Saturday, February 12, 2011

मिस्री बदलाव का निहितार्थ

 हुस्नी मुबारक का पतन क्या मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना का प्रतीक है? मेरा ख्याल है कि मिस्र की परीक्षा की घड़ी अब शुरू हो रही है। हुस्नी मुबारक क्या अकेले तानाशाही चला रहे थे? वे सत्ता की कुंजी जिनके पास छोड़ गए हैं क्या वे लोकतंत्र की प्रतिमूर्ति हैं? मिस्र का दुर्भाग्य है कि वहाँ लम्बे अर्से से अलोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही थी। लोकतंत्र जनता की मदद से चलता है पर उसकी संस्थाएं उसे चलातीं हैं। भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं खासी मजबूत हैं, फिर भी आए दिन घोटाले सामने आ रहे हैं।मिस्र को अभी काफी लम्बा रास्ता तय करना है। हाँ एक बात ज़रूर है कि इस आंदोलन से राष्ट्रीय आम राय ज़रूर बनी है।


मिस्र के जनाक्रोश के पीछे महंगाई और कुशासन सबसे बड़ी वजह हैं। मिस्र सहित पूरे अरब जगत में अमीरी और गरीबी के बीच गहरी खाई है। दो साल पहले दुनिया भर में पैदा हुए अनाज के संकट का गहरा असर इस इलाके पर पड़ा था। मिस्र गेहूँ का सबसे बड़ा आयातक देश है। हाल में यहाँ अनाज के दाम काफी बढ़े हैं। जनता पहले से अपनी व्यवस्था से नाराज़ थी। ट्यूनीशिया के घटनाक्रम ने माहौल को और गरमा दिया।

25 जनवरी। देश के आंदोलनकारी नौजवानों के कई संगठनों ने 25 जनवरी को विरोध प्रदर्शनों की योजना बनाई थी। इनके पास न तो कोई नेतृत्व था और न संगठन। इसके पहले भी विरोध के स्वर उठते रहे, पर देश की पुलिस ने हमेशा उन्हें दवा दिया। वॉल स्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित एक रपट से पता लगता है कि 25 जनवरी को काहिरा के पश्चिमी इलाके की एक झुग्गी बस्ती के गरीबों ने बढ़कर आंदोलन शुरू किया, जो अंततः मुबारक के पराभव का कारण बना। उस आंदोलन का अंदेशा पुलिस को भी नहीं था। इसके पहले पुलिस कॉर्डन करके भीड़ को जमा होने ही नहीं देती थी। बरसों से ऐसा चला आ रहा था। मिस्र के नागरिक आंदोलनों में उस शिद्दत के साथ शामिल ही नहीं होते थे जैसा इसबार हुआ।

25 जनवरी पुलिस का राष्ट्रीय दिवस था। छुट्टी का दिन था। मुहम्मद अल बरदेई का समर्थन करने वाले युवाओं ने काहिरा के 20 क्षेत्रों में जमा होने की इत्तला इंटरनेट पर दी थी। इसके पहले फेसबुक के एक अरबी पेज पर इस बात पर आम सहमति थी कि पुलिस दिवस पर 25 जनवरी को जबर्दस्त रैलियों का तोहफा पुलिस को दिया जाय। इन बीसों क्षेत्रों में पुलिस की जबर्दस्त व्यवस्था के कारण कुछ भी नहीं हो पाया। हुआ इक्कीसवीं जगह जहाँ की योजना किसी ने नहीं बनाई। सिर्फ गरीब-गुरबों की हिम्मत थी। पढ़े-लिखे इंटरनेट वालों ने इसके बाद आंदोलन अपने हाथ में ले लिया। 

3 comments:

  1. इसी लिए तो कहते हैं कि गरीबों-मेहनतकशों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित हो जाना चाहिए, एक गोलबंद संगठन के रूप में। जो देश को फिर से प्रतिक्रांति में न धकेल दे।

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  2. बिल्कुल मिस्र की परीक्षा की घडी अब शुरू होगी|

    'जिज्ञासा' पर एक विस्तृत आलेख की प्रतीक्षा रहेगी इस विषय पर|

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