Sunday, May 10, 2015

‘अन्याय’ हमारे भीतर है

सलमान खान मामले के बाद अपने संविधान की प्रस्तावना को एकबार फिर से पढ़ने की इच्छा है। इसके अनुसारः-
" हम भारत के लोग, ...समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए...इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
   सलमान खान को सज़ा सुनाए जाने से पहले बड़ी संख्या में लोगों का कहना था हमें अपनी न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। सज़ा घोषित होते ही उन्होंने कहा, हमारा विश्वास सही साबित हुआ। पर फौरन ज़मानत मिलते ही लोगों का विश्वास डोल गया। फेसबुक पर पनीले आदर्शों से प्रेरित लम्बी बातें फेंकने का सिलसिला शुरू हो गया। निष्कर्ष है कि गरीब के मुकाबले अमीर की जीत होती है। क्या इसे साबित करने की जरूरत है? न्याय-व्यवस्था से गहराई से वाकिफ सलमान के वकीलों ने अपनी योजना तैयार कर रखी थी। इस हुनर के कारण ही वे बड़े वकील हैं, जिसकी लम्बी फीस उन्हें मिलती है। व्यवस्था में जो उपचार सम्भव था, उन्होंने उसे हासिल किया। इसमें गलत क्या किया?

Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।

Thursday, May 7, 2015

फुटपाथियों के लिए आप करते क्या हैं?

क्या कहा, हम भारत के नागरिक हैं?
बेशक  हैं। क्या नज़र नहीं आते?
 हम क्यों मानकर चलते हैं कि जिन लोगों के पास विकल्प नहीं हैं उन्हें फुटपाथ पर ही सोते रहना चाहिए? पर विकल्प तैयार करने की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं है। क्या हर शहर ज़रूरतमंदों को रात में सोने और दो वक्त का भोजन निःशुल्क देने का इंतज़ाम नहीं कर सकता? गणित लगाएं तो यह काम इतना मुश्किल भी नहीं है। सामाजिक सुरक्षा और संरक्षण के लिए नागरिकों की पहल भी ज़रूरी है। 
इन दिनों फुटपाथ के बजाय सड़क
के बीच सोना ज्यादा सुरक्षित है।
मोटा अनुमान है कि देश में तकरीबन आठ करोड़ लोग बेघर हैं। एक अखबारी रपट के अनुसार 'गैर-सरकारी संस्थाओं के सर्वे में दिल्ली में बेघरों की संख्या 60 हजार से एक लाख के बीच है तो दिल्ली सरकार इनकी संख्या महज 15 हजार 400 बता रही है। आंकड़ों के इस घालमेल की सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन हकीकत यह है कि दिल्ली में बने रैन बसेरों का उपयोग सरकारी लापरवाही की वजह से सही तरीके से नहीं हो पा रहा है।... सरकारी निर्देश के मुताबिक फुटपाथ से बेघरों को रैन बसेरों तक पहुंचाना गैर सरकारी संस्थाओं की जिम्मेदारी है। कश्मीरी गेट में बने रैन बसेरे में सोने वाले तो दिन भर की कमाई चोरी होने का भी आरोप लगाते हैं। करीब 2 साल पहले तो दिल्ली सरकार ने बेघरों को रैन बसेरों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी गैर-सरकारी संस्थाओं तथा पुलिस की पीसीआर वैन को दी थी। साथ ही सरकार इन रैन बसेरों पर पूरी तरह से निगरानी रखती थी। यही, वजह थी कि फुटपाथ पर सोने वाले रैन बसेरों में नजर आने लगे, जहां उनके लिए पानी, बिजली, चादर, कंबल व साफ-सफाई समेत तमाम सुविधाएं उपलब्ध थी। ' 

Tuesday, May 5, 2015

पत्रकारों की सेवाशर्तें, वेतन और भूमिका

कुछ साल पहले मैने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखकर मीडिया में काम करने वालों से जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी कि उनके संस्थान में सेवाशर्तें किस प्रकार की हैं। तब कुछ लोगों ने फोन से और कुछ ने मेल से जानकारी दी थी। पर यह जानकारी काफी कम थी। उन दिनों मैं इस विषय पर एक लम्बा आलेख लिखना चाहता था। यह काफी ब़ड़ा विषय है। इस विषय पर लिखते समय कम से कम चार तरह के दृष्टिकोणों को सामने रखा जाना चाहिए। एक, ट्रेड यूनियन का दृष्टिकोण, दूसरे मालिकों का नजरिया, तीन, सरकार की भूमिका और चार, पाठक का नजरिया। पाठक का नज़रिया इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह दूसरे व्यवसायों से भिन्न है। यह कारोबार हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए सूचना और विचार का कच्चा माल तैयार करता है। इसमें पाठक एक महत्वपूर्ण कारक है।

Monday, May 4, 2015

'स्क्रीन' के बंद होने पर विष्णु खरे का रोचक लेख

सिनेमा का साप्ताहिक अखबार 'स्क्रीन' भी  बंद हो गया. एक ज़माने में मुम्बई कारखाने से निकलने वाली ज्यादातर फिल्मों की सूचना तब तक खबर नहीं बनती थी, जबतक वह स्क्रीन में न छप जाए. स्क्रीन में कई-कई पेज के विज्ञापन देकर निर्माता अपने आगमन की घोषणा करते थे. बहरहाल समय के साथ चीजों का रूपांतरण होता है. अलबत्ता यह जानकारी 3 मई के नवभारत टाइम्स में विष्णु खरे के लेख से मिली. खरे जी का लिखा पढ़ने का अपना निराला आनन्द है. यह लेख नवभारत टाइम्स से निकाल कर यहाँ पेश है. लेख के अंत में वह लिंक भी है जो आपको अखबार की साइट पर पहुँचा देगा.
एक छपे रिसाले के लिए विलंबित मर्सिया                
विष्णु खरे 

आज से साठ वर्ष पहले अपने पैदाइशी कस्बे छिन्दवाड़ा में गोलगंज से छोटीबाज़ार जाने वाले रास्ते के नाले की बगल में एक नए खुले पान-बीड़ी के ठेले पर उसे झूलते देख कर मैं हर्ष विस्मित रह गया था. घर पर (एक दिन पुराना डाक एडीशन) ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ’इलस्ट्रेटेड वीकली’ और ‘धर्मयुग’ नियमित आते थे, हिंदी प्रचारिणी लाइब्रेरी में और कई हिंदी-अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाएँ देखने-पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त था, लेकिन वह अंग्रेज़ी अखबार-सा दीखनेवाला जो एक रस्सी से लटका फड़फड़ा रहा था, एक युगांतरकारी, नई चीज़ थी. क्या किसी दैनिक से लगनेवाले इंग्लिश साप्ताहिक का नाम ‘’स्क्रीन’’ हो सकता था ? और जिसके हर एक पन्ने पर सिवा फिल्मों, सिनेमा, उनके इश्तहार ,एक्टर, एक्ट्रेस, उनके एक-से-एक शूटिंग या ग़ैर-शूटिंग फोटो वगैरह के और कुछ न हो ? खुद जिसका नाम सेल्युलॉइड की रील के टुकड़ों की डिज़ाइन में छपा हुआ हो ? मुझे पूरा यकीन है कि उसे सबसे पहले हासिल करने के लिए जिस रफ़्तार से दौड़ कर मैं घर से चार आने लाया था उसे तब रोजर बैनिस्टर या आज ओसैन बोल्ट भी छू नहीं पाए होंगे.