1957 में अल्बेर कामू को नोबेल पुरस्कार मिला तो उन्होंने अपनी माँ को धन्यवाद दिया और फिर अपने प्राथमिक शिक्षक को। उन्होंने अपने अध्यापक को पत्र लिखा,
19 नवंबर 1957
प्रिय महाशय जर्मेन,
मैं इन दिनों अपने आस-पास की हलचलों को थोड़ा थमने के बाद अपने दिल की गहराई से आपसे बात कर रहा हूँ। मुझे अभी-अभी बहुत बड़ा सम्मान दिया गया है, जिसे न तो मैंने चाहा था और न ही इसके लिए आग्रह किया था। लेकिन जब मैंने यह समाचार सुना, तो मेरी माँ के बाद मेरा पहला विचार आपके बारे में आया। आपके बिना, उस स्नेही हाथ के बिना जो आपने उस छोटे से गरीब बच्चे को दिया, आपकी शिक्षा और उदाहरण के बिना, यह सब कुछ नहीं हो पाता। मैं इस तरह के सम्मान को बहुत महत्व नहीं देता। लेकिन कम से कम इसने मुझे यह बताने का मौका दिया कि आप मेरे लिए क्या थे और अब भी क्या हैं, और आपको यह आश्वासन देता हूँ कि आपके प्रयास, आपका काम और आपके द्वारा इसमें लगाया गया उदार हृदय आज भी उस छोटे से स्कूली बच्चे में जीवित है, जो वर्षों से आपका आभारी शिष्य बना हुआ है। मैं आपको पूरे हृदय से गले लगाता हूँ।
अल्बेर कामू
119 November 1957
Dear Monsieur Germain,
I let the commotion around me these days subside a bit before speaking to you from the bottom of my heart. I have just been given far too great an honor, one I neither sought nor solicited. But when I heard the news, my first thought, after my mother, was of you. Without you, without the affectionate hand you extended to the small poor child that I was, without your teaching and example, none of all this would have happened. I don’t make too much of this sort of honour. But at least it gives me the opportunity to tell you what you have been and still are for me, and to assure you that your efforts, your work, and the generous heart you put into it still live in one of your little schoolboys who, despite the years, has never stopped being your grateful pupil.'
दुनिया में शिक्षक दिवस 5 अक्तूबर को
मनाया जाता है. हमारे देश में उसके एक महीने पहले 5 सितम्बर को मनाते हैं. हमने पहले
फैसला किया कि साल में एक दिन अध्यापक के नाम होना चाहिए. सन 1962 में डॉ
सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने. उस साल उनके कुछ छात्र और मित्र 5 सितम्बर
को उनके जन्मदिन का समारोह मनाने के बाबत गए थे.
इस पर डॉ राधाकृष्णन ने कहा, मेरा जन्मदिन ‘शिक्षक
दिवस’ के रूप में मनाओ तो बेहतर होगा. मैं शिक्षकों के योगदान की ओर समाज
का ध्यान खींचना चाहता हूँ.
शिक्षक दिवस अंततः औपचारिकता बन गया और
शिक्षक असहाय प्राणी. जैसे पचास और साठ के दशक की हिन्दी फिल्मों के नाना पाल्सीकर
होते थे. हम इस बात का प्रचार तो करते हैं कि शिक्षा से व्यक्ति का जीवन बदल सकता
है, पर यह नहीं देखते कि गुणात्मक स्तर पर कैसी शिक्षा परोस रहे हैं. इन दिनों हम
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर चर्चा कर रहे हैं. इस चर्चा में सारी बातें हैं,
केवल शिक्षक की भूमिका गायब है.
गाँवों से मिल रही रिपोर्ट बताती हैं
कि बच्चे शिक्षा का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. इसके पीछे गरीबी, सामाजिक दशा और
साधनों की कमी बड़ा कारण है. पर सबसे बड़ा कारण है उचित शिक्षकों की कमी. हाल में
एक हिन्दी इलाके की रिपोर्ट थी सरकारी स्कूलों में मात्र 52 फीसदी शिक्षक ही
जिम्मेदारी से ड्यूटी कर रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में शिक्षकों ने छात्र-छात्राओं
को पढ़ाने का जिम्मा अपनी जगह दूसरे व्यक्ति को सौंप रखा है.
सन 1994 के बाद से देश में जिला
प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम शुरू किया गया है. इसके अंतर्गत शिक्षा की लागत कम करने
पर जोर है. सरकारी वैबसाइट के अनुसार इस कार्यक्रम के अंतर्गत अंशकालिक शिक्षकों, शिक्षा-कर्मियों
सहित लगभग 1,77,000 अध्यापकों की नियुक्ति की गई. इस कार्यक्रम ने काफी पढ़े-लिखे
नौजवानों को रोजगार दिया, पर ठेके पर अध्यापक रखने और पैरा टीचर्स की भरती के
शिक्षा में गुणात्मक ह्रास आया है. शिक्षा का स्तर बजाय सुधरने के गिरा है. गाँव
के स्कूलों का इस्तेमाल राजनीतिक कार्यों के लिए होता है, इसपर रोक का कोई तरीका
नहीं सुझाया गया है.
सन 2002 और 2003 में विश्व बैंक के
नेतृत्व में वैश्विक गैर-हाजिरी सर्वेक्षण(वर्ल्ड एब्सेंटिज़्म सर्वे) के अंतर्गत
छह देशों के सैम्पल स्कूलों में अघोषित सर्वेक्षकों को भेजा गया. उनका बुनियादी
निष्कर्ष था कि बांग्लादेश, इक्वेडोर, भारत, इंडोनेशिया, पेरू और उगांडा में
अध्यापक औसतन पाँच में से एक दिन गैर-हाजिर रहते हैं. भारत और उगांडा में यह
अनुपात और ज्यादा है. भारत से प्राप्त जानकारी के अनुसार अध्यापक यदि स्कूल में
होते भी हैं तो वे अक्सर चाय पीते, अखबार पढ़ते या अपने सहयोगियों से बात करते
मिलते हैं. कुल मिलाकर भारत के सार्वजनिक स्कूलों के 50 फीसदी अध्यापक उस वक्त
क्लास में नहीं होते जब उन्हें होना चाहिए. बच्चों के विद्यार्जन की उम्मीद कैसे
की जाए?
ऐसा नहीं कि साधन नहीं हैं. केन्द्र सरकार ने प्राथमिक
शिक्षा के लिए धन इकट्ठा करने के वास्ते उप-कर लगाकर लैप्स न होने वाला प्रारम्भिक
शिक्षा कोष तैयार कर लिया है. इस कोष से शिक्षा का आधार ढाँचा भी खड़ा हुआ है, पर
इसमें गुणवत्ता नहीं है.
शिक्षा के लिए काम कर रही संस्था ‘प्रथम’ की ओर से हुए सन 2015 के दसवें ‘असर’ सर्वे के अनुसार शिक्षा का अधिकार कानून
(आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई
है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है. सरकारी स्कूलों पर आम जनता का
विश्वास घट रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि सीखने में कमी का मुख्य कारण शिक्षकों
की योग्यता और उत्साह में कमी और उनके पढ़ाने का तरीका है.
शिक्षा का प्रसार तभी होगा जब सामान्य व्यक्ति के
जीवन में बदलाव देखेंगे. हरित क्रांति के दौरान, सफल
किसान बनने के लिए तकनीकी जानकारी और शिक्षा की कीमत बढ़ी थी. हाल में लड़कियों की
रोजगार सम्भावनाओं में नाटकीय बदलाव आने से भी शिक्षा ने सामाजिक क्रांति को जन्म
दिया. यह क्रांति तेज हो सकती है बशर्ते शिक्षकों की भूमिका बढ़े. दुर्भाग्य से स्थिति
खराब है, खासतौर से सरकारी स्कूलों में.
भारत में
ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका में सस्ते प्राइवेट स्कूलों की
हैरतंगेज़ बाढ़ आई है. ये स्कूल साधनहीन होते हैं. किसी के घर में दो-एक कमरों में
खुल जाते हैं. तमाम खामियों के बावजूद ये फैल रहे हैं. वर्ल्ड एब्सेंटिज़्म सर्वे
से पता लगा कि भारत के उन गाँवों में प्राइवेट स्कूल होने की संभावना ज्यादा है
जहाँ सरकारी स्कूल की दशा खराब है. स्कूल में उपस्थिति के मामले में सरकारी
अध्यापक के मुकाबले प्राइवेट स्कूल में अध्यापक के मिलने की सम्भावना ज्यादा है.
प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का प्रदर्शन भी बेहतर होता है.
प्राइवेट
स्कूल भी घटिया हैं, पर
जब हम सरकारी स्कूल में होने वाले हस्तक्षेपों को देखते हैं तब अंतर का पता लगता
है. प्राइवेट शिक्षक कम वेतन पाते हैं पर उनका मुख्य काम पढ़ाना है. ऐसा नहीं कि सरकारी
शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते. अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर
इकोनॉमिक्स’ में देश के सबसे गरीब प्रदेशों में से एक उत्तर प्रदेश के पूर्वी
क्षेत्र के जौनपुर जिले का उदाहरण दिया है. वहाँ ‘प्रथम’ के कार्यकर्ताओं ने
गाँव-गाँव जाकर बच्चों का परीक्षण किया. फिर
उन्हीं गाँवों से युवकों को तैयार किया जो कॉलेज-छात्र थे. उन्होंने शाम को कक्षाएं
लगाईं.
इस कार्यक्रम के पूरा होने पर सभी
प्रतिभागी बच्चे, जो पहले पढ़ नहीं पाते थे, पढ़ने
लगे. इसका मतलब है उन्हें पढ़ाने वालों में कमी थी. इसी तरह बिहार में ‘प्रथम’ ने
सुधारात्मक समर कैम्पों की श्रृंखला आयोजित की. इनमें सरकारी विद्यालयों के
अध्यापकों को पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया गया. इस मूल्यांकन के परिणाम भी आश्चर्यजनक
थे. बदनाम सरकारी अध्यापकों ने वास्तव में अच्छा पढ़ाया और इसके परिणाम जौनपुर की
ईवनिंग क्लासेज़ जैसे ही थे. यानी वे पढ़ा सकते हैं. यह पता लगाने की जरूरत है कि
वे पढ़ाते क्यों नहीं.
यदि वॉलंटियर इतना बड़ा बदलाव ला सकते हैं तब सरकारी
स्कूल इन तरीकों को अपने यहाँ क्यों लागू नहीं करते? शायद अभिभावक अभी शिक्षा के और हम शिक्षक के
महत्व को समझ नहीं पाए हैं. जरूरत इस बात की भी है कि अभिभावक सरकारों पर दबाव
डालें कि शिक्षा का अधिकार दिया है तो शिक्षा भी दो. अच्छे शिक्षक भी. टीचर माने
फटीचर नहीं.
प्रभात खबर में प्रकाशित
मेरे हिसाब से शिक्षक चयन प्रणाली में बदलाव कि सबसे ज्यादा जरुरत हैं... पहले तो हमे BEd और DEd जैसे कोर्स के नाम पर चल रहे धंदे को बंद करना होगा. शिक्षको का aptitude के हिसाब से न कि डिग्री के आधार पर सिलेक्शन करना होगा... कुछ एक छात्र जो Btech, BCA, और अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज किये हुए हैं... मगर शिक्षण में आना चाहते हैं... उन्हें भी मौका देना होगा... एक पंचवर्षीय इवैल्यूएशन टेस्ट जैसा कुछ होना चाहिए जहा पर शिक्षक का हर पांच साल में रिव्यु हो...
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