क्या कहा, हम भारत के नागरिक हैं? बेशक हैं। क्या नज़र नहीं आते? |
इन दिनों फुटपाथ के बजाय सड़क के बीच सोना ज्यादा सुरक्षित है। |
फेसबुक पर सलमान खान के मामले पर प्रतिक्रियाएं देखने पर पहली नजर में खुशी होती है, पर फिर याद आता है कि हमारे जीवन में गहरा पाखंड है। बेघर होना नई समस्या नहीं है। शहरों में कई परिवारों की पाँच-पाँच पीढ़ियाँ बेघर रही हैं। कुछ लोग रेलवे स्टेशनों, सब वे और सरकारी रैन बसेरों में सोते हैं और कुछ लोगों का पूरा जीवन जेलों में बीतता है। वे उनसे बाहर आना भी नहीं चाहते। हम झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को बेघरों में नहीं गिनते।
सलमान मामले पर गायक अभिजित की प्रतिक्रिया पर लोगों की नाराज़गी जायज़ है, पर क्या वे अपने मौके पर ऐसा ही व्यवहार नहीं करते? क्या वे अपने घर पर काम करने वाली को वेतन देते वक्त उसे भविष्यनिधि देने पर विचार करते हैं? क्या किसी ने कभी ऐसी मुहिम चलाई है कि कामवाली बाइयों के लिए पीपीएफ एकाउंट खोला जाए? उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए कुछ संस्थाएं सामने आईं हैं, पर यह काम बेहद छोटे स्तर पर हो रहा है। ऐसा नहीं कि सामाजिक पहल पर यह काम किया न जा सके, पर हम सरकार का मुँह देखना पसंद करते हैं और उसे कोसने के बाद अपने काम की इतिश्री कर लेते हैं।
हम ग्रामीण गरीबी को लेकर जितना चिंतित रहते हैं उतना ही शहरी गरीबी को लेकर भी परेशान रहना चाहिए। गाँव का सामुदायिक जीवन एक हद तक व्यक्ति को अकेला नहीं रहने देता। शहर में व्यक्ति अक्सर नितांत अकेला होता है।
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पहले शहरों गांवों का ये हक़ल है तो समार्ट सिटी बनाने की क्या जरूरत है इन्हें ही स्मार्ट क्यों नही बनाया जाता उस पर करोडों खर्छ करते हुये नेताओं की जेब मे आधा तो छला ही जायेगा1 सिटी फिर भी नही बन पायेण्गे1 िस से अच्छा हर शहर मे रइन बसेरे बना दिये जायें1
ReplyDeleteबोलने वालों को इस का अहसास तक नहीं कि जिन बड़ी-बड़ी इमारतों में यह रहते है, ये फुटपाथी उसको बनाते है। ये शहर निर्माता है।
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