Thursday, May 7, 2015

फुटपाथियों के लिए आप करते क्या हैं?

क्या कहा, हम भारत के नागरिक हैं?
बेशक  हैं। क्या नज़र नहीं आते?
 हम क्यों मानकर चलते हैं कि जिन लोगों के पास विकल्प नहीं हैं उन्हें फुटपाथ पर ही सोते रहना चाहिए? पर विकल्प तैयार करने की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं है। क्या हर शहर ज़रूरतमंदों को रात में सोने और दो वक्त का भोजन निःशुल्क देने का इंतज़ाम नहीं कर सकता? गणित लगाएं तो यह काम इतना मुश्किल भी नहीं है। सामाजिक सुरक्षा और संरक्षण के लिए नागरिकों की पहल भी ज़रूरी है। 
इन दिनों फुटपाथ के बजाय सड़क
के बीच सोना ज्यादा सुरक्षित है।
मोटा अनुमान है कि देश में तकरीबन आठ करोड़ लोग बेघर हैं। एक अखबारी रपट के अनुसार 'गैर-सरकारी संस्थाओं के सर्वे में दिल्ली में बेघरों की संख्या 60 हजार से एक लाख के बीच है तो दिल्ली सरकार इनकी संख्या महज 15 हजार 400 बता रही है। आंकड़ों के इस घालमेल की सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन हकीकत यह है कि दिल्ली में बने रैन बसेरों का उपयोग सरकारी लापरवाही की वजह से सही तरीके से नहीं हो पा रहा है।... सरकारी निर्देश के मुताबिक फुटपाथ से बेघरों को रैन बसेरों तक पहुंचाना गैर सरकारी संस्थाओं की जिम्मेदारी है। कश्मीरी गेट में बने रैन बसेरे में सोने वाले तो दिन भर की कमाई चोरी होने का भी आरोप लगाते हैं। करीब 2 साल पहले तो दिल्ली सरकार ने बेघरों को रैन बसेरों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी गैर-सरकारी संस्थाओं तथा पुलिस की पीसीआर वैन को दी थी। साथ ही सरकार इन रैन बसेरों पर पूरी तरह से निगरानी रखती थी। यही, वजह थी कि फुटपाथ पर सोने वाले रैन बसेरों में नजर आने लगे, जहां उनके लिए पानी, बिजली, चादर, कंबल व साफ-सफाई समेत तमाम सुविधाएं उपलब्ध थी। ' 

फेसबुक पर सलमान खान के मामले पर प्रतिक्रियाएं देखने पर पहली नजर में खुशी होती है, पर फिर याद आता है कि हमारे जीवन में गहरा पाखंड है। बेघर होना नई समस्या नहीं है। शहरों में कई परिवारों की पाँच-पाँच पीढ़ियाँ बेघर रही हैं। कुछ लोग रेलवे स्टेशनों, सब वे और सरकारी रैन बसेरों में सोते हैं और कुछ लोगों का पूरा जीवन जेलों में बीतता है। वे उनसे बाहर आना भी नहीं चाहते। हम झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को बेघरों में नहीं गिनते। 

सलमान मामले पर गायक अभिजित की प्रतिक्रिया पर लोगों की नाराज़गी जायज़ है, पर क्या वे अपने मौके पर ऐसा ही व्यवहार नहीं करते? क्या वे अपने घर पर काम करने वाली को वेतन देते वक्त उसे भविष्यनिधि देने पर विचार करते हैं? क्या किसी ने कभी ऐसी मुहिम चलाई है कि कामवाली बाइयों के लिए पीपीएफ एकाउंट खोला जाए? उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए कुछ संस्थाएं सामने आईं हैं, पर यह काम बेहद छोटे स्तर पर हो रहा है। ऐसा नहीं कि सामाजिक पहल पर यह काम किया न जा सके, पर हम सरकार का मुँह देखना पसंद करते हैं और उसे कोसने के बाद अपने काम की इतिश्री कर लेते हैं। 

हम ग्रामीण गरीबी को लेकर जितना चिंतित रहते हैं उतना ही शहरी गरीबी को लेकर भी परेशान रहना चाहिए। गाँव का सामुदायिक जीवन एक हद तक व्यक्ति को अकेला नहीं रहने देता। शहर में व्यक्ति अक्सर नितांत अकेला होता है। 

ज्यादा जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक देखें
 Street Children in India

2 comments:

  1. पहले शहरों गांवों का ये हक़ल है तो समार्ट सिटी बनाने की क्या जरूरत है इन्हें ही स्मार्ट क्यों नही बनाया जाता उस पर करोडों खर्छ करते हुये नेताओं की जेब मे आधा तो छला ही जायेगा1 सिटी फिर भी नही बन पायेण्गे1 िस से अच्छा हर शहर मे रइन बसेरे बना दिये जायें1

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  2. बोलने वालों को इस का अहसास तक नहीं कि जिन बड़ी-बड़ी इमारतों में यह रहते है, ये फुटपाथी उसको बनाते है। ये शहर निर्माता है।

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