बेंगलुरु में
भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को उससे मिलने वाले संकेतों
के मद्देनज़र देखा जाना चाहिए। दक्षिण में पार्टी की महत्वाकांक्षा का पहला पड़ाव कर्नाटक है। अगले साल तमिलनाडु और केरल में
चुनाव होने वाले हैं। उसके पहले इस साल बिहार में चुनाव हैं। पिछले साल लोकसभा
चुनाव में भारी विजय के बाद पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह पहली बैठक थी।
चुनाव पूर्व की बैठकें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर असमंजस से भरी होती थीं। अबकी
बैठक मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की पुष्टि में थी। पार्टी की रीति-नीति,
कार्यक्रम और कार्यकर्ता भी बदल रहे हैं।
इस बैठक में
पार्टी के ‘मार्गदर्शी’ लालकृष्ण आडवाणी का उद्बोधन न होना पार्टी की भविष्य की दिशा का संकेत दे गया
है। यह पहला मौका है जब आडवाणी जी के प्रकरण पर मीडिया ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
अलबत्ता राष्ट्रीय नीतियों को लेकर मोदी युग की आक्रामकता इस बैठक में साफ दिखाई
पड़ी। यह बात मोदी के तीन भाषणों में भी दिखाई दी। मोदी ने कांग्रेस पर अपने
आक्रमण की धार कमजोर नहीं होने दी है। इसका मतलब है कि उनकी दिलचस्पी कांग्रेस के
आधार को ही हथियाने में है। उनका एजेंडा कांग्रेसी एजेंडा के विपरीत है। दोनों की
गरीबों, किसानों और मजदूरों की बात करते हैं, पर दोनों का तरीका फर्क है।
सदस्यता दस करोड़
पार?
पार्टी अपने आधार
कर विस्तार भी कर ही है। दावा किया जा रहा है उसकी सदस्यता दस करोड़ पार कर गई है
और वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इसे प्रचारात्मक मानें तब भी इससे
पार्टी की महत्वाकांक्षा का पता लगता है। यदि ऐसा हुआ तो पार्टी के गुणात्मक
स्वरूप में भी बदलाव होगा। अभी यह पार्टी काडर-बेस है। मूलतः संघ का कार्यकर्ता
इसका आधार है। अब जब यह मास-बेस पार्टी होगी तो इसके अंतर्विरोध भी सामने आएंगे।
यह अंतर्विरोध कट्टरपंथी हिन्दुत्व और नए ‘विकासवादी’ एजेंडा के बीच होगा। अराजकता भी बढ़ेगी।
आर्थिक नीतियों
के संदर्भ में भाजपा के सामने इस वक्त छवि का सवाल है। पार्टी हालांकि गाँव और
गरीब की छवि को छोड़ना नहीं चाहती, पर भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर उसका कठोर रुख
बता रहा है कि वह शहरीकरण, औद्योगीकरण और आर्थिक उदारीकरण के कार्यक्रम को तेजी से
आगे ले जाना चाहती है। इसीलिए पार्टी भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर जनता के सामने
स्थिति स्पष्ट करने और खासतौर से कांग्रेस के ‘दुष्प्रचार’ का जवाब देने का बड़ा कार्यक्रम बना रही है।
इस बीच सरकार ने इस सिलसिले में नया अध्यादेश जारी भी कर दिया है।
भूमि अधिग्रहण का
ग्रहण
नरेंद्र मोदी के
भाषण के बाद मीडिया से बात करते हुए अरुण जेटली ने कहा कि कांग्रेस सरकार द्वारा
सन 2013 में पास किया गया कानून अंततः गाँव और किसान विरोधी है। इसके कारण गाँवों
में सिंचाई सुविधाओं, विद्युतीकरण और रोजगार सृजन का विस्तार रुक जाएगा।
इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन की जरूरत होनी ही है। जेटली के अलावा वाणिज्य राज्य
मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि मिथ्या प्रचार अभियान की हमें चिंता है। हम इसे चलने नहीं देंगे। यह पूरी तरह से
आधारहीन है। बैठक में भूमि सुधार कानून पर लंबा-चौड़ा पावर पॉइंट प्रजेंटेशन दिया
गया और एक पुस्तिका बांटी गई।
देखना यह है कि
पार्टी किस तरीके से इस बात को जनता के बीच ले जाती है, क्योंकि पार्टी ने अपने
कार्यकर्ताओं का आह्वान किया है कि वे इस बात को घर-घर तक ले जाएं। गुजरात में
मोदी के मुख्यमंत्रित्व में सरकार के ‘गरीब कल्याण मेले’ लगाती थी। देखना है कि
क्या पार्टी अब देश में उस मॉडल को लागू करेगी? पर उससे भी ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि सरकार
अपने संशोधित कानून को संसद से पास किस तरह कराएगी। इसमें दो राय नहीं कि यदि वह
इसे पास करा ले गई तो यह उसकी बड़ी जीत होगी।
दूसरी ओर कांग्रेस
भी इसी कानून के सहारे अपनी वापसी की योजना बना रही है और शायद राहुल गांधी किसानों
की बड़ी रैली के आगे-आगे राहुल गांधी की वापसी भी होगी। गाँवों में किसानों का एक
तबका खेती छोड़ देना चाहता है और अपने बच्चों को पढ़ने के लिए शहरों में भेजने का
इच्छुक है। एक तबका गाँव में ही रहते हुए बच्चों को किसी रोजगार में लगाने का
इच्छुक है। यों भी तकरीबन 60 फीसदी तबका खेत-मजदूरों या बटाई पर काम करने वालों का
है। देखना यह है कि कांग्रेस और भाजपा में से किसने गाँव की स्थितियों को बेहतर
तरीके से पढ़ा है।
अमीर-परस्त छवि
पार्टी की
दशा-दिशा पर स्वतंत्र रूप से निगाह डालें तो पार्टी को जिन सवालों पर विचार करना
चाहिए था उनका जिक्र इस बैठक में उतना जोरदार ढंग से नहीं हुआ, जिसकी अपेक्षा थी।
इनमें पहला सवाल महंगाई, रोजगार और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को लेकर है। हाल
में सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और जन-कल्याण के कार्यक्रमों पर व्यय में कमी आई
है। मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा किया जाए तो ऐसा लगता है कि पार्टी के भीतर एक बड़ा
तबका मानता है कि भूमि कानून को लेकर हमें पहले जनमत बनाना चाहिए था, फिर कानून
में बदलाव की पहल करनी चाहिए थी। अपना नाम न लिखे जाने की शर्त पर भाजपा के कुछ
नेताओं ने मीडिया से कहा कि इस कांग्रेस के अभियान ने पार्टी को प्रभावित किया है। हमें मुद्दे से ज्यादा
छवि के बारे में सोचना चाहिए।
पार्टी की छवि
अमीर-परस्त और किसान-विरोधी की बन रही है। काले धन को लेकर जनता से किए गए वादों
को लेकर भी जनता के मन में संशय है। सबसे बड़ा सदमा फरवरी 2015 में दिल्ली
विधानसभा के चुनाव में लगा है, जिसे मीडिया ‘मोदी-धार’ के कुंठित होने की शुरूआत मान रहा है। इसी तरह
जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी सरकार बनने के बाद पार्टी कार्यकर्ता के मन में
असमंजस है। पार्टी के महामंत्री राम माधव ने उन परिस्थितियों को स्पष्ट किया
जिनमें जम्मू-कश्मीर गठबंधन किया गया है। पार्टी के परम्परागत कार्यकर्ताओं के साथ-साथ
नए कार्यकर्ताओं के आने पर क्या होगा? साथ ही गिरिराज किशोर, साक्षी महाराज और
साध्वी निरंजन ज्योति जैसे नेताओं के गाहे-बगाहे आने वाले बयान सायास है या
अनायास, इसे भी समझना होगा। पार्टी की कोर विचारधारा और संघ के साथ रिश्ते जैसे
कुछ नाज़ुक मसलों पर भी नज़र रखनी होगी। अल्पसंख्यकों का असंतोष भी उजागर हो रहा
है। इस मामले में पार्टी की छवि जस की तस है।
बिहार की चुनौती
बहरहाल पार्टी ने
ब्लॉक स्तर से राज्य स्तर तक महा-सम्पर्क कार्यक्रम बनाया है। इसमें ट्रेनिंग
कैम्प और विश्व योग दिवस के अवसर पर बड़े कार्यक्रम आयोजित करने की योजना है। पार्टी ‘अंत्योदय हमारा संकल्प’ और ‘स्वच्छ भारत’ के नारे के साथ जनता के
बीच जाने वाली है। उसकी सफलता या विफलता का पहला संकेत बिहार में इस साल होने वाले
विधान सभा चुनाव में मिलेगा। पार्टी ने दिल्ली में लगे धक्के पर किस प्रकार का
आत्म मंथन किया यह स्पष्ट नहीं है। फिलहाल आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही तकरार उसके
लिए उपयोगी साबित होगी। देखना है कि बिहार में भाजपा-विरोधी ताकतों की एकता किस
रूप में प्रकट होती है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार की 243 के बरक्स अपना ‘मिशन185+’ घोषित कर दिया है।
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