Wednesday, February 6, 2013

यह उजाले पर अंधेरों का वार है

अक्टूबर 2011 में बीबीसी हिन्दी की वैबसाइट पर संवाददाता समरा फ़ातिमा की रपट में बताया गया था कि अलगाववादी आंदोलन और हिंसा के दृश्यों के बीच कश्मीर में इन दिनों सुरीली आवाजें सुनाई दे रही हैं। उभरते युवा संगीतकार चार से पाँच लोगों का एक बैंड बना कर ख़ुद अपने गाने लिखने और इनका संगीत बनाने लगे हैं। चूंकि इनके गीतों में तकलीफों का बयान था, इसलिए पुलिस की निगाहें इनपर पड़ीं। 'एम सी कैश' के नाम से गाने बनाने वाले 20 वर्षीय 'रोशन इलाही' ने बताया कि 2010 के सितंबर में पुलिस ने उनके स्टूडियो में छापा मारा और उसे बंद कर दिया। इन कश्मीरी बैंडों में अदनान मट्टू का ब्लड रॉक्ज़ भी है, जिनकी प्रेरणा से तीन लड़कियों का बैंड प्रगाश सामने आया।
प्रगाश के फेसबुक पेज पर जाएं तो आपको समझ में आएगा कि कट्टरपंथी उनका विरोध क्यों कर रहे हैं। जैसे ही वे चर्चा में आईं उनके फ़ेस बुक अकाउंट पर नफरत भरे संदेशों का सिलसिला शुरू हो गया। सबसे पहले उनका पेज खोजना मुश्किल है, क्योंकि इस नाम से कई पेज बने हैं। असली पेज का पता इन लड़कियों के बैंड छोड़ने की घोषणा से लगता है। प्रगाश के माने हैं अंधेरे से रोशनी की ओर। रोशनी की ओर जाना कट्टरपंथियों को पसंद नहीं है। पिछले रविवार को कश्मीर के प्रधान मुफ़्ती ने उनके गाने को ग़ैर इस्लामीकरार दिया, पर उसके दो दिन पहले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया था कि थोड़े से पागल लोग इनकी आवाज़ को खामोश नहीं कर पाएंगे। पर तीनों लड़कियों को बैंड छोड़ने का फैसला करना पड़ा। इससे पहले हुर्रियत कांफ़्रेंस ने भी इन उनकी यह कह कर आलोचना की थी कि वह पश्चिमी मूल्यों का अनुसरण कर रही हैं। कश्मीर के ये बैंड सन 2004 के बाद से सक्रिय हुए हैं। कश्मीर में ही नहीं पाकिस्तान में संगीत का खासा चलन है। हाल में दिल्ली आया पाकिस्तानीलाल बैंडकाफी लोकप्रिय हुआ। लाल बैंड प्रगतिशील गीत गाता है। इन्होंने रॉक संगीत में फैज अहमद फैज जैसे शायरों के बोल ढाले और उन्हें सूफी कलाम के नज़दीक पहुंचाया। पाकिस्तान और कश्मीर में सूफी संगीत पहले से लोकप्रिय है। ऐसा क्यों हुआ कि जब लड़कियों ने बैंड बनाया तो फतवा ज़ारी हुआ?

अक्सर कहा जाता है कि भारतीय मीडिया मणिपुर, मिजोरम में भारतीय सेना की कार्रवाइयों का विरोध करने को तैयार हो जाता है, पर कश्मीर में दमन की अनदेखी करता है। पर यह भी सच है कि कश्मीर के अलगाववादियों ने धर्म को आधार बनाकर मोर्चा खोला है और वे पाकिस्तान परस्त हैं। वेलेंटाइन डे पर कश्मीर में दुख्तराने मिल्लत हर साल मोर्चा खोलती हैं तो जम्मू में श्री राम सेना हंगामा खड़ा करती है। दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं, पर ठिकाना एक है। यह टकराव आपको पूरे देश में देखने को मिलेगा। दुख्तराने मिल्लत स्कूल-कॉलेजों और मसजिदों के बाहर पोस्टर लगाकर युवा जोड़ों को पेम प्रदर्शन रोकने की चेतावनी देती रही हैं। यह चेतावनी श्रीनगर में ही नहीं संस्कृति के स्वयंभू रक्षकों ने देश राजधानी दिल्ली की सड़कों पर भी दे रखी है। वैलेंटाइन डे के दिन देखिएगा। हिंदू मक्काल काची तमिलनाडु में सक्रिय है तो श्रीराम सेने कर्नाटक में। भोपाल में संस्कृति बचाओ मंच 13 फरवरी की शाम को उन डंडों की पूजा करता है, जिनका इस्तेमाल अगले रोज़ वेलेंटाइन डे मनाने वालों की पिटाई करने में होगा। वस्तुतः टकराव पश्चिमी और भारतीय संस्कृति का या शालीनता और अश्लीलता का नहीं है। सवाल अपने तरीके से जीने की आज़ादी का है।
प्रगाश पर धार्मिक पाबंदी लगाने का मामला एक ओर सांस्कृतिक असहिष्णुता को दर्शाता है साथ ही स्त्रियों के प्रति परम्परागत भेदभाव को भी व्यक्त करता है। यह उदारता और कट्टरता के बीच का टकराव है। फरवरी के इस महीने में पिछले कुछ साल से हम वैलेंटाइन डेमनते देख रहे हैं। इस मौके पर यह टकराव खुलकर सामने आता है। इस साल भी होगा। एक ओर हम जातीय पंचायतों के फैसले और प्रेम विवाह करने वालों को मिलती सजाएं और मेरठ से मुम्बई तक लड़के-लड़कियों पर छापे मारती मोरल पुलिस को देख रहे हैं। दूसरी ओर छोटे-छोटे कस्बों में मॉल संस्कृति और फैशन शो का चलन बढ़ता जा रहा है।
इसी रविवार को आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में किंगफिशर अल्ट्रा विज़ग फैशनवीक रद्द करना पड़ा। इस कार्यक्रम का विरोध दो किस्म के संगठनों ने दो अलग-अलग कारणों से किया था। एक थे हिन्दू संगठन जो इस बात से नाराज़ थे कि रैम्प पर उतरने वाली लड़कियों ने ऐसे परिधान पहने थे, जिनमें गणेश-लक्ष्मी की तस्वीरें थी। दूसरी ओर ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमैंस एसोसिएशन और प्रोग्रेसिव ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ वीमैन ने इस बात के लिए विरोध किया था कि यह सब उपभोक्ता संस्कृति जनित अश्लीलता की मदद करेगा, जो स्त्रियों के विरुद्ध अपराधों को बढ़ावा देती है। स्त्रियों के इस्तेमाल को लेकर इनकी भी वही आपत्ति है जो कुछ पुरातनपंथियों की है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के मंगलूर शहर में दुर्गा वाहिनी ने एक रेस्त्रां में छापा मारकर सिगरेट पीती लड़कियों पर हल्ला बोल दिया। ये लड़कियाँ स्मोकिंग ज़ोन में ही धूमपान कर रहीं थीं। इस लिहाज़ से वे कोई अपराध नहीं कर रहीं थीं, पर पुलिस ने उन्हें हटा दिया, क्योंकि वह कानून-व्यवस्था का मामला बन गया था। लगभग इसी कारण से तमिलनाडु में फिल्म विश्वरूपम पर रोक लगाई गई। इसी तरह सोमवार को दिल्ली के हौज़खास इलाके में लगी एक कला प्रदर्शनी में पूछताछ करने दुर्गा वाहिनी की कुछ स्वयंभू संस्कृति-रक्षक महिलाओं ने पहुँच कर सनसनी फैला दी। तकरीबन साठ प्रतिष्ठित कलाकारों की प्रदर्शनी का विषय है द नेकेड एंड द न्यूड। कश्मीर से कन्याकुमारी तक संस्कृति रक्षा के सूत्र अलग-अलग हैं, पर मनोदशा एक है। स्त्रियों में आते बदलाव का विरोध। बेशक तड़कामार संस्कृति और उपभोक्तावाद एक समस्या है, पर उसके पीछे की वजह स्त्रियाँ ही नहीं है।
दिल्ली गैंगरेप के बाद कुछ पुरातनपंथियों ने लड़कियों को सलाह देना शुरू कर दिया कि वे अपने पहनावे और जीवन शैली में बदलाव करें। आशाराम बापू से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन राव भागवत के बयान इसी किस्म के थे। भागवत ने कहा कि शहरों में लोग पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण कर रहे हैं जिसके कारण महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। मध्यप्रदेश के एक मंत्री ने  लड़कियों को लक्ष्मण रेखाके भीतर रहने की सलाह दे दी। सन 2005 में तमिल अभिनेत्री खुशबू का एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने कहा, विवाह-पूर्व यौन सम्बन्ध अनुचित नहीं है। यह वक्तव्य ऐसा नहीं था कि तमिल नारी, समाज या संस्कृति को ठेस लगती। बावज़ूद इसके एक राजनीतिक दल ने खुशबू के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। खुशबू को सार्वजनिक रूप से माफी माँगनी पड़ी। इसके बावज़ूद उनके खिलाफ अनेक अदालतों में मुकदमे दायर कर दिए गए। खुशबू ने हाईकोर्ट में अपील की कि ये मामले मुझे परेशान करने के लिए दायर किए गए हैं। पर हाईकोर्ट ने उनकी नहीं सुनी। अंत में अप्रेल 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ दायर 22 आपराधिक मुकदमों को खारिज किया। खुशबू को अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा में लगभग साढ़े छह साल लगे।
दो-तीन रोज़ पहले की खबर है, फ्रांस सरकार ने दो सौ साल पुराने उस प्रतिबंध को हया दिया जो महिलाओं को पैंट पहनने से रोकता था। नवम्बर 1800 से लागू उस कानून के तहत पुरुषों की तरह कपड़े पहनने से स्त्रियों को रोकने का मकसद महिलाओं को कुछ दफ्तरों या पेशों में जाने से रोकना था। अब सरकार मानती है कि यह प्रतिबंध फ्रांस के आधुनिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। व्यावहारिक रूप से यह यह बंदिश काफी पहले खत्म हो चुकी थी। अब इसे औपचारिक रूप से भी खत्म कर दिया गया। सांस्कृतिक बदलाव अपना समय लेता है।
6 फरवरी 2013 के नेशनल दुनिया में प्रकाशित

हिन्दू में केशव का कार्टून

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