमता बढ़ाने से ज्यादा अहम है आर्थिक क्षमता को बढ़ाना।

Friday, August 18, 2017

चुनाव सुधार पर कुछ खरी बातें

पिछले कुछ वर्षों का अनुभव है कि देश के राजनीतिक दलों ने वोटिंग मशीन के विरोध पर जितना वक्त लगाया है, उतना वक्त वे चुनाव सुधार से जुड़े मसलों पर नहीं लगाते। वे चाहें तो आसानी से संसद ऐसा कानून बना सकती है, जिसमें चंदे की व्यवस्था पारदर्शी बन जाए। सभी (खासतौर से बीजेपी -कांग्रेस तथा क्षेत्रीय दलों) की दिलचस्पी इस बात में होती है कि चंदा देने वाले का नाम छिपाया जाए। बहरहाल दिल्ली में गुरुवार को हुई दो गतिविधियाँ इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। 

मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने गुरुवार 17 अगस्त 2017 को दिल्ली में हुई एक बैठक में कहा कि हमारी राजनीतिक नैतिकता में कुछ नई बातें शामिल होती जा रहीं हैं (creeping new normal of political morality)। अब हम किसी भी कीमत पर जीतने को सामान्य बात मानकर चलने लगे हैं। यह बैठक एसोसिएशन ऑफ डैमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक संस्था ने बुलाई थी। बैठक का विषय था ‘Consultation on Electoral and Political Reforms।’  

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा कि सामान्य व्यक्ति ने कुछ बातों को स्वीकार कर लिया है, “In this narrative, poaching of legislators is extolled as smart political management; strategic introduction of money for allurement, tough-minded use of state machinery for intimidation etc. are all commended as resourcefulness.

“The winner can commit no sin; a defector crossing over to the ruling camp stands cleansed of all the guilt as also possible criminality. It is this creeping ‘new normal’ of political morality that should be the target for exemplary action by all political parties, politicians, media, civil society organisations, constitutional authorities and all those having faith in democratic polity for better election, a better tomorrow,” he added.

Wednesday, August 16, 2017

कश्मीरियों को गले लगाने वाली बात में कोई पेच है क्या?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वतंत्रता दिवस संबोधन की दो-तीन खास बातों पर गौर करें तो पाएंगे कि वे 2019 के चुनाव से आगे की बातें कर रहे हैं. यह राजनीतिक भाषण है, जो सपनों को जगाता है. इन सपनों की रूपरेखा 2014 के स्वतंत्रता दिवस संबोधन में और जून 2014 में सोलहवीं संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण में पेश की गई थी.

मोदी ने 2014 में अपने जिन कार्यक्रमों की घोषणा की थी, अब उन्होंने उनसे जुड़ी उपलब्धियों को गिनाना शुरू किया है. वे इन उपलब्धियों को सन 2022 से जोड़ रहे हैं. इसके लिए उन्होंने सन 1942 की अगस्त क्रांति से 15 अगस्त 1947 तक स्वतंत्रता-संकल्प को रूपक की तरह इस्तेमाल किया है. 

हालांकि मोदी के संबोधन में ध्यान देने लायक बातें कुछ और भी हैं, पर लोगों का ध्यान जम्मू-कश्मीर को लेकर कही गई कुछ बातों पर खासतौर से गया है.

कश्मीरी लोग हमारे हैं, बशर्ते...

सत्तर साल का आजाद भारत: कितने कदम चले हम?

करीब डेढ़ दशक पहले कहावत प्रसिद्ध हुई थी, ‘सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती थी। यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन था। कि हम अपना मजाक उड़ाना भी जानते हैं। यह एक सचाई की स्वीकृति भी थी।  
घटनाओं को एकसाथ मिलाकर पढ़ें तो विचित्र बड़े रोचक अनुभव होते हैं। हाल में उपराष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में 771 वोट पड़े। इनमें से 11 वोट अवैध घोषित हुए। उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्य वोट डालते हैं। वोट डालने में यह गलती सांसदों ने की है। इसे बड़ी गलती न मानें, पर यह बात किस तरफ इशारा करती है? यही कि हमारे लोकतंत्र ने संस्थाओं की रचना तो की, पर उनकी गुणवत्ता को सुनिश्चित नहीं किया।