Monday, February 18, 2013

भारतीय सुरक्षा को प्रभावित करेगी यह 'भिंडी बाज़ार' मनोवृत्ति


भारत सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर के समझौते को रद्द करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। समझौते का रद्द होना इटली की कम्पनी फिनमैकेनिका के लिए बहुत बड़ा झटका साबित होगा। इतना ही बड़ा झटका यूपीए सरकार को लगेगा। क्योंकि इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। मीडिया में इस आशय की जानकारियाँ अलग-अलग स्रोतों से आने लगी हैं कि फायदा परिवार को मिला। इस तरह की बातों से भ्रम की स्थिति पैदा होती है। प्रमाणों के साथ बात की जानी चाहिए। अच्छी बात यह है कि मामले की शुरूआत इटली सरकार ने की है। हमें जो भी जानकारियाँ मिल रहीं हैं, वे सब वहीं से हासिल हो रही हैं। अब सीबीआई को इटली जाकर जाँच करने का मौका मिलेगा, पर उसके पहले वहाँ की सरकार और अदालत से इज़ाज़त लेनी होगी। इस मामले की तुलना बोफोर्स मामले से की जाती है, पर उस मामले में स्वीडन सरकार ने सहयोग नहीं किया था। सारी जाँच भारतीय एजेंसियों और मीडिया के मार्फत हुई थी। इस बार इटली की सरकार ने पहल की है। आश्चर्य इस बात पर है कि तकरीबन एक साल से यह मामला भारतीय मीडिया में उछल रहा था, पर सरकार ने पहल नहीं की।

इस मामले के तमाम पहलू हैं, जिनके बारे में विचार करने की ज़रूरत है। एक तो इस मामले का राजनीतिक पहलू है, जो चुनाव में देखने को मिलेगा। कांग्रेस पार्टी लगातार घोटालों से घिरी रही। बोफोर्स को लेकर जो राजनीति हमने देखी उसमें सदाशयता कम और फायदा उठाने की कोशिश ज्यादा रही है। देश के लगभग सभी दलों ने सत्ता का सुख प्राप्त किया है, पर हथियारों की खरीद की व्यवस्था को सुसंगत बनाने की कोशिश किसी ने नहीं की। दुनिया की चौथे नम्बर की सेना के लिए हथियार खरीदने का तरीका परचूनी की दुकान जैसा क्यों है? ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर का सौदा सात साल की बातचीत के बाद पूरा हुआ। और पहले हेलिकॉप्टर की सप्लाई के पहले ही विवाद शुरू हो गया।    

आश्चर्य इस बात पर भी है कि इतनी सरकारी पेशबंदियों के बावज़ूद इस सौदे में कमीशन दिया गया। और इस बात पर भी कि यदि दुनिया भर में कमीशन लिया और दिया जाता है तो उसे भारत में कानूनी रूप क्यों नहीं दिया जाता? या तो हम वैश्विक व्यवस्थाओं के साथ चलें या उन्हें बदलवाने के लिए कोई काम करें। पिछले साल भारत ने छह विदेशी कम्पनियों के साथ दस साल तक कारोबार करने पर पाबंदी लगाई थी। इनमें सिंगापुर, इस्रायल, जर्मनी और रूस की कम्पनियाँ हैं। इसके पहले भी अनेक कम्पनियाँ बैन की जा चुकी हैं। पूरी सूची बनाएं तो लगता है कि दुनिया की तकरीबन आधी कम्पनियाँ हमने बैन कर दी हैं। इससे सेनाओं के आधुनिकीकरण का रास्ता यों ही रुक जाएगा। बोफोर्स की तोप से लेकर ऑगस्टा वेस्टलैंड हैलिकॉप्टर तक के सौदों में अनियमितता थी, उनकी गुणवत्ता का सवाल अलग है। यह सवाल ज़रूर है कि जो हेलिकॉप्टर अपनी गुणवत्ता के आधार पर चुना गया है उसे कमीशन देने की ज़रूरत क्यों पैदा हुई? ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर के चयन की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो पता लगेगा कि पहले 6000 किमी की ऊँचाई तक उड़ान भरने वाले हेलिकॉप्टर की खोज का मानक बना। इस मानक का हेलिकॉप्टर ढूँढना ही मुश्किल था, शायद इसीलिए मानक 4500 किमी किया गया। अंत में मुकाबला सिकोर्स्की और ऑगस्टा वेस्टलैंड के एडब्ल्यू-101 के बीच मुकाबला रह गया। दोनों कम्पनियों की व्यावसायिक प्रतियोगिता भी इन विवादों के मूल में है। और केवल यही विवाद नहीं हथियारों के ज़्यादातर सौदों के मूल में विवाद हैं। जीप मामले (1948) से लेकर बोफोर्स (1987), बराक मिसाइल (1996-97), ताबूत (1999), सुदीप्तो घोष कांड (2009) और टैट्रा ट्रक (2011) तक रक्षा से जुड़े जितने भी सौदे हैं उनसे हमारी व्यवस्था ने कई सबक सीखा हो या न सीखा हो व्यवस्था को पेचीदा ज़रूर बना दिया है। अब ऑगस्टा वेस्टलैंड समझौता खत्म करने की प्रक्रिया शुरू होगी। उसके बाद नए सौदे की प्रक्रिया शुरू होगी। उसमें भी पाँच-छह साल लगेंगे। इतना लम्बा समय लगाकर हम अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण किस तरह करेंगे?

पिछले साल विवादों से घिरे सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को पांच पेज की चिट्ठी लिखी जिसमें कहा गया था कि सेना के टैंक का गोला-बारूद खत्म हो चुका है। हवाई सुरक्षा के उपकरण अपनी ताकत खो चुके हैं। और पैदल सेना के पास हथियारों तक की कमी है। हमारी तमाम कोशिशों और रक्षा मंत्रालय के निर्देशों के बावजूद तैयारियां नहीं दिख रही हैं। हवाई सुरक्षा के उपकरण अपनी ताकत खो चुके हैं। सेनाध्यक्ष के अनुसार प्रमुख हथियारों की हालत भयावह है। इनमें मैकेनाइज्ड फोर्सेस, तोपखाने, हवाई सुरक्षा, पैदल सेना और विशेष फोर्सेस के साथ ही इंजीनियर्स और सिग्नल्स शामिल हैं। जनरल सिंह ने हालांकि इस विषय को विमर्श का विषय नहीं बनाया, पर इसमें दो राय नहीं कि केवल रक्षा खरीद में ही नहीं, हर तरह की खरीद पर प्रक्रियात्मक दोष और व्यक्तिगत स्वार्थ प्रभावित करते हैं। एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि सेना के 70 फीसदी उपकरण विदेशों से आयात होते हैं। भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है। इस कारण नहीं कि हम रक्षा पर अंधाधुंध खर्च करते हैं, बल्कि इसलिए कि स्वदेशी उपकरण उपलब्ध नहीं हैं।

साठ के दशक में मिग-21 विमानों से लेकर रफेल विमानों के सौदे तक हाई टेक्नॉलजी के मामले में हम लगभग पूरी तरह से बाहरी देशों पर आश्रित रहे हैं। यह भी सही है कि देश के रक्षा अनुसंधान विकास संस्थान (डीआरडीओ) ने पृथ्वी से अग्नि तक प्रक्षेपास्त्रों की श्रृंखला विकसित की है। रूस के साथ मिलकर ब्रह्मोस मिसाइल विकसित की है। अर्जुन टैंक के विकास में शुरूआती झटकों के बाद इस टैंक के विकसित संस्करण अर्जुन-2 ने काफी आशाएं जगाई हैं। लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट तेजस की तकनीक विकसित करने में हम सफल हुए हैं। हालांकि इसके इंजन के लिए अभी हम अमेरिका पर आश्रित हैं, जबकि उम्मीद थी कि हमारा कावेरी इंजन इस काम को पूरा करेगा। रूस के साथ मिलकर अब हम पाँचवी पीढ़ी के फाइटर विमान को तैयार करने जा रहे हैं। हाल में हमने रूस के साथ मिलकर मल्टी रोल ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट डिज़ाइन करने और बनाने का समझौता किया है। हमारी ज़रूरत अब केवल नई तकनीक हासिल करने की नहीं है, बल्कि रिवर्स इंजीनियरिंग के सहारे नई तकनीक विकसित करने की है। चीन ने यही काम किया है। हालांकि हमने परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बी बना ली है और विमानवाहक पोत तैयार कर रहे हैं, पर एवियॉनिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स में हम इस्रायल और अमेरिकी तकनीक के सहारे हैं।

अर्थ-व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था का आपसी रिश्ता भी है। सन 2008 के न्यूक्लियर समझौते के बाद भारत उन अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों से बाहर आया है जो 1998 के एटमी परीक्षण के बाद भारत पर आयद हो गईं थीं। दुनिया की सबसे आला दर्जे की तकनीक रक्षा उपकरणों में इस्तेमाल होती है। अगले कुछ साल में भारत आर्थिक रूप से दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों में से एक होगा। इस आर्थिक शक्ति की सुरक्षा के लिए अब हमें प्रभावशाली रक्षा व्यवस्था की ज़रूरत है। इसके समांतर कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी हमें चाहिए। माना जाता है कि दुनिया भर में रक्षा सौदों के पीछे भ्रष्टाचार की गहरी छाया होती है। पर अमेरिका में 9/11 की घटना ने सारी दुनिया को चेताया है कि काली अर्थव्यवस्था के जाल से बाहर निकलना चाहिए। आतंकी नेटवर्क काले धन के सहारे चलते हैं। रक्षा सौदों में पारदर्शिता इसलिए भी ज़रूरी है कि दुनिया को आतंकवाद से भी सुरक्षा चाहिए। पर यह सब हम कुशल प्रशासनिक व्यवस्था के सहारे ही तो कर सकते हैं। यह बात देश की राजनीतिक शक्तियों को भी समझनी चाहिए। इसके पहले कि ऑगस्टा वेस्टलैंड मामला बड़े विवाद की शक्ल ले और अगले चुनाव का मुद्दा बने, इसके निहितार्थ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। समझाने का यह काम सरकार को भी करना है। हम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की सुरक्षित यात्रा की व्यवस्था सिर्फ इसलिए नहीं कर पाएं कि किसी ने दलाली ले ली और हमे इसकी जानकारी भी नहीं हो पाई। यह शर्मनाक है। बेहद शर्मनाक।


सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

3 comments:

  1. इस घोटाले ने बोफ़ोर्स घोटाले की याद दिला दी!!!

    कृपया इस जानकारी को भी पढ़े :- इंटरनेट सर्फ़िंग के कुछ टिप्स।

    ReplyDelete
  2. हमारी रक्षा तैयारियां बुरी तरह से प्रभावित हो रही हैं ...पड़ोस को देखते हुए यह हालात बेहद चिंता जनक हैं.

    ReplyDelete
  3. निश्चय ही चिन्तनीय स्थितियाँ हैं।

    ReplyDelete