दिल्ली की हिंसा
को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांति की अपील की है. अपील ही नहीं नेताओं
की जिम्मेदारी बनती है कि वे इस इलाके में जाकर जनता के विश्वास को कायम करें. शनिवार
से जारी हिंसा के कारण मरने वालों की संख्या 20 हो चुकी है. इनमें एक
पुलिस हैड कांस्टेबल शामिल है. दिल्ली पुलिस के एक डीसीपी गंभीर रूप से घायल हुए
हैं. कहा जा रहा है कि दिल्ली में 1984 के दंगों के बाद इतने
बड़े स्तर पर हिंसा हुई है. यह हिंसा ऐसे मौके पर हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर आए
हुए थे और एक दिन वे दिल्ली में भी रहे.
हालांकि हिंसा पर
काफी हद तक काबू पा लिया गया है, पर उसके साथ कई तरह के
सवाल उठे हैं. क्या पुलिस के खुफिया सूत्रों को इसका अनुमान नहीं था? क्या प्रशासनिक मशीनरी के सक्रिय होने में देरी हुई? सवाल यह भी है कि आंदोलन चलाने वालों को क्या इस बात का
अनुमान नहीं था कि उनकी सक्रियता के विरोध में भी समाज के एक तबके के भीतर
प्रतिक्रिया जन्म ले रही है? यह हिंसा नागरिकता कानून
के विरोध में खड़े हुए आंदोलन की परिणति है. आंदोलन चलाने वालों को अपनी बात कहने
का पूरा अधिकार है, पर उसकी भी सीमा रेखा होनी चाहिए.
शुरुआत शनिवार की
रात से हुई, जब दिल्ली के जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे
कुछ औरतों के धरने पर बैठने की ख़बरें आईं. सोशल मीडिया पर इस प्रकार के वीडियो
वायरल हुए, जिनमें दिखाया गया था कि बीच सड़क पर स्टेज
लगाया जा रहा है. यह सब ऐसे वक्त में हो रहा था, जब भीम आर्मी के
प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद ने 23 फरवरी को भारत बंद का
आह्वान किया था. रास्ता बंद होने की प्रतिक्रिया रविवार को हुई और वहीं से टकराव
की स्थितियाँ पैदा हुईं. सोमवार सुबह जब एक तरफ़ डोनाल्ड ट्रंप अहमदाबाद पहुंचने
वाले थे, ठीक तभी दिल्ली के इस इलाके से हिंसक झड़पों की
ख़बरें आने लगीं.
धरने पर बैठने
वाली महिलाओं का कहना था, हम 45 दिनों से कुछ किलोमीटर पहले विरोध प्रदर्शन कर रहे थे.
लेकिन सरकार का कोई भी नुमाइंदा हमसे मिलने नहीं आ रहा था. जब तक हम सरकार पर
प्रेशर नहीं बनाएंगे, तब तक सरकार नहीं सुनेगी.
दिल्ली में यह आंदोलन अब दो महीने से ज्यादा पुराना हो चुका है. इस आंदोलन में
उठाए जा रहे सवालों के साथ-साथ कुछ दूसरे सवाल भी उठ रहे हैं. उनके जवाब भी मिलने
चाहिए.
क्या जन-जीवन को
ठप करना ही जनांदोलन की सफलता का पैमाना है? शाहीनबाग आंदोलन के कारण दिल्ली और नोएडा के बीच का
महत्वपूर्ण मार्ग बंद पड़ा है. यह मामला सुप्रीमकोर्ट के सामने है. अदालत ने
आंदोलनकारियों से बात करने के लिए मध्यस्थ वकीलों की नियुक्ति की थी, जिन्होंने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी हैं. अदालत ने इस
मामले पर सुनवाई के लिए बुधवार का दिन तय किया था, पर अब इसे 23 मार्च तक के लिए टाल दिया है. अंततः अदालत को ही बताना
होगा कि विरोध प्रदर्शन की मर्यादा क्या है?
कितने रास्तों को
और कब तक रोका जा सकता है?
इस दौरान दिल्ली
पुलिस को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है, पर इस बात का दूसरा पहलू
भी है. पुलिस को जिन हालात में काम करना पड़ रहा है, उसे भी देखना
चाहिए. अदालत में सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता कहा कि पुलिस पर सवाल उठाने का यह सही
समय नहीं है. इससे उसकी हताशा बढ़ेगी. मीडिया की रिपोर्टिंग और सोशल मीडिया की
भूमिका पर भी सवाल उठे हैं.
शाहीनबाग के साथ
देश के कुछ दूसरे शहरों में भी आंदोलन खड़े हुए हैं, पर पश्चिमी उत्तर
प्रदेश के कुछ शहरों को छोड़कर इस किस्म की हिंसा दूसरे हिस्सों में नहीं हुई है.
पूर्वोत्तर दिल्ली का यह इलाका भी उत्तर प्रदेश से सटा हुआ है. कहना मुश्किल है कि
इस हिंसा में स्थानीय लोगों की भूमिका थी या बाहर से लोग आए थे. संभवतः प्रशासनिक
कार्रवाई में देरी हुई. शायद इसकी एक वजह यह भी थी कि ज्यादातर मशीनरी ट्रंप के
कार्यक्रम में व्यस्त थी.
यह अंदेशा भी है
कि इस हिंसा के पीछे किसी की योजना है. बहरहाल ट्रंप के जाने के बाद सरकार हरकत
में आई है और तेजी से कार्रवाई की गई है. इसके पहले 16-17 दिसम्बर के आसपास दिल्ली के जामियानगर, सीलमपुर और जामा मस्जिद इलाके में भी हिंसा हुई थी. उसके
मुकाबले इस बार की हिंसा ज्यादा भयावह है और इसमें मरने वालों की संख्या भी ज्यादा
बड़ी है.
हिंसा को काबू
करने में पुलिस ने गोली नहीं चलाई है, पर जो खबरें मिल रहीं हैं
उनके अनुसार कुछ लोगों की मौत गोली लगने से हुई है. किसने चलाई गोलियाँ? इससे यह भी लगता है कि उपद्रवी तत्व भीड़ में शामिल हो गए
थे. राष्ट्रीय राजधानी में ऐसा होना अच्छा संकेत नहीं है. इस मामले की जाँच होनी
चाहिए. पोस्टमार्टम रिपोर्टों से मौत के कारणों पर और रोशनी पड़ेगी.
फिलहाल पहली
जरूरत है कि इस इलाके के निवासियों और प्रतिष्ठित नागरिकों को साथ में लेकर शांति
समितियों का गठन किया जाए और लोगों को शांत किया जाए. सोशल मीडिया में अफवाहों और
उल्टी-सीधी जानकारियाँ फैलाई जा रही हैं. मीडिया के लोगों को पीटा जा रहा है.
नागरिकों को अपनी जिम्मेदारी को समझना चाहिए. जनता के बीच सहज संवाद की प्रक्रिया
और सामान्य जीवन का संचालन फौरन शुरू होना चाहिए. सामाजिक जीवन में भाईचारा बना
रहना चाहिए.
ऐसे मौके पर
राजनीतिक नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा बनती है.
उन्हें कुछ देर के लिए ट्विटर से छुट्टी लेकर मैदान में उतरना चाहिए और जनता के
बीच जाकर उन्हें भरोसे में लेना चाहिए. समय रहते यदि शांति समितियाँ बना ली गई
होतीं, तो हालात इतने खराब नहीं हुए होते. यह समय
एक-दूसरे पर आरोप लगाने का नहीं सामाजिक सौहार्द को कायम करने का है.
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