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Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।

Tuesday, April 28, 2015

भूकम्प से हम कुछ सीख भी सकते हैं

लम्बे अरसे से हिमालयी क्षेत्र में महा-- भूकम्प का अंदेशा है। कहना मुश्किल है कि यह वही भूकम्प था या इससे बड़ा भूकम्प और आएगा। धरती के नीचे टेक्टोनिक प्लेटों के लगातार जमा होते तनाव के कारण यह भूकम्प अनिवार्य था। पिछले डेढ़ सौ साल में हिमालय क्षेत्र में चार बड़े भूकम्प आए हैं। पर जिस इलाके में इस बार आया है वहाँ एक अरसे से कोई बड़ी घटना नहीं हुई थी। भूकम्प को टाला नहीं जा सकता, पर उससे होने वाले नुकसान को सीमित किया जा सकता है। दूसरे उससे हम कुछ सीख भी सकते हैं। प्राकृतिक आपदा कई तरीकों से सामने आती है। कोई भी प्राकृतिक परिघटना आपदा तभी बनती है जब हम उसपर काबू करने की कोशिश करते हैं। दूसरी ओर प्रकृति के अनुरूप हम खुद को ढालें तो वह हमारी मित्र है। 

Saturday, April 11, 2015

भाजपा की नया ‘मार्ग’, पुराना ‘दर्शन’ दुविधा

बेंगलुरु में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को उससे मिलने वाले संकेतों के मद्देनज़र देखा जाना चाहिए। दक्षिण में पार्टी की महत्वाकांक्षा का पहला पड़ाव कर्नाटक है। अगले साल तमिलनाडु और केरल में चुनाव होने वाले हैं। उसके पहले इस साल बिहार में चुनाव हैं। पिछले साल लोकसभा चुनाव में भारी विजय के बाद पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह पहली बैठक थी। चुनाव पूर्व की बैठकें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर असमंजस से भरी होती थीं। अबकी बैठक मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की पुष्टि में थी। पार्टी की रीति-नीति, कार्यक्रम और कार्यकर्ता भी बदल रहे हैं।

इस बैठक में पार्टी के मार्गदर्शी लालकृष्ण आडवाणी का उद्बोधन न होना पार्टी की भविष्य की दिशा का संकेत दे गया है। यह पहला मौका है जब आडवाणी जी के प्रकरण पर मीडिया ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अलबत्ता राष्ट्रीय नीतियों को लेकर मोदी युग की आक्रामकता इस बैठक में साफ दिखाई पड़ी। यह बात मोदी के तीन भाषणों में भी दिखाई दी। मोदी ने कांग्रेस पर अपने आक्रमण की धार कमजोर नहीं होने दी है। इसका मतलब है कि उनकी दिलचस्पी कांग्रेस के आधार को ही हथियाने में है। उनका एजेंडा कांग्रेसी एजेंडा के विपरीत है। दोनों की गरीबों, किसानों और मजदूरों की बात करते हैं, पर दोनों का तरीका फर्क है।

Tuesday, April 7, 2015

सार्वजनिक स्वास्थ्य राजनीति का विषय बनाइए, राजनीतिबाज़ी का नहीं

आप कहेंगे कि राजनीतिबाज़ी और राजनीति में फर्क क्या है? हमें जो राजनीति दिखाई पड़ती है वह ज्यादातर राजनीतिबाज़ी है। इसमें सिद्धांत कम, मौकापरस्ती ज्यादा है। सत्ता पर यह पार्टी रहे या वह रहे, इससे तबतक कोई फर्क नहीं पड़ता जबतक सार्वजनिक विमर्श मूल्य-आधारित नहीं होता। अचानक हम तम्बाकू पर चर्चा शुरू होती देखते हैं और फिर उसे किसी दूसरी चर्चा शुरू होने पर खत्म होते भी देखते हैं। इसके मूल में सार्वजनिक स्वास्थ्य नहीं, मौकापरस्त राजनीति है। तम्बाकू का सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम एक अंतरराष्ट्रीय संधि से जुड़े हैं। पर केवल तम्बाकू ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है। शराब, नमक, चीनी, कोल्ड ड्रिकं, फास्ट फूड, चिकनाई और पर्यावरण में फैला ज़हर भी खतरनाक है। बड़ा सच यह है कि कैंसर और एचआईवी के मुकाबले सर्दी-ज़ुकाम और कुपोषण से मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा है। इन सबके  इलाज और नियमन पर विचार किया जाना चाहिए। भारत का अनुभव है कि तम्बाकू उत्पादों पर खौफनाक तस्वीरें छापने पर ही जनता का ध्यान अपने स्वास्थ्य पर जाता है। वह तभी विचलित होती है जब परेशान करने वाली तस्वीरें देखती है। इन सवालों पर केंद्रित राजनीति हमारे यहाँ विकसित नहीं है। जनता के साथ-साथ हमें अपनी राजनीति को शिक्षित करने की जरूरत भी है।

इस बात को लेकर बहस करने का कोई मतलब नहीं है कि तम्बाकू का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकर है या नहीं। भारत में बीड़ी को लेकर कोई शोध नहीं हुआ है तो कराइए। इससे जुड़े कारोबार के सामाजिक प्रभावों पर भी अध्ययन होना चाहिए। पर सच यह है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक नहीं हैं। इसी कारण तम्बाकू को लेकर चल निकली बहस सेहत से जुड़ी चिंताओं के बजाय राजनीतिक खेमेबाज़ी में तब्दील हो रही है। तम्बाकू लॉबी की ताकत जग-ज़ाहिर है। पर लॉबी सिर्फ तम्बाकू की ही नहीं है। इन लॉबियों पर नकेल डालने वाले समाज की स्थापना के बारे में सोचिए।

Saturday, March 28, 2015

कांग्रेस का ‘मेक-ओवर’ मंत्र

दो महीने बाद जब नरेंद्र मोदी सरकार एक साल पूरा करेगी तब कांग्रेस पार्टी की विपक्ष के रूप में भूमिका का एक साल भी पूरा होगा। उस वक्त दोनों भूमिकाओं की तुलना करने का मौका भी होगा। फिलहाल कांग्रेस मेक-ओवर मोड में है। वह अपनी शक्लो-सूरत बदल रही है। सबसे ताजा उदाहरण है उसके प्रवक्ताओं और मीडिया पैनलिस्ट की सूची, जिसमें भारी संख्या में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बाल-बच्चे शामिल हैं। युवा और वैल कनेक्टेड शहरी। साथ में राहुल गांधी के करीबी। पार्टी के मेक-ओवर का यह नया मंत्र है। और राजनीतिक दर्शन माने फॉर्मूला है किसान, गाँव और गरीब। देश की ज्यादातर पार्टियों का सक्सेस मंत्र यही है।

Thursday, March 26, 2015

अभिव्यक्ति पर बहस तो अब शुरू होगी

सुप्रीम कोर्ट के 66ए के बाबत फैसले के बाद यह धारा तो खत्म हो गई, पर इस विषय पर विमर्श की वह प्रक्रिया शुरू हुई है जो इसे तार्किक परिणति तक ले जाएगी। यह बहस खत्म नहीं अब शुरू हुई है। धारा 66ए के खत्म होने का मतलब यह नहीं कि किसी को कुछ भी लिख देने का लाइसेंस मिल गया है। ऐसा सम्भव भी नहीं। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी सीमाएं अच्छी तरह परिभाषित हैं। यह संवैधानिक व्यवस्था सोशल मीडिया पर भी लागू होगी। पर उसके नियमन की जरूरत है। केंद्र सरकार ने इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए इससे हाथ खींच लिया था। उसकी जिम्मेदारी है कि वह अब नियमों को स्पष्ट करने में पहल करे।

Thursday, March 19, 2015

आर्थिक बदलाव का जरिया बनेगा बीमा कानून

बीमा संशोधन अधिनियम पास होने के बाद आर्थिक उदारीकरण से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अध्याय पूरा हो गया। पर इसके पास होने की प्रक्रिया ने हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों को खोलकर रख दिया। क्या वजह थी कि पिछले छह साल से यह विधेयक अटका पड़ा था? भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने मौकों पर इसका कभी समर्थन और कभी विरोध किया। इस बार विदेशी निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का मामला था। यह तमाशा तब भी हुआ था जब इस क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोला गया। 1997 में जब चिदम्बरम वित्त मंत्री थे, बीमा निजीकरण के बिल का भाजपा ने विरोध किया। जब अपनी सरकार आई तो उसने बीमा में विदेशी पूँजी के दरवाजे खोले। उस वक्त कांग्रेस ने उसका विरोध किया। और जब यूपीए ने विदेशी पूँजी निवेश की सीमा बढ़ाने की कोशिश की तो भाजपा ने उसका विरोध किया। और जब भाजपा सरकार आई तो कांग्रेस ने अपने ही विधेयक का विरोध किया। बेशक हर बार कोई न कोई तर्क उनके पास होता है।

Saturday, February 28, 2015

भूमि अधिग्रहण का अखाड़ा और राजनीति का पहाड़ा

मोदी सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण कानून संकट पैदा करने वाला है। शायद सरकार ने इसके जोखिमों के बारे में विचार नहीं किया। इसके इर्द-गिर्द भाजपा विरोधी आंदोलन खड़ा हो रहा है जिससे केंद्र सरकार पर तो खतरा पैदा नहीं होगा, पर राजनीतिक रूप से उसे अलोकप्रिय बना सकता है। दूसरी ओर यह कानून हमारे तमाम अंतर्विरोधों को खोलेगा और विरोधी आंदोलन की राजनीति चलाने वालों की नींद भी हराम करेगा। इतना कड़ा कानून बनाने के बाद कांग्रेस के सामने भी इससे अपना पिंड छुड़ाने का खतरा पैदा होगा।

क्या सरकार को किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति पर कब्जा करने का अधिकार होना चाहिए? क्या राजनीतिक कारणों से राष्ट्रीय महत्व के सवालों को उलझाना उचित है? क्या हमारे पास सामाजिक विकास और आर्थिक संवृद्धि के संतुलन का कोई फॉर्मूला नहीं है? देश की एक तिहाई आबादी शहरों में रह रही है और लगभग इतनी ही आबादी शहरों में रहने की योजना बना रही है या वहाँ जाने को मजबूर हो रही है। शहर बसाने के लिए जमीन कहाँ से आएगी? गाँवों में केवल किसान ही नहीं रहते हैं। वहाँ की दो तिहाई से ज्यादा आबादी भूमिहीनों या बेहद छोटी जोत वाले किसानों की है, जिनकी आजीविका केवल अपने ही खेत के सहारे नहीं है। उन्हें काम देने के लिए उनके आसपास आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने की जरूरत है। इतने लोगों के लिए उद्योग बनाने के लिए जगह कहाँ है?

Monday, February 9, 2015

टूटना चाहिए चुनावी चंदे का मकड़जाल

यकीन मानिए भारत के आम चुनाव को दुनिया में काले धन से संचालित होने वाली सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है। हमारे लोकतंत्र का सबसे खराब पहलू है काले धन की वह विशाल गठरी जिसे ज्यादातर पार्टियाँ खोल कर बैठती हैं। काले धन का इस्तेमाल करने वाले प्रत्याशियों के पास तमाम रास्ते हैं। सबसे खुली छूट तो पार्टियों को मिली हुई है, जिनके खर्च की कोई सीमा नहीं है। चंदा लेने की उनकी व्यवस्था काले पर्दों से ढकी हुई है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के चंदे को लेकर मीडिया में दो दिन का शोर-गुल हुआ। और उसके बाद खामोशी हो गई। बेहतर हो कि न केवल इस मामले में बल्कि पार्टियों के चंदे को लेकर तार्किक परिणति तक पहुँचा जाए।

सामाजिक सेवा का ऐसा कौन सा सुफल है, जिसे हासिल करने के लिए पार्टियों के प्रत्याशी करोड़ों के दाँव लगाते हैं? जीतकर आए जन-प्रतिनिधियों को तमाम कानून बनाने होते हैं, जिनमें चुनाव सुधार से जुड़े कानून शामिल हैं। अनुभव बताता है कि वे चुनाव सुधार के काम को वरीयता में सबसे पीछे रखते हैं। ऐसा क्यों? व्यवस्था में जो भी सुधार हुआ नजर आता है वह वोटर के दबाव, चुनाव आयोग की पहल और अदालतों के हस्तक्षेप से हुआ है। सबसे बड़ा पेच खुद राजनीतिक दल हैं जिनके हाथों में परोक्ष रूप से नियम बनाने का काम है। चुनाव से जुड़े कानूनों में बदलाव का सुझाव विधि आयोग को देना है, पर दिक्कत यह है कि राजनीतिक दल विधि आयोग के सामने अपना पक्ष रखने में भी हीला-हवाला करते हैं।

Saturday, February 7, 2015

खेल बेचे तेल, आओ खेलें ये नया खेल

खेल विशेषज्ञों की दिलचस्पी इस बात में है कि इस बार का विश्व कप कौन जीतेगा। भारत के दर्शक मायूस हैं कि ट्राई सीरीज़ में धोनी के धुरंधरों ने नाक कटा दी। अब 15 को पाकिस्तान के साथ मैच है। हमारे मीडिया की चली तो इसे विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी घटना बनाकर छोड़ेगा। पर क्रिकेट में अब खेल कम, मनोरंजन ज्यादा है। यह अब आईबॉल्स का खेल है। संस्कृति, मनोरंजन, करामात, करिश्मा, जादू जैसी तमाम बातें क्रिकेट में आ चुकी हैं जिनके बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं था। विश्व कप के चालीस साल के इतिहास में क्या से क्या हो गया। एक तरफ खेल बदला वहीं उसे देखने वाले भी बदल गए।

Saturday, January 31, 2015

अफसर बनाम सियासत, सवाल विशेषाधिकार का

विदेश सचिव सुजाता सिंह को हटाए जाने के पीछे कोई राजनीतिक मंतव्य नहीं था। इसके पीछे न तो ओबामा की भारत यात्रा का कोई प्रसंग था और न देवयानी खोबरागड़े को लेकर भारत और अमेरिका के बीच तनातनी कोई वजह थी। यह बात भी समझ में आती है कि सरकार सुब्रमण्यम जयशंकर को विदेश सचिव बनाना चाहती थी और उसे ऐसा करने का अधिकार है। यही काम समझदारी के साथ और इस तरह किया जा सकता था कि यह फैसला अटपटा नहीं लगता। अब कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। साथ ही सुजाता सिंह और सुब्रमण्यम जयशंकर की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को लेकर चिमगोइयाँ चलने लगी हैं। प्रशासनिक उच्च पदों के लिए होने वाली राजनीतिक लॉबीइंग का जिक्र भी बार-बार हो रहा है। यह देश के प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा नहीं है। अलबत्ता नौकरशाही, राजनीति और जनता के रिश्तों को लेकर विमर्श शुरू होना चाहिए। इन दोनों की भूमिकाएं गड्ड-मड्ड होने का सबसे बड़ा नुकसान देश की गरीब जनता का होता है। भ्रष्टाचार, अन्याय और अकुशलता के मूल में है राजनीति और प्रशासन का संतुलन।

Tuesday, January 20, 2015

स्वास्थ्य का अधिकार देंगे, पर कैसे?

सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2015 के जिस मसौदे पर जनता की राय मांगी है उसके अनुसार आने वाले दिनों में चिकित्सा देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार बन जाएगी। यानी स्वास्थ्य व्यक्ति का कानूनी अधिकार होगा। सिद्धांततः यह क्रांतिकारी बात है। भारतीय राज-व्यवस्था शिक्षा के बाद व्यक्ति को स्वास्थ्य का अधिकार देने जा रही है। इसका मतलब है कि हमारा समाज गरीबी के फंदे को तोड़कर बाहर निकलने की दिशा में है। पर यह बात अभी तक सैद्धांतिक ही है। इसे व्यावहारिक बनने का हमें इंतजार करना होगा। पर यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर चेतना बढ़ी है।

Saturday, January 10, 2015

कब तक चलेगी मोदी की अध्यादेशी नैया?

भूमि अधिग्रहण कानून देश की राजनीति और प्रशासन की पोल खोलता है। लम्बे अरसे तक लटकाए रखने के बाद इसे जब पास किया गया तभी ज़ाहिर था कि कारोबार जगत को इसे लेकर अंदेशा है। जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पद भार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण के कानून में किसानों के पक्ष में पैरवी की थी, पर जब कानून पास हो रहा था तब उन्हें भी लगने लगा था कि आर्थिक विकास की दर को तेज़ करने के लिए इसकी कड़ी शर्तें कम करनी होंगी। निवेशकों को माफिक आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा। अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसमें बदलाव लाना चाहती है, पर जब यह कानून पास हो रहा था तब पार्टी ने ये सवाल नहीं उठाए थे। फिलहाल इस मामले से जुड़े कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं:-

· सरकार शीतकालीन सत्र में ही कानून में संशोधन कराने में सफल क्यों नहीं हुई? इसी सत्र में सरकार श्रम कानूनों से सम्बद्ध कानूनी बदलाव कराने में सफल रही थी।

· क्या अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है? अध्यादेश के बजाय सरकार ने संसद में इसे पेश क्यों नहीं किया? राज्यसभा में पास नहीं होता तो संयुक्त अधिवेशन का रास्ता था।

· आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस पार्टी की नीति भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों जैसी है। इस मामले में अड़ंगा लगाकर क्या वह अपनी छवि उदारीकरण विरोधी की बनाना चाहेगी?

· मामला केवल भूमि अधिग्रहण कानून तक सीमित नहीं है। अभी सरकार को कई कानूनों को बदलना है। क्या इसके बारे में कोई रणनीति भाजपा के पास है?

Tuesday, January 6, 2015

संरचनात्मक निरंतरता की देन है ‘नीति आयोग’

नीति आयोग बन जाने के बाद जो शुरुआती प्रतिक्रियाएं हैं उनके राजनीतिक आयाम को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्य अभी इसके व्यावहारिक स्वरूप को देखना चाहते हैं। इस साल वार्षिक योजनाओं पर विचार-विमर्श नहीं हुआ है। असम सरकार ने छठी अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों के लिए साधनों को लेकर चिंता व्यक्त की है। वहीं आंध्र सरकार अपनी नीति आयोग बनाने की योजना बना रहा है। तेलंगाना सरकार की समझ कहती है कि अब राज्य को बगैर किसी योजना आयोग की शर्तों से बँधे सीधे धनराशि मिलेगी। देखना यह है कि नीति आयोग का नाम ही बदला है या काम भी बदलेगा। केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय में भी भारी बदलाव होने जा रहे हैं। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बना रहे हैं। अब सर्वेक्षण के दो खंड होंगे। पहले खंड में अर्थ-व्यवस्था का विश्लेषण और विवेचन होगा। साथ ही इस बात पर जोर होगा कि किन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है। दूसरा खंड पिछले वर्षों की तरह सामान्य तथ्यों से सम्बद्ध होगा।

Saturday, December 27, 2014

मोदी के अलोकप्रिय होने का इंतज़ार करती कांग्रेस

सन 2014 कांग्रेस के लिए खौफनाक यादें छोड़ कर जा रहा है। इस साल पार्टी ने केवल लोकसभा चुनाव में ही भारी हार का सामना नहीं किया, बल्कि आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, महाराष्ट्र, सिक्किम के बाद अब जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधान सभाओं में पिटाई झेली है। यह सिलसिला पिछले साल से जारी है। पिछले साल के अंत में उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और दिल्ली में यह हार गले पड़ी थी। हाल के वर्षों में उसे केवल कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सफलता मिली है। आंध्र के वोटर ने तो उसे बहुत बड़ी सज़ा दी। प्रदेश की विधान सभा में उसका एक भी सदस्य नहीं है। चुनाव के ठीक पहले तक उसकी सरकार थी। कांग्रेस ने सन 2004 में दिल्ली में सरकार बनाने की जल्दबाज़ी में तेलंगाना राज्य की स्थापना का संकल्प ले लिया था। उसका दुष्परिणाम उसके सामने है।

Friday, December 26, 2014

धर्मांतरण पर बहस का दायरा और बड़ा कीजिए

बहस धर्मांतरण की हो या किसी दूसरे मसले की उसे खुलकर सामने आना चाहिए। अलबत्ता बातें तार्किक और साधार होनी चाहिए। धार्मिक और अंतःकरण की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण मानवाधिकार है, पर हमें धर्म, खासतौर से संगठित धर्म की भूमिका पर भी तो बात करनी चाहिए। जितनी जरूरी धार्मिक स्वतंत्रता  है उतनी ही जरूरी है धर्म-विरोध की स्वतंत्रता। धर्म का रिश्ता केवल आस्तिक और नास्तिक होने से नहीं है। वह विचार का एक अलग मामला है। व्यक्ति के दैनिक आचार-विचार में धर्म बुनियादी भूमिका क्यों अदा कर रहे हैं? उनकी तमाम बातें निरर्थक हो चुकी हैंं। धार्मिकता को जितना सुन्दर बनाकर पेश किया जाता है व्यवहार में वह वैसी होती नहीं है। इसमें अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग भूमिका है। रोचक बात यह है कि नए-नए धर्मों का आविष्कार होता जा रहा है। हम उन्हें पहचान नहीं पाते, पर वे हमारे जीवन में प्रवेश करते जा रहे हैं। अनेक नई वैचारिक अवधारणाएं भी धर्म जैसा व्यवहार करती हैं। सामान्य व्यक्ति की समझदारी की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। चूंकि बातें कांग्रेस-भाजपा और राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ को लेकर हैं इसलिए तात्कालिक राजनीति का पानी इसपर चढ़ा है।   धर्म निरपेक्षता के हामियों का नजरिया भी इसमें शामिल है। दुनिया में कौन सा धर्म है जो अपने भीतर सुधार के बारे में बातें करता है? जिसमें अपनी मान्यताओं को अस्वीकार करने  और बदलने की हिम्मत हो? हम जिस धार्मिक स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं उसका कोई लेवल फील्ड है या नहीं? आज के सहारा में मेरा एक लेख छपा है इसे देखें:-


हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है, पर वह धर्म-विरोधी नहीं है। संविधान में वर्णित स्वतंत्रताओं में धर्म की स्वतंत्रता और अधिकार भी शामिल है। इस स्वतंत्रता में धर्मांतरण भी शामिल है या नहीं, इसे लेकर कई तरह की धारणाएं हैं। देश के पाँच राज्यों में कमोबेश धर्मांतरण पर पाबंदियाँ हैं। इनके अलावा राजस्थान में इस आशय का कानून बनाया गया है, जो राष्ट्रपति की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहा है। अरुणाचल ने भी इस आशय का कानून बनाया, जो किसी कारण से लागू नहीं हुआ। तमिलनाडु सरकार ने सन 2002 में इस आशय का कानून बनाया, जिसे बाद में राजनीतिक विरोध के कारण वापस ले लिया गया। ये ज्यादातर कानून धार्मिक स्वतंत्रता के कानून हैं, पर इनका मूल विषय है धर्मांतरण पर रोक। धर्मांतरण क्या वैसे ही है जैसे राजनीतिक विचार बदलना? मसलन आज हम कांग्रेसी है और कल भाजपाई? पश्चिमी देश धर्मांतरण की इजाजत देते हैं, पर काफी मुस्लिम देश नहीं देते।

Tuesday, December 16, 2014

लोकतंत्र की खुली खिड़की और साइबर आतंकवाद

हाल में ट्विटर ने पाकिस्तानी संगठन लश्करे तैयबा के अमीर हाफिज सईद का ट्विटर अकाउंट सस्पेंड किया। इसके कुछ समय बाद ही हाफिज सईद के तीन नए अकाउंट तैयार हो गए। इनके मार्फत भारत विरोधी प्रचार फिर से शुरू हो गया साथ ही ट्विटर के संचालकों के नाम भी लानतें बेजी जाने लगीं। आईएस के एक ट्वीट हैंडलर की बेंगलुरु में गिरफ्तारी के बाद जो बातें सामने आ रहीं हैं उनसे लगता है कि सायबर आतंकवाद का खतरा उससे कहीं ज्यादा बड़ा है, जितना सोचा जा रहा था। ब्रिटेन के जीसीएचक्यू (गवर्नमेंट कम्युनिकेशंस हैडक्वार्टर्स) प्रमुख रॉबर्ट हैनिगैन के अनुसार फेसबुक और ट्विटर आतंकवादियों और अपराधियों के कमांड एंड कंट्रोल नेटवर्क बन गए हैं। फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने बताया कि आईएस (इस्लामिक स्टेट) ने वैब का पूरा इस्तेमाल करते हुए सारी दुनिया से भावी जेहादियों को प्रेरित-प्रभावित करना शुरू कर दिया है।

Saturday, December 13, 2014

‘आदर्श’ राजनीति के इंतज़ार में गाँव

बदलाव लाने का एक तरीका होता है चेंज लीडर्स तैयार करो। ऐसे व्यक्तियों और संस्थाओं को बनाओ, जो दूसरों को प्रेरित करें। इस सिद्धांत पर हमारे देश में आदर्शों के ढेर लग गए हैं। आदर्श विद्यालय, आदर्श चिकित्सालय, आदर्श रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन से लेकर आदर्श ग्राम तक। सैद्धांतिक रूप से यह उपयोगी धारणा है, बशर्ते इसे लागू करने का कोई आदर्श सिद्धांत हो। विकास की वास्तविक समस्या अच्छी नीतियों को खोजने की नहीं, राजनीतिक प्रक्रिया को खोजने की है। राजनीति सही है, तो सही नीतियाँ अपने आप बनेंगी। खराब संस्थाओं के दुष्चक्र को तोड़ने का एक रास्ता है आदर्श संस्थाओं को तैयार करना। कुछ दशक पहले अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने व्यवस्थाओं को ठीक करने का एक समाधान सुझाया यदि आप अपना देश नहीं चला सकते तो उसे किसी दूसरे को सब कॉण्ट्रैक्ट कर दीजिए। उन्होंने अपनी अवधारणा को नाम दिया चार्टर सिटीज़। देश अपने यहाँ खाली ज़मीन विदेशी ताकत को सौंप दें, जो नया शहर बसाए और अच्छी संस्थाएं बनाए। एकदम बुनियाद से शुरू करने पर अच्छे ग्राउंड रूल भी बनेंगे।

हमें आदर्श गाँव और आदर्श विद्यालय क्यों चाहिए? क्योंकि सामान्य तरीके से गाँवों का विकास नहीं होता। वे डराने लगे हैं। पहले यह देखना होगा कि क्या गाँव डराते हैं? नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहले 100 स्मार्ट सिटीज़ की अवधारणा दी और अब आदर्श ग्राम योजना दी है। बदलाव लाने का आइडिया अच्छा है बशर्ते वह लागू हो। इस साल जुलाई में आंध्र प्रदेश से खबर मिली थी कि शामीरपेट पुलिस ने एक मुर्गी फार्म पर छापा मारकर रेव पार्टी का भंडाफोड किया है। मुर्गी फार्म पर मुर्गियाँ नहीं थीं। अलबत्ता कुछ  नौजवानों के सामने औरतें उरियाँ (नग्न) रक़्स कर रही थीं। इस रेव पार्टी से पुलिस ने 14 नौजवानों को गिरफ्तार किया। शामीरपेट हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वाँ शहरों से 25 किमी दूर बसा शहर है। यह शहर कभी गाँव होता था। समाजशास्त्री और साहित्यकार श्यामाचरण दुबे ने इस गाँव में पचास के दशक में उस्मानिया विवि के तत्वावधान में एक सामाजिक अध्ययन किया था। उसके आधार पर उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक इंडियन विलेज लिखी थी। उस किताब के अंतिम वाक्यों में उन्होंने लिखा, कहा नहीं जा सकता कि शताब्दी के अंत तक शामीरपेट की नियति क्या होगी। संभव है वह विकराल गति से बढ़ते महानगर का अर्ध-ग्रामीण अंतः क्षेत्र बन जाए...। सन 2014 में उनकी बात सच लगती है।

गाँव को लेकर हमारी धारणाओं पर अक्सर भावुकता का पानी चढ़ा रहता है। अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है जैसी बातें कवि सम्मेलनों में अच्छी लगती हैं। किसी गाँव में जाकर देखें तो कहानी दूसरी मिलेगी। गाँव माने असुविधा। महात्मा गांधी का कहना था, भारत का भविष्य गाँवों में छिपा है। क्या बदहाली और बेचारगी को भारत का भविष्य मान लें? गाँव केवल छोटी सी भौगोलिक इकाई नहीं है। हजारों साल की परम्परा से वह हमारे लोक-मत, लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की बुनियाद है। सामाजिक विचार का सबसे प्रभावशाली मंच। पर ग्राम समुदाय स्थिर और परिवर्तन-शून्य नहीं है। वह उसमें हमारे सामाजिक अंतर्विरोध भी झलकते हैं। हमारा लोकतंत्र पश्चिम से आयातित है। अलबत्ता 73 वे संविधान संशोधन के बाद जिस पंचायत राज व्यवस्था को अपने ऊपर लागू करने का फैसला किया, उसमें परम्परागत सामाजिक परिकल्पना भी शामिल थी, जो व्यवहारतः लागू हो नहीं पाई है।

Saturday, November 29, 2014

अर्ध-आधुनिकता की देन है अंधविश्वास का गरम बाज़ार

बाबाओं और संतों से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के विकास की देन हैं।

अध्यात्म, सत्संग, प्रवचन और अंधविश्वास के सालाना कारोबार का हिसाब लगाएं तो हमारे देश से गरीबी कई बार खत्म की जा सकती है। यह कारोबार कई लाख करोड़ का है। भारत सरकार के बजट से भी ज्यादा। यह इतनी गहराई तक जीवन में मौजूद है कि इसकी केवल भर्त्सना करने से काम नहीं होगा। इसे समझने की कोशिश होनी चाहिए और इसकी सकारात्मक भूमिका की पहचान भी करनी होगी। परम्परागत धर्मानुरागी समाज केवल भारत में ही निवास नहीं करता। यूरोपीय और अमेरिकी समाज का बड़ा तबका आज भी परम्परा-प्रिय है। फिर भी उस समाज ने तमाम आधुनिक विचारों को पनपने का अवसर दिया और पाखंडों से खुद को मुक्त किया।

अनुपस्थित आधुनिक राज-समाज
संत रामपाल या दूसरे संतों के भक्त कौन हैं और वे उनके पास क्यों जाते हैं? ऐसे तमाम संतों और बाबाओं के आश्रम, डेरे, मठ वगैरह चलते हैं। इनके समांतर खाप, पंचायतें और जन जातीय समूह हैं। ग्रामीण समाज में तमाम काम सामुदायिक स्वीकृतियों, सहमतियों और सहायता से होते हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पंचायतों और सामुदायिक समूहों में आते हैं या फिर इन आश्रमों की शरण लेते हैं। यहाँ उनके व्यक्तिगत विवाद निपटाए जाते हैं, समझौते होते हैं। यह काम आधुनिक राज और न्याय-व्यवस्था का था। पर इस परम्परागत काम के विपरीत इन मठों में सोशल नेटवर्किंग विकसित होने लगी। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदे पटाए जाने लगे। संत-महंतों की दैवीय शक्तियों का दानवी इस्तेमाल होने लगा। सत्ता के गलियारों में संत-समागम होने लगे।

Sunday, November 23, 2014

सिर्फ पिकनिक स्पॉट नहीं है ट्रेड फेयर

दिल्ली के प्रगति मैदान में साल भर कोई न कोई नुमाइश लगी रहती है, पर दिल्ली वाले ट्रेड फेयर और पुस्तक मेले का इंतज़ार करते हैं। आमतौर पर ट्रेड फेयर में शनिवार और रविवार को जबर्दस्त भीड़ टूटती है। इस साल बुधवार से ही जनता टूट पड़ी है। पहले रोज ही 80 हजार से ज्यादा लोग जा पहुँचे। मेले में इस साल दर्शकों की संख्या 20 लाख से कहीं ज्यादा हो तो आश्चर्य नहीं होगा। इसकी वजह उपभोक्ताओं की संख्या और दूसरे देशों के उत्पादों में दिलचस्पी का बढ़ना है। चीन के उत्पादों की तलाश में भीड़ पहुंची, जहाँ उन्हें निराशा हाथ लगी। पर पाकिस्तानी स्टॉल जाकर संतोष मिला, जहाँ महिलाओं के डिज़ाइनर परिधान आए हैं। इस साल थाई परिधानों, केश सज्जा, रत्न-जेवरात वगैरह पर फोकस है।

ट्रेड फेयर उत्पादक, व्यापारी, ग्राहक और उपभोक्ता को आमने-सामने लाता है। बड़ी संख्या में नौजवानों को अपना कारोबार शुरू करने के विकल्प भी उपलब्ध कराता है। तकनीकी नवोन्मेष या इनोवेशन की कहानी सुनाता है, जो किसी समाज की समृद्धि का बुनियादी आधार होती है। ये मेले हमें कुछ नया करने और दुनिया के बाजार में जगह बनाने का हौसला देते हैं। पर क्या हम इसके इस पहलू को देखते हैं? हमारी समझ में यह विशाल पैंठ या नुमाइश है, जिसकी पृष्ठभूमि वैश्विक है। इंटीग्रेटेड बिग बाज़ार।