गुरुवार को कांग्रेस के सात लोकसभा सदस्यों के निलंबन के बाद संसदीय मर्यादा
को लेकर बहस एकबार फिर से शुरू हुई है। सातों सदस्यों को सदन का अनादर करने और
‘घोर कदाचार' के मामले में सत्र की शेष अवधि के
लिए निलंबित किया गया है। इस निलंबन को कांग्रेस ने बदले की भावना से उठाया गया
कदम करार दिया और दावा किया, ‘यह फैसला लोकसभा अध्यक्ष का नहीं, बल्कि सरकार का है।’ जबकि पीठासीन सभापति मीनाक्षी लेखी ने कहा कि कांग्रेस सदस्यों ने अध्यक्षीय
पीठ से बलपूर्वक कागज छीने और उछाले। ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण आचरण संसदीय इतिहास में संभवतः
पहली बार हुआ है।
Sunday, March 8, 2020
Thursday, March 5, 2020
मोदी का ट्वीट और उससे उपजी एक बहस
सोशल मीडिया की
ताकत, उसकी सकारात्मक भूमिका और साथ ही उसके
नकारात्मक निहितार्थों पर इस हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक ट्वीट ने अच्छी
रोशनी डाली. हाल में दिल्ली के दंगों को लेकर सोशल मीडिया पर कड़वी, कठोर और हृदय विदारक टिप्पणियों की बाढ़ आई हुई थी. ऐसे में
प्रधानमंत्री के एक ट्वीट ने सबको चौंका
दिया. उन्होंने लिखा, 'इस रविवार को सोशल मीडिया
अकाउंट फेसबुक, ट्विटर,
इंस्टाग्राम और
यूट्यूब छोड़ने की सोच रहा हूं.' उनके इस छोटे से संदेश ने
सबको स्तब्ध कर दिया. क्या मोदी सोशल मीडिया को लेकर उदास हैं? क्या वे जनता से संवाद का
यह दरवाजा भी बंद करने जा रहे हैं? या बात कुछ और है?
इस ट्वीट के एक
दिन बाद ही प्रधानमंत्री ने अपने आशय को स्पष्ट कर दिया, पर एक दिन में कई तरह की सद्भावनाएं और दुर्भावनाएं बाहर आ
गईं. जब प्रधानमंत्री ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है, तब भी जो टिप्पणियाँ आ रही हैं उनमें सकारात्मक और
नकारात्मक दोनों तरह के दृष्टिकोण शामिल हैं. उनके समर्थक हतप्रभ थे और उनके
विरोधियों ने तंज कसने शुरू कर दिए. इनमें राहुल गांधी से लेकर कन्हैया कुमार तक
शामिल थे. कुछ लोगों ने अटकलें लगाईं कि कहीं मोदी अपना मीडिया प्लेटफॉर्म लांच
करने तो नहीं जा रहे हैं? क्या ऐसा तो नहीं कि अब
उनकी जगह अमित शाह जनता को संबोधित करेंगे?
Monday, March 2, 2020
किसका दंगा, किसकी साजिश?
शुक्रवार को
सुप्रीम के एक पीठ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में वकीलों की हड़ताल से जुड़े एक मामले
में टिप्पणी की कि संविधान विरोध और असंतोष व्यक्त करने का अधिकार सबको देता है, पर यह अधिकार दूसरे नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं
कतर सकता। हालांकि इस टिप्पणी का दिल्ली की हिंसा से सीधा रिश्ता नहीं है, पर प्रकारांतर से है। पिछले ढाई महीने से एक सड़क रोककर
शाहीनबाग का आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन की भावना को लेकर अलग बहस है, पर इसे चलाने वालों के अधिकार को लेकर किसी को आपत्ति नहीं
है। आखिरकार यह हमारे उस लोकतंत्र की ताकत है,
जिसकी बुनियाद
में आंदोलनों का लंबा इतिहास है।
महात्मा गांधी ने
इन आंदोलनों का संचालन किया और चौरीचौरा की तरह जब भी मर्यादा का उल्लंघन हुआ, उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया। सवाल है कि क्या आधुनिक
राजनीति उन नैतिक मूल्यों के साथ खड़ी है? इन दंगों ने दिल्ली को
दहला कर रख दिया है। एक से एक अमानवीय क्रूर-कृत्यों की कहानियाँ सामने आ रही हैं।
लंबे समय से सामाजिक जीवन में घुलता जा रहा जहर बाहर निकलने को आतुर था, और वह निकला। स्थानीय कारणों ने उसे भड़कने में मदद की।
मस्जिद पर हमले हुए और स्कूल भी जलाए गए। कई तरह की पुरानी रंजिशों को भुनाया गया।
निशाना लगाकर दुकानें फूँकी गईं, गाड़ियाँ जलाई गईं। यह सब अनायास नहीं हुआ।
क्रूरता की कहानियाँ इतनी भयानक हैं कि उन्हें सुनकर किसी का भी दिल दहल जाएगा।
Saturday, February 29, 2020
राजनीतिक कर्म की कमजोरी का नतीजा है दिल्ली की हिंसा
दिल्ली के फसाद
का पहला संदेश है कि राजनीतिक दलों के सरोकार बहुत संकीर्ण हैं और वे फौरी लाभ
उठाने से आगे सोच नहीं पाते हैं। वे जनता से कट रहे हैं और ट्विटर के सहारे जग
जीतना चाहते हैं। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले मुजफ्फरनगर दंगों ने चुनाव में
महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उन दंगों का असर अबतक कम हो जाना चाहिए था, पर किसी
न किसी वजह से वह बदस्तूर है और गाहे-बगाहे सिर उठाता है। अब दिल्ली में सिर उठाया
है। बताते हैं कि फसादी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए थे, जो अपना काम करके फौरन भाग
गए।
फसाद को लेकर कई
तरह की थ्योरियाँ सामने आ रही हैं। इसमें पूरी तरह से नहीं, तो आंशिक रूप से
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सामाजिक उथल-पुथल का भी हाथ है। सवाल यह भी है कि ट्रंप
की भारत यात्रा के दौरान फसाद भड़कने के पीछे क्या कोई राजनीतिक साजिश है? तमाम सवाल अभी आएंगे। भारत की राजनीति को अपनी
राजधानी से उठे इन सवालों के जवाब देने चाहिए।
Thursday, February 27, 2020
दिल्ली की हिंसा: पहले सौहार्द फिर बाकी बातें
दिल्ली की हिंसा
को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांति की अपील की है. अपील ही नहीं नेताओं
की जिम्मेदारी बनती है कि वे इस इलाके में जाकर जनता के विश्वास को कायम करें. शनिवार
से जारी हिंसा के कारण मरने वालों की संख्या 20 हो चुकी है. इनमें एक
पुलिस हैड कांस्टेबल शामिल है. दिल्ली पुलिस के एक डीसीपी गंभीर रूप से घायल हुए
हैं. कहा जा रहा है कि दिल्ली में 1984 के दंगों के बाद इतने
बड़े स्तर पर हिंसा हुई है. यह हिंसा ऐसे मौके पर हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर आए
हुए थे और एक दिन वे दिल्ली में भी रहे.
हालांकि हिंसा पर
काफी हद तक काबू पा लिया गया है, पर उसके साथ कई तरह के
सवाल उठे हैं. क्या पुलिस के खुफिया सूत्रों को इसका अनुमान नहीं था? क्या प्रशासनिक मशीनरी के सक्रिय होने में देरी हुई? सवाल यह भी है कि आंदोलन चलाने वालों को क्या इस बात का
अनुमान नहीं था कि उनकी सक्रियता के विरोध में भी समाज के एक तबके के भीतर
प्रतिक्रिया जन्म ले रही है? यह हिंसा नागरिकता कानून
के विरोध में खड़े हुए आंदोलन की परिणति है. आंदोलन चलाने वालों को अपनी बात कहने
का पूरा अधिकार है, पर उसकी भी सीमा रेखा होनी चाहिए.
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