Sunday, November 22, 2015

खांटी राजनेता बनकर उभरे केजरीवाल..?

प्रमोद जोशी



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दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ट्विटर प्रोफाइल पर उनका सूत्र वाक्य लिखा है, ‘भारत जल्दी बदलेगा.’ आंदोलनकारी नेता से खांटी राजनेता के रूप में उनका तेज़ रूपांतरण उनके सूत्र वाक्य की पुष्टि करता है.
पिछले दो साल में केजरीवाल ने अपनी राजनीति और अपने सहयोगियों को जितनी तेज़ी से बदला है वह उनकी परिवर्तनशील-प्रतिभा का प्रतीक है.
मीडिया कवरेज के मुताबिक पटना में महागठबंधन सरकार के शपथ-समारोह में अरविंद केजरीवाल को बेमन से लालू यादव के गले लगना पड़ा.
व्यावहारिक बात यह है कि केजरीवाल लालू से गले मिले और यह जाहिर करने में कामयाब भी रहे कि चाहते नहीं थे... इस बीच सोशल मीडिया पर केजरीवाल के कुछ पुराने ट्वीट उछाले गए जिनमें उन्होंने लालू की आलोचना की थी. पर उससे फर्क क्या पड़ता है?

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मोदी-विरोधी राजनीति के साथ केजरीवाल ने अब राष्ट्रीय राजनीति की ओर कदम बढ़ाए हैं. बिहार में महागठबंधन की विजय इसका पहला पड़ाव है और पटना में केजरीवाल की उपस्थिति पहला प्रमाण.
केजरीवाल मोदी-विरोधी ताकतों के साथ आगे बढ़ना और शायद उसका नेतृत्व भी करना चाहते हैं. इसीलिए उन्होंने वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था.
केन्द्र से टकराव का नया बिन्दु अब वे दिल्ली जन लोकायुक्त विधेयक को बनाएंगे. उनके कैबिनेट ने हाल में विधेयक के प्रारूप को स्वीकार किया है.
फरवरी 2014 में उनके कैबिनेट ने इसी तरह का विधेयक मंजूर किया था. उसे विधान सभा में रखे जाने के पहले ही उप राज्यपाल ने आपत्ति व्यक्त की थी कि उनसे स्वीकृति नहीं ली गई है. अब भाजपा के सूत्रों का कहना है कि सरकार ने उप राज्यपाल से मंजूरी नहीं ली है.

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आम आदमी पार्टी के सूत्रों का कहना है कि यह विधेयक उत्तराखंड के 2011 के क़ानून जैसा है. उस बिल को तैयार करने में केजरीवाल का हाथ बताया गया था. यह बात केन्द्र सरकार को असमंजस में डालेगी. क्या भाजपा सरकार ऐसे कानून का विरोध करेगी?
उप राज्यपाल की अनुमति के संदर्भ में भी परिस्थितियाँ फरवरी 2014 जैसी हैं. फर्क केवल यह है कि विधानसभा में पार्टी का भारी बहुमत है. बिल पास होने के बाद उप राज्यपाल उसे स्वीकार करें या न करें, वह टकराव का बिन्दु बनेगा.
केजरीवाल की राजनीति भीतरी और बाहरी टकरावों की मदद से बढ़ रही है. कुछ महीने पहले पार्टी के भीतर पहला टकराव इस बात को लेकर हुआ था कि दिल्ली के बाहर दूसरे राज्यों में जाना चाहिए या नहीं.

संसदीय भूमिका पर भी बहस होनी चाहिए

संसद का शीत सत्र इस हफ्ते शुरू होगा। हमारी राजनीति में चुनाव और संसदीय सत्र दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती है। दोनों ही गतिविधियाँ देश के जीवन और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं। चुनाव और संसदीय कर्म ठीक रहे तो काया पलटते देर नहीं लगेगी। पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में शिकायत रही है। चुनाव के दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चरम सीमा पर होते हैं और संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता है।

पिछले मॉनसून सत्र में व्यापम घोटाला और ललित मोदी प्रसंग छाया रहा। इस वजह से अनेक सरकारी विधेयक पास नहीं हो पाए। दोनों प्रसंग महत्वपूर्ण थे, पर दोनों मसलों पर बहस नहीं हो पाई। उल्टे पूरे सत्र में संसद का काम ठप रहा। यह पहला मौका नहीं था, जब राजनीति के कारण संसदीय कर्म प्रभावित हुआ हो। अलबत्ता राजनीतिक दलों से उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें अपनी राजनीति के साथ-साथ राष्ट्रीय हितों का अंदाज भी होता होगा। इस हफ्ते शीत सत्र शुरू होने के पहले सर्वदलीय बैठक होगी। बेहतर हो कि सभी पार्टियाँ कुछ बुनियादी बातों पर एक राय कायम करें। कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा ने कहा है, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता।’

Saturday, November 21, 2015

गठबंधन-चातुर्य और राजनीति का महा-मंथन

इस साल संसद का मॉनसून सत्र सूखा रहा। पूरे सत्र में सकारात्मक संसदीय कर्म ठप रहा। अब शीत सत्र सामने है। इसमें क्या होने वाला है? सरकार क्या अपने विधेयकों को पास करा पाएगी? क्या वह भारतीय राजनीति के ज्वलंत सवालों का ठीक से जवाब देगी? दूसरी ओर सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष एक होकर किसी नई राष्ट्रीय ताकत को तैयार करेगा? बिहार विधान सभा के चुनाव परिणामों से उत्साहित विपक्ष क्या अपनी एकता को संसद में भी साबित करेगा? भाजपा-विरोधी इस राजनीति का नेतृत्व कौन करेगा? यह एकता क्या भविष्य के विधान सभा चुनावों में भी देखने को मिलेगी? 

बिहार-परिणाम के विश्लेषक अब भी इस गुत्थी से उलझे पड़े हैं कि भाजपा की पराजय के पीछे महागठबंधन का जातीय-साम्प्रदायिक गणित था या उसकी असहिष्णु राजनीति। भविष्य की राजनीति का रिश्ता इस सवाल से जुड़ा है। और पूरे देश की राजनीति सोशल इंजीनियरी से जुड़ी है। इस जातीय गणित की अगली महा-परीक्षा अब 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में होगी। महागठबंधन बिहार की परिस्थितियों से मेल खाता था। देखना होगा कि दूसरे राज्यों में वह किस रूप में बनेगा। और यह भी कि उसका नेतृत्व कौन करेगा?   

बिहार में एनडीए की विफलता और महागठबंधन की सफलता से कांग्रेस प्रफुल्लित जरूर है, पर आने वाले समय में उसके सामने नेतृत्व की चुनौती खड़ी होगी। अब वह जमाना नहीं रहा जब शेर के नेतृत्व में जंगल के सारे जानवर लाइन लगाकर चलते थे। अब सबकी महत्वाकांक्षाएं हैं। जेडीयू का नेतृत्व नीतीश कुमार को नए राष्ट्रीय नेता के रूप में खड़ा करना चाहता है। नीतीश कुमार का शपथ ग्रहण समारोह इसीलिए विपक्ष की एकता के महा-सम्मेलन जैसा बन गया। पर उसके अंतर्विरोध भी छिपे हैं। महागठबंधन के आलोचकों को लालू-नीतीश दोस्ती की दीर्घायु को अब भी लेकर संदेह है।
बिहार में महागठबंधन बनाने में नीतीश कुमार की कोशिशों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पर जेडीयू की निगाह गैर-कांग्रेस विपक्ष पर है। पार्टी के महासचिव केसी त्यागी ने हाल में कहा है कि जदयू, तृणमूल और आम आदमी पार्टी कई मुद्दों पर समान विचारों वाले हैं और देश में सहयोगात्मक संघवाद को मजबूत करने का समय आ गया है। इस संघवाद को जोड़ने लायक लम्बा धागा कांग्रेस या भाजपा के पास ही है। अतीत में इसमें वाम मोर्चा की भूमिका रही है, जो अभी पृष्ठभूमि में है। वामपंथी सामने आए तो इस मोर्चे के अंतर्विरोध मुखर होंगे।

Friday, November 20, 2015

जेहादियों को फ्रांस का अनोखा जवाब

एक हफ्ते पहले पेरिस में हत्याकांड हुआ, जिसके जवाब में देश के राष्ट्रपति ने आईसिस के खिलाफ युद्ध की घोषणा की. अगले रोज उसकी वायुसेना ने सीरिया के ठिकानों पर हमले तेज कर दिए. हमले में शामिल लोगों को पहचानने की कार्रवाई तेज कर दी गई और बुधवार को इस हमले के मास्टरमाइंड का खात्मा कर दिया गया. हमलों के बाद फ्रांस में तीन दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की गई. पेरिस की मेयर ऐन हिडाल्गो ने कहा है कि शहर ने चरमपंथ की बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है. हमलावरों ने उन जगहों को निशाना बनाया जहां सप्ताहांत में युवा जाते हैं. उन्होंने बाद में घोषणा भी की कि हमें इस गलीज संस्कृति से नफरत है.

Sunday, November 15, 2015

आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संधि में देर क्यों?

रात में भारतीय मीडिया पर लंदन के वैम्बले स्टेडियम की खबरें छाई थीं तो सुबह पेरिस में आतंकवादी हमलों की खबरें आने लगीं। हालांकि इन दोनों घटनाओं का एक-दूसरे से रिश्ता नहीं, पर एक बात शिद्दत से रेखांकित हुई कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के मार्फत एक वैश्विक संधि के लिए दोनों देशों के प्रयासों को शक्ल देने का समय आ गया है। नरेंद्र मोदी और ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने इस बात का उल्लेख किया कि मुम्बई पर हमला हो या लंदन के धमाके दोनों देश आतंकवाद के खतरे से वाकिफ हैं। इसका मुकाबला करने के लिए दोनों एक-जुट हैं। इस यात्रा के दौरान भारतीय राजनीति से जुड़े सवाल भी उठे हैं। अंदेशा है कि इसका इस्तेमाल भारत विरोधी ताकतें अपने हितों के लिए भी करेंगी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस वक्त भारतीय भूमिका को बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन होना चाहिए साथ ही आतंकवाद से निपटने के लिए वैश्विक संधि होनी चाहिए। पेरिस में सौ से ऊपर लोगों की हत्या आतंकवादी आसानी से करने में इसलिए सफल हो पाए क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई गोलबंदी की शिकार हो रही है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के पीछे संगठित राजशक्तियाँ भी है।