Sunday, September 25, 2016

स्टूडियो उन्माद से हासिल कुछ नहीं होगा



पाकिस्तानी कार्टून


मीडिया का सबसे पसंदीदा विषय भारत-पाक तनाव है। जम्मू-कश्मीर के उड़ी इलाके में फौजी कैम्प पर हुए आतंकवादी हमले की खबर आई नहीं कि दिनभर चैनलों पर तय होने लगा कि भारत को करना क्या चाहिए। डिप्लोमैटिक दबाव डालें या फौजी हमला करें? सिंधु संधि को रद्द कर दें? नदियों का रुख बदल दें? एक पूर्व जनरल ने सलाह दी कि अपने फिदायीन दस्ते बनाएं। कुछ मीडिया नरेशों का सुझाव था कि जैसे म्यांमार में नगा विद्रोहियों पर धावा बोला गया था वैसे ही लश्करे तैयबा के कैम्पों पर हमला करना चाहिए।


चैनलों के स्टूडियो वॉर रूम में तब्दील हो चुके हैं। तकरीबन ऐसी ही पाकिस्तानी चैनलों की कहानी है। सोने में सुहागा तब जब इस विशेषज्ञ मंडली में दो-एक रिटायर्ड पाकिस्तानी फौजी अफसर भी शामिल हो जाते हैं। यह सिर्फ टीआरपी वॉर है या कुछ और है, पर इससे दक्षिण एशिया का माहौल खराब हो रहा है। हालांकि अख़बार अपेक्षाकृत संतुलित हैं। पर मीडिया की प्रतिस्पर्धा से उनपर भी दबाव रहता है कि वे पिछड़ने न पाएं।   

सन 2012 की बात है। भारत आए पाकिस्तान के विदेश सचिव जलील अब्बास जीलानी और भारत के विदेश सचिव रंजन मथाई के बीच दो दिन की बातचीत के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में दोनों सचिवों ने मीडिया से अपील की कि वह दोनों देशों के बीच टकराव का माहौल न बनाए। इस बातचीत का मकसद दोनों देशों के बीच रिश्तों को बेहतर बनाना था, जिसमें जम्मू-कश्मीर, आतंकवाद और भरोसा बढ़ाने वाले कदम (सीबीएम) शामिल थे। दोनों देशों के रिश्ते जिस भावनात्मक धरातल पर हैं, उसमें सबसे बड़ा सीबीएम मीडिया के हाथ में है।

जब भी भारत और पाकिस्तान का मैच खेल के मैदान पर होता है मीडिया में ‘आर्च राइवल्स’, परम्परागत प्रतिद्वंदी, जानी दुश्मन जैसे शब्द हवा में तैरने लगते हैं। किसी एक की विजय पर उस देश में जिस शिद्दत के साथ समारोह मनाया जाता है तकरीबन उसी शिद्दत से हारने वाले देश में शोक मनाया जाता है। मनमोहन सिंह सरकार ने सायास फैसला किया था कि दोनों देशों की बातचीत में 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों का ज़िक्र तब तक नहीं किया जाएगा, जब तक उसका संदर्भ न हो। इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी यही किया था।

दोनों के रिश्ते दो दिन में नहीं सुधर सकते, अलबत्ता वे सेकंडों में बिगड़ सकते हैं। यह बात पाकिस्तान के उस कट्टरपंथी दस्ते को मालूम है, जो समय-समय पर ऐसे घटनाओं को अंजाम देता रहता है जिनसे खलिश पैदा हो। पिछले साल के अंत में जैसे ही विदेश सचिवों की बैठक के हालात बने और कार्यक्रम घोषित होने वाला था कि पठानकोट पर हमला हो गया। और अब नवाज शरीफ के संयुक्त राष्ट्र महासभा के भाषण के ठीक पहले उड़ी में हमला हो गया। ऐसी कोई ताकत है जो रिश्तों को ठीक होने देना नहीं चाहती। पर वे लगातार खराब भी नहीं रह सकते।

मीडिया को ऐसे में क्या करना चाहिए? इसे लेकर कई तरह की राय है। बेशक हमें अपने देश के साथ खड़े होना है। पर कैसे? राष्ट्रीय हित को क्या एक घंटे की तूफानी बहस से निपटाया जा सकता है? पर हम हैं कौन? क्या हम नीति-नियंता हैं? हमारे पास जानकारी का स्रोत क्या है? यह कैसे पता लगेगा कि हमारी राय सही है। जरूरी हो तो युद्ध भी करना होगा। पर जहाँ तक सम्भव हो उसे टालना ही चाहिए। टालना ही नहीं पाठकों और दर्शकों को युद्ध की भयावहता से परिचित भी कराना चाहिए।

युद्धोन्माद भड़काना जिम्मेदार पत्रकारिता नहीं है। मीडिया के कारण सरकारें दबाव में आ जाती हैं। उनके फैसले संतुलित नहीं रह पाते। पिछले दो महीने से हमारा मीडिया उन्माद की छाया में है। पाकिस्तानी मीडिया इससे भी दो कदम और आगे है। इससे पूरे दक्षिण एशिया में माहौल खराब हुआ है। पिछले 69 साल में भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में एक जैसा समय कभी नहीं रहा। टकराव के मौके आए तो उन्हें दुरुस्त करने के हालात भी पैदा हुए। पिछले कुछ महीनों से हम कश्मीर में आंदोलन को भड़कता हुआ देख रहे हैं। यह अनायास नहीं है। इसके पीछे पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति का द्वंद्व है।

नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आए नवाज शरीफ ने कश्मीर का नाम भी नहीं लिया था। उन्होंने कश्मीर के नेताओं से मुलाकात भी नहीं की थी। इस बात की पाकिस्तान में आलोचना की गई। उसके बाद पिछले साल उफा घोषणा में यह बात और ज्यादा साफ हुई। उस दस्तावेज में लिखा था कि दोनों देश पहले आतंकवाद के सवाल पर बात करेंगे। कश्मीर का उसमें जिक्र नहीं था। सिर्फ इतनी बात पर पाकिस्तान में भूकम्प जैसा आ गया। तभी कश्मीर में अराजकता का दौर शुरू हो गया। उस आंदोलन के बरक्स हमारे मीडिया की प्रतिक्रिया अंतर्विरोधी थी। उसपर राजनीति की छाया थी और चैनलों की प्रतिस्पर्धा भी।

बरखा दत्त और अर्णब गोस्वामी के बीच कहा-सुनी के प्रसंग से यह भी साबित हुआ कि हमारे मीडिया महारथी नादान हैं। इस विवाद का मीडिया-कर्मियों के राजनीतिक रुख से भी रिश्ता है। जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी सरकार के संदर्भ में इनकी राजनीतिक धारणाएं भी मुखर हुईं। इसकी पृष्ठभूमि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के घटनाक्रम से भी जुड़ी है। उस प्रसंग में भी मीडिया की अतिवादी भूमिका उजागर हुई थी। बेंगलुरु में एमनेस्टी इंटरनेशनल के एक कार्यक्रम में हुई नारेबाजी का प्रसंग इन्हीं बातों से जुड़ा है। उन्हीं दिनों रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने अपने एक बयान में पाकिस्तान को नरक बताया जिसपर राजनेता/अभिनेत्री रम्या ने टिप्पणी की। यह मामला अभी अदालत में है।

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर पिछले कई साल से तनाव है। जनवरी 2013 में दो भारतीय सैनिकों की गर्दन काटे जाने पर तनाव पैदा हुआ। फिर अजमल कसाब और अफजल गुरु की फाँसी ने हंगामा खड़ा किया। पाकिस्तान में सरबजीत की हत्या के बाद उन्माद और बढ़ा। उसी साल अगस्त के पहले सप्ताह में नियंत्रण रेखा पर पाँच भारतीय सैनिकों की हत्या हुई। फिर याकूब मेमन की फाँसी को मीडिया ने उठाया। इस आग को भड़काने में सोशल मीडिया ने घी का काम किया। हालांकि मीडिया ने आत्म-नियमन की व्यवस्थाएं भी की हैं, पर सवाल बढ़ते ही जा रहे हैं। इसकी वजह यह भी है कि दुनियाभर पर उँगली उठाने वाला मीडिया अपनी बातों पर विचार करने से कन्नी काटता है।
हरिभूमि में प्रकाशित







  





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