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Saturday, November 15, 2014

बिखरे जनता परिवार की एकता?

 क्षेत्रीय राजनीति के लिए सही मौका है और दस्तूर भी,
पर इस त्रिमूर्ति का इरादा क्या है?
पिछले हफ्ते दिल्ली में बिखरे हुए जनता परिवार को फिर से बटोरने की कोशिश के पीछे की ताकत और सम्भावनाओं को गम्भीरता के साथ देखने की जरूरत है। इसे केवल भारतीय जनता पार्टी को रोकने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। व्यावहारिक रूप से यह पहल ज्यादा व्यापक और प्रभावशाली हो सकती है। खास तौर से कांग्रेस के पराभव के बाद उसकी जगह को भरने की कोशिश के रूप में यह सफल भी हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति को एक-ध्रुवीय बना दिया है। उसके गठबंधन सहयोगी भी बौने होते जा रहे हैं। ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति को भी मंच की तलाश है। संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को केवल राष्ट्रीय पार्टी के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। पर सवाल यह है कि लालू, मुलायम, नीतीश पर केंद्रित यह पहल क्षेत्रीय राजनीति को मजबूत करने के वास्ते है भी या नहीं? इसे केवल अस्तित्व रक्षा तक सीमित क्यों न माना जाए?

Saturday, November 8, 2014

आर्थिक शक्ति देती है सामरिक सुरक्षा की गारंटी

वैश्विक व्यवस्था और खासतौर से अर्थ-व्यवस्था का प्रभावशाली हिस्सा बनने के लिए भारत को अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और सामरिक रिश्तों को भी पुनर्परिभाषित करना होगा। जो देश आर्थिक रूप से सबल हैं वे सामरिक रूप से भी मजबूत हैं। उनकी संस्कृति ही दुनिया के सिर पर चढ़कर बोलती है। संयुक्त राष्ट्र के गठन के समय अंग्रेजी और फ्रेंच दो भाषाओं को औपचारिक रूप से उसकी भाषाएं माना जाता था। फिर 1948 में इसमें रूसी भाषा जुड़ी, इसके बाद स्पेनिश। सत्तर के दशक में चीनी भाषा इसमें शामिल हुई। उसके बाद अरबी को आधिकारिक भाषा बनाया गया। सत्तर के दशक में पेट्रोलियम की ताकत ने अरबी को वैश्विक भाषा का दर्जा दिलाया था। सन 77 में जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था, तब से यह माँग की जा रही है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना चाहिए। उसे आधिकारिक भाषा बनाने के लिए भारी खर्च की व्यवस्था करनी होगी इसलिए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जा सकता। अपनी बात कहने का अधिकार उन्हें ज्यादा है जिनके पास सामर्थ्य है।

Saturday, November 1, 2014

जानकारी देने में घबराते क्यों हो?

सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा कानून बन जाने भर से काम पूरा नहीं हो जाता। कानून बनने के बाद उसके व्यावहारिक निहितार्थों का सवाल सामने आता है। पिछले साल जब देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे जाने की पेशकश की गई तो दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। इसका समर्थन करने वालों को लगता था कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया। पर प्रश्न व्यापक पारदर्शिता और जिम्मेदारी का है। देश के तमाम राजनीतिक दल परचूनी की दुकान की तरह चलते हैं। केवल पार्टियों की बात नहीं है पूरी व्यवस्था की पारदर्शिता का सवाल है। जैसे-जैसे कानून की जकड़ बढ़ रही है वैसे-वैसे निहित स्वार्थ इस पर पर्दा डालने की कोशिशें करते जा रहे हैं।  

Wednesday, October 22, 2014

और अब आर्थिक सुधारों की उड़ान

नरेंद्र मोदी की सरकार वोटर को संतुष्ट करने में कामयाब है या नहीं इसका संकेतक महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों को माना जाए तो कहा जा सकता है कि जनता फिलहाल सरकार के साथ खड़ी है। और अब लगता है कि सरकार आर्थिक नीतियों से जुड़े बड़े फैसले अपेक्षाकृत आसानी से करेगी। सरकार ने कोल सेक्टर और पेट्रोलियम को लेकर दो बड़े फैसले कर भी लिए हैं। मई में नई सरकार बनने के बाद के शुरूआती फैसलों में से एक पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों से जुड़ा था। फिर प्याज, टमाटर और आलू की कीमतों को लेकर सरकार की किरकिरी हुई। मॉनसून भी अच्छा नहीं रहा। अंदेशा था कि दीपावली के मौके पर मतदाता मोदी सरकार के प्रति अपनी नाराज़गी व्यक्त करेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। जैसाकि हर साल होता है दीपावली के ठीक पहले सब्जी मंडियों में दाम गिरने लगे हैं। टमाटर और प्याज अब आसानी से खरीदे जा सकते हैं। फूल गोभी सस्ती होने लगी है। मूली 10 रुपए किलो पर बिक रही है और इसके भी नीचे जाएगी। नया आलू आने के बाद उसके दाम गिरेंगे। वित्तमंत्री को लगता है कि अर्थ-व्यवस्था की तीसरी और चौथी तिमाही काफी बेहतर होने वाली है।

Saturday, October 18, 2014

संयुक्त राष्ट्र नहीं, महत्वपूर्ण है हमारी संसद का प्रस्ताव

जम्मू-कश्मीर के मामले में दो बातें समझ ली जानी चाहिए। पहली यह कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। 1 जनवरी 1948 को भारत ने यह मामला उठाया और इसमें साफ तौर पर पाकिस्तान की ओर से कबायलियों और पाकिस्तानी सेना के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की शिकायत की गई थी। यह मसला अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर पाकिस्तान संज़ीदा था तो उसी समय पाकिस्तानी सेना जम्मू-कश्मीर छोड़कर क्यों नहीं चली गई और उसने कश्मीर में घुस आए कबायलियों को वापस पाकिस्तान ले जाने की कोशिश क्यों नहीं कीप्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।

Saturday, October 11, 2014

ई-रिटेल का खेल, अभी तो यह शुरुआत है

फ्लिपकार्ट की बिग-बैंग सेल के बाद भारत के ई-रिटेल को लेकर कई बातें रोशनी में आईं हैं। इसकी अच्छाइयों और बुराइयों के किस्से सामने हैं, कई पेचीदगियों ने सिर उठाया है और सम्भावनाओं का नया आसमान खुला है। इस नए बाज़ार ने व्यापार कानूनों के छिद्रों की ओर भी इशारा किया है। यह बाज़ार इंटरनेट के सहारे है जिसकी पहली पायदान पर ही हम खड़े हैं। ‘बिग बिलियन डे’ की सेल ने नए मायावी संसार की झलक भारतवासियों को दिखाई साथ ही फ्लिपकार्ट की प्रबंध क्षमता और तकनीकी प्रबंध पर सवाल भी उठाए। इसके लिए उसके सह-संस्थापकों सचिन बंसल और बिनी बंसल ने फौरन अपने ग्राहकों से माफी माँगी। उनकी असली परीक्षा अब अगले कुछ दिनों में होगी।

Saturday, September 27, 2014

न्यूक्लियर डील के पेचो-ख़म

पहले जापान, फिर चीन और अब अमेरिका के साथ बातचीत की बेला में भारतीय विदेश नीति के अंतर्विरोध नज़र आने लगे हैं। सन 2005 के भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग के समझौते के बाद सन 2008 के न्यूक्लियर डील ने दोनों देशों को काफी करीब कर दिया था। इसी डील ने दोनों के बीच खटास पैदा कर दी है। विवाद की जड़ में है सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010 की वे व्यवस्थाएं जो परमाणु दुर्घटना की स्थिति में मुआवजा देने की स्थिति में उपकरण सप्लाई करने वाली कम्पनी पर जिम्मेदारी डालती हैं। खासतौर से इस कानून की धारा 17 से जुड़े मसले पर दोनों देशों के बीच सहमति नहीं है। यह असहमति केवल अमेरिका के साथ ही नहीं है, दूसरे देशों के साथ भी है। जापान के साथ तो हमारा कुछ बुनियादी बातों को लेकर समझौता ही नहीं हो पा रहा है।

Saturday, August 30, 2014

बिहार-प्रयोग के किन्तु-परन्तु

बिहार के विधान सभा उपचुनावों में जीत के बाद जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव ने कहा है कि उन्हें पहले से पता था कि गठबंधन की जीत होगी। अब इस एजेंडे को देश भर में ले जाएंगे। जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन के नेताओं का कहना है कि जनता ने साबित किया है कि नरेंद्र मोदी के रथ को आसानी से रोका जा सकता है। लालू और नीतीश ने कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चा बनाने का जो प्रयोग किया वह अपनी पहली परीक्षा में सफल साबित हुआ। इन परिणामों से यह बात तो साबित हुई कि इन दोनों नेताओं का पिछड़ी जातियों में जनाधार मजबूत है और यह भी कि लोकसभा चुनाव में बिहार में एनडीए को मिली जीत के पीछे बड़ा कारण 'मोदी लहर' के साथ-साथ वोटों का बिखराव भी था। यह बात भी समझ में आती है कि इस प्रयोग को देश भर में ले जाने की कोशिश की जाएगी।

इस गठबंधन में कोई नई बात है तो बस यही कि यह गैर-भाजपा गठबंधन था, गैर-कांग्रेस गठबंधन नहीं। अतीत में यह एक ही जड़ी का नाम होता था। अब तक ऐसा गठबंधन इसलिए नहीं बना कि कांग्रेस, राजद और जेडीयू तीनों तुर्रम खां थे। अब तीनों डरे हुए हैं। अब देखना होगा कि यह गठबंधन अगले साल विधानसभा चुनाव तक रहता भी है या नहीं। बना रहा तो राष्ट्रीय शक्ल लेगा या नहीं। इनकी टोली में कौन से दल शामिल होंगे और क्यों। यह तीसरा मोर्चा है, चौथा है या एनडीए के जवाब में दूसरे मोर्चे की कोई नई अवधारणा है? यह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की प्राण-रक्षा है या सुविचारित सैद्धांतिक गठबंधन है? क्या सभी या बहुसंख्यक धर्म निरपेक्ष पार्टियाँ शामिल होंगी?

धुरी में कौन है कांग्रेस या जनता परिवार?
इन सवालों के जवाब पाने के पहले एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या जनता दल का गैर-कांग्रेसवाद अब खत्म हो चुका है? लालू प्रसाद का राजद तो लम्बे अरसे से कांग्रेस के साथ गठबंधन करता आ रहा है, पर जेडीयू ने पहली बार किया। इन चुनाव परिणामों के बाद शरद यादव ने दिल्ली के एक अख़बार से कहा कि जनता दल ने कांग्रेस के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी है, पर अब गैर-कांग्रेसवाद का दौर खत्म हो चुका है। क्या अब जनता परिवार के गठबंधनों में कांग्रेस भी शामिल होगी? लालू और नीतीश की पहचान बिहार के बाहर नहीं है। कांग्रेस की पहचान अखिल भारतीय है। अभी तक तीसरे या चौथे मोर्चे की धुरी वाम मोर्चे की पार्टियाँ बनती थीं। क्या अब कांग्रेस इसकी धुरी बनेगी? यह सोचने में कोई खराबी नहीं कि देश की सारी धर्म-निरपेक्ष पार्टियाँ एक छतरी के नीचे आ जाएं, पर यह व्यावहारिक नहीं है। हमें पहले कांग्रेस के भविष्य का अनुमान लगाना होगा। वह किधर जाने वाली है?

लोकसभा चुनाव के समय ऐसा मोर्चा क्यों नहीं बना? शायद ऐसी पिटाई का अंदेशा न नीतीश कुमार को था और न लालू को। जब जान पर बन आई तब इस मोर्चे का विचार आया है। चुनाव के ठीक पहले जिस धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को बनाने की कोशिश की गई थी वह विफल रहा, क्योंकि ममता, जयललिता, नवीन पटनायक और मायावती ने इसमें शिरकत नहीं की। क्षेत्रीय दलों में ये चार सबसे प्रभावी दल हैं। बिहार उपचुनावों के परिणाम आने के बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम उत्तर प्रदेश में ऐसे गठबंधन पर विचार कर सकते हैं, पर मायावती ने इसकी सम्भावना को खारिज कर दिया था। पर क्या मुलायम के उस प्रस्ताव पर मायावती पुनर्विचार करेगी जिसमें बसपा-सपा गठबंधन की बात थी? सन 1993 में उत्तर प्रदेश में सफल होने के बाद पिछले 21 साल से ये दोनों दल एक-दूसरे के मुख्य प्रतिस्पर्धी हैं। उनकी प्रतिस्पर्धा के कारणों को भी समझना होगा। इसी तरह क्या कर्नाटक में जनता परिवार कांग्रेस के साथ आएगा? क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और कांग्रेस एक साथ आएंगे? क्या इस मोर्चे के प्रस्तावकों के पास तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, असम, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान के लिए भी फॉर्मूले है? मुलायम सिंह, मायावती और कांग्रेस तीनों एक भाजपा को हराने के लिए एकजुट क्यों नहीं हो सकते? क्या ममता बनर्जी और वाम दल मिलकर काम कर सकते हैं?

थोड़ा सा इंतज़ार कीजिए
इन सब बातों के पहले उत्तर प्रदेश में तथा कुछ अन्य राज्यों में 13 सितम्बर को होने वाले उपचुनावों के परिणामों का इंतज़ार भी करना होगा। उसके बाद देखें कि झारखंड में विधान सभा चुनाव में महागठबंधन बनता है या नहीं। फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और सम्भवतः दिल्ली के परिणामों पर नज़र डालनी होगा। बिहारी महागठबंधन की गतिविधियों पर निगाह रखनी होगी। यानी इसका नेता कौन? फिलहाल तो झगड़ा नहीं है, पर अगले साल गठबंधन की जीत हुई तो मुख्यमंत्री कौन? राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की अवधारणा तो और भी महत्वाकांक्षी लगती है। फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बना तो नेतृत्व किसके पास रहेगा? ऐसे कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब पेचीदा हैं।

बिहार के चुनाव परिणामों के गम्भीर निष्कर्ष निकालने के पहले दो-तीन बातों को समझ लिया जाना चाहिए। इन दसों सीटों के चुनावों का मुद्दा लोकसभा चुनाव के मुद्दे से फर्क था। उस चुनाव में राष्ट्रीय राजनीति प्रभावी थी, इसमें स्थानीय मसले हावी थे। लोकसभा चुनाव के भारी मतदान के मुकाबले इस चुनाव में मतदान तकरीबन 20 से 25 फीसदी कम हुआ। जो तबका तब नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट देने के लिए निकला था, वह इस बार नहीं निकला। वह विधान सभा चुनाव में भी वोट नहीं देगा ऐसा नहीं कह सकते। जरूरी नहीं कि वह अगली बार भाजपा को ही वोट दे, पर वह महत्वपूर्ण साबित होगा। उसका वोट जाति और धर्म के बाहर जाकर पड़ता है। भाजपा का रूप विधान सभा चुनाव में क्या होगा कहना मुश्किल है। जातीय ध्रुवीकरण की काट में क्या वह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर जाएगी? उत्तर प्रदेश भाजपा अपेक्षाकृत आक्रामक है और हिन्दुत्व की लाइन पर जा रही है।

भाजपा को रोका जा सकता है
बिहार के इन परिणामों ने यह साबित किया है कि भाजपा को रोकना मुश्किल काम नहीं है, बशर्ते स्थानीय नेता त्याग करें। किसी ताकत को रोकना एक बात है और एक सुगठित, सुचारु विकल्प कायम करना दूसरा काम है। गठबंधन हमारी ही नहीं दुनिया भर की राजनीति का सत्य बनकर उभरे हैं। सन 2010 में ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बना, पर दोनों पार्टियों ने काफी पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया। बावजूद इसके वहाँ भी बगावत होती रहती है। सन 2015 में दोनों पार्टियों को अलग-अलग चुनाव लड़ना है इसलिए वहाँ असहमतियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं। गठबंधन का लक्ष्य सत्ता को हासिल करना है, उसे सिद्धांत से सजाने का काम राजनीतिक कौशल से जुड़ा है। बिहार में लालू-नीतीश कौशल ने काम किया, पर कब तक और कहाँ तक?
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

Saturday, August 9, 2014

योजना आयोग रहे न रहे, राज्यों की भूमिका बढ़नी चाहिए

यूपीए सरकार और उसकी राजनीति में अंतर्विरोध था। सरकार आर्थिक उदारीकरण पर कटिबद्ध थी और पार्टी नेहरूवादी सोच में कैद थी। मोदी सरकार के सामने भी अंतर्द्वंद है। पर मनमोहन सरकार के मुकाबले वह ज्यादा खुलकर काम कर सकती है। यह बात योजना आयोग को लेकर चल रही अटकलों के संदर्भ में कही जा सकती है। योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने पिछले हफ्ते राज्यसभा में लिखित उत्तर में कहा कि आयोग को फिलहाल खत्म करने या उसके मौजूदा स्वरूप को युक्तिसंगत बनाने का कोई प्रस्ताव सरकार के विचाराधीन नहीं है। पर इस बार के बजट का साफ संकेत है कि आयोग के पर कतरे जाएंगे।
योजनागत और गैर-योजनागत व्यय में अंतर पिछली सरकार ने अपने अंतरिम बजट में ही कर दिया था। सरकारी विभागों को दो तरीके से धनराशि आवंटित होती है। एक, वित्त मंत्रालय के जरिए और दूसरे योजना आयोग से। इस विसंगति को दूर किया जा रहा है। यह अवधारणा मोदी सरकार की देन नहीं है। इसकी सिफारिश रंगराजन समिति ने की थी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बरसों से इसकी बात करते रहे हैं। उन्होंने अपने विदाई भाषण में लगातार खुलती जा रही अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की भूमिका की समीक्षा करने की सलाह दी थी। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी आयोग के पुनर्गठन की बात कही गई है। अलबत्ता वामपंथी दलों को यह विचार पसंद नहीं आएगा।

Saturday, July 26, 2014

कांग्रेसी आत्म मंथन माने रायता फैलाना

बेताल फिर डाल पर
कांग्रेस को इंतज़ार है फिर किसी चमत्कार का 
इस हफ्ते कांग्रेस को कई झटके लगे हैं। असम के विधायकों ने बग़ावत की। स्वास्थ्य मंत्री हेमंतो बिसवा सर्मा के नेतृत्व में विधायकों ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा। महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री नारायण राणे ने इस्तीफ़ा दिया। हरियाणा में चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बंगाल में तीन और विधायक पार्टी छोड़ गए। सन 2011 से अब तक सात विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के विधायकों की संख्या 42 से घटकर 35 रह गई है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस से पांच साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया है। झारखंड में भी पार्टी के भीतर बगावत के स्वर हैं। इस साल अक्तूबर नवम्बर में महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और झारखंड में चुनाव होने वाले हैं। शायद दिल्ली में भी हों। तरुण गोगोई, पृथ्वीराज चह्वाण और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ बगावत सीधे-सीधे राहुल गांधी के खिलाफ बगावत है, भले ही इसे साफ न कहा जाए।

Saturday, June 14, 2014

संघीय व्यवस्था पर विमर्श की घड़ी

मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और एचडी देवेगौडा को छोड़ दें तो देश के प्रधानमंत्रियों में से अधिकतर के पास राज्य सरकार का नेतृत्व करने का अनुभव नहीं रहा। राज्य का मुख्यमंत्री होना भले ही प्रधानमंत्री पद के लिए महत्वपूर्ण न होता हो, पर राज्य का नेतृत्व करना एक खास तरह का अनुभव दे जाता है, खासकर तब जब केंद्र और राज्य की सरकारें अलग-अलग मिजाज की हों। इस बात को हाल में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने हाल में रेखांकित किया। नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप जो समय बिताया उसका काफी हिस्सा केंद्र-राज्य रिश्तों से जुड़े टकरावों को समर्पित था।

संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए मोदी ने जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया वह यह थी कि इस देश को केवल दिल्ली के हुक्म से नहीं चलाया जा सकता। सारे देश को चलाने का एक फॉर्मूला नहीं हो सकता। पहाड़ी राज्यों की अपनी समस्याएं हैं और मैदानी राज्यों की दूसरी। तटवर्ती राज्यों का एक मिजाज है और रेगिस्तानी राज्यों का दूसरा। क्या बात है कि देश का पश्चिमी इलाका विकसित है और पूर्वी इलाका अपेक्षाकृत कम विकसित? लम्बे समय से देश मजबूत केंद्र और सत्ता के विकेंद्रीकरण की बहस में संलग्न रहा है। पर विशाल बहुविध, बहुभाषी, बहुरंगी देश को एकसाथ लेकर चलने का फॉर्मूला सामने नहीं आ पाया है। केंद्र की नई सरकार देश को नया शासन देने के साथ इस विमर्श को बढ़ाना चाहती है, तो यह शुभ लक्षण है।  
केंद्र-राज्य मंचों में राजनीति
राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कहा, राज्यों और केंद्र को सामंजस्यपूर्ण टीम इंडिया के रूप में काम करना चाहिए। सरकार, राष्ट्रीय विकास परिषद, अंतर्राज्यीय परिषद जैसे मंचों को पुन: सशक्त बनाएगी। अब तक का अनुभव है कि इन मंचों पर मुख्यमंत्री अनमने होकर आते हैं। अक्सर आते ही नहीं। राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय विकास पर हावी रहती है। हाल के वर्षों में योजना आयोग के आँकड़ों को इस प्रकार घुमा-फिराकर पेश करने की कोशिश की जाती थी, जिससे लगे कि विकास का गुजरात मॉडल विफल है। पिछले दो साल में जबसे तृणमूल कांग्रेस ने यूपीए से हाथ खींचा है बंगाल को 22 हजार करोड़ रुपए के ब्याज की माफी का मसला राष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है। बिहार में नीतीश कुमार की सरकार और यूपीए के बीच विशेष राज्य का दर्जा हासिल करने की बात राजनीतिक गलियारों में गूँजती रही।

Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।

Saturday, March 15, 2014

जातीय-राजनीति को गढ़ने के साथ उसे पढ़ें भी

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी जातीय आरक्षण पर विचार करने की बात कहकर एक नई बहस को जन्म देने की कोशिश की थी। चूंकि कांग्रेस ने द्विवेदी के बयान को  सिरे से खारिज कर दिया इसलिए बात आई-गई हो गई। लेकिन जातीय आरक्षण का सवाल देश की राजनीति से अलग नहीं हो पाएगा। हजारों साल का सामाजिक अन्याय सबसे प्रमुख कारण है। पर उससे बड़ा कारण है राजनीतिक यथार्थ। चुनाव के ठीक पहले जाटों को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय सूची में शामिल करने का फैसला शुद्ध रूप से राजनीतिक है। इसका असर उत्तर भारत के उन राज्यों पर पड़ेगा जहाँ जाट आबादी की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन राज्यों में तकरीबन नौ करोड़ जाट रहते हैं। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से जाट आबादी का रुझान भारतीय जनता पार्टी की ओरहुआ है। उसे रोकने की यह कोशिश है। जाट समुदाय की गिनती बड़े या मध्यम दर्जे के संपन्न किसानों के रूप में होती है। उनके वोट तकरीबन 100 लोकसभा सीटों पर बड़े स्तर पर या आंशिक रूप से असर डाल सकते हैं। और यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। हालांकि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि इस फैसले को लागू करने में अभी काफी कानूनी अड़चनें हैं। क्या जाट समुदाय इस बात को नहीं समझता है?

Saturday, January 25, 2014

उदारीकरण और भ्रष्टाचार, कैसे लड़ेंगे राहुल?

कांग्रेस का नया पोस्टर है राहुल जी के नौ हथियार दूर करेंगे भ्रष्टाचार। इन पोस्टरों में नौ कानूनों के नाम हैं। इनमें से तीन पास हो चुके हैं और छह को संसद के अगले अधिवेशन में पास कराने की योजना है। यह पोस्टर कांग्रेस महासमिति में राहुल गांधी के भाषण से पहले ही तैयार हो गया था। राहुल का यह भाषण आने वाले लोकसभा चुनाव का प्रस्थान बिन्दु है। इसका मतलब है कि पार्टी ने कोर्स करेक्शन किया है। हाल में हुए विधानसभा के चुनावों तक राहुल मनरेगा, सूचना और शिक्षा के अधिकार, खाद्य सुरक्षा और कंडीशनल कैश ट्रांसफर को गेम चेंजर मानकर चल रहे थे। ग्राम प्रधान को वे अपने कार्यक्रमों की धुरी मान रहे थे। पर 8 दिसंबर को आए चुनाव परिणामों ने बताया कि शहरों और मध्य वर्ग की अनदेखी महंगी पड़ेगी।

सच यह है कि कोई पार्टी उदारीकरण को राजनीतिक प्रश्न बनाने की हिम्मत नहीं करती। विकास की बात करती है, पर इसकी कीमत कौन देगा यह नहीं बताती। राजनीतिक समझ यह भी है कि भ्रष्टाचार का रिश्ता उदारीकरण से है। क्या राहुल इस विचार को बदल सकेंगे? कॉरपोरेट सेक्टर नरेंद्र मोदी की ओर देख रहा है। दिल्ली में आप की सफलता ने साबित किया कि शहर, युवा, महिला, रोजगार, महंगाई और भ्रष्टाचार छोटे मुद्दे नहीं हैं। 17 जनवरी की बैठक में सोनिया गांधी ने अपनी सरकार की गलतियों को स्वीकार करते हुए मध्य वर्ग से नरमी की अपील की। और अब कांग्रेस के प्रवक्ता बदले गए हैं। ऐसे चेहरे सामने आए हैं जो आर्थिक उदारीकरण और भ्रष्टाचार विरोधी व्यवस्थाओं के बारे में ठीक से पार्टी का पक्ष रख सकें।

Saturday, December 21, 2013

कांग्रेस अब गठबंधन की तलाश में

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस ने 17 जनवरी को दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बुलाई है, जिसमें लोकसभा चुनावों की रणनीति तैयार की जाएगी। संभावना इस बात की है कि उस बैठक में राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया जाए। पर पार्टी के विचारकों के सामने सबसे बड़ा संकट अलग-अलग राज्यों का गणित है। लोकपाल विधेयक को पास कराने की जल्दबाज़ी और इस मामले में भी राहुल गांधी की पैराट्रुपर राजनीति का मतलब यही है कि पार्टी को संजीवनी चाहिए। एआईसीसी की पिछली बैठक इस साल जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर के साथ हुई थी। इस बैठक की घोषणा जिस दिन की गई उसके एक दिन पहले डीएमके के नेता करुणानिधि ने अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का ऐलान किया है।

Saturday, November 23, 2013

तेन्दुलकर तो निर्विवाद हैं, पुरस्कार नहीं

18 अगस्त 2007 को जब दशरथ मांझी का दिल्ली में कैंसर से लड़ते हुए निधन हुआ था, तब उसके जीवट और लगन की कहानी देश के सामने आई थी। पर न तब और न आज किसी ने कहा कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए। हमारे एलीटिस्ट मन में यह बात नहीं आती। इन पुरस्कारों का इतिहास देखें तो लगता है कि तेन्दुलकर का सम्मान गलत नहीं है।

जाने-अनजाने सचिन तेन्दुलकर देश की पहचान हैं। उनकी प्रतिभा और लगन युवा वर्ग को प्रेरणा देती है। सहज और सौम्य हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं, माँ का सम्मान करते हैं और एक साधारण परिवार से उठकर आए हैं। यह तय करने का कोई मापदंड नहीं कि वे  देश के सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं भी या नहीं। ध्यानचंद महान खिलाड़ी थे और उस दौर में थे जब हमें आत्मविश्वास की ज़रूरत थी। फिर भी वे लोकप्रियता के उस शिखर पर नहीं थे, जिसपर आज सचिन तेन्दुलकर हैं। वह संस्कृति और वह समाज ऐसी लोकप्रियता देता भी नहीं था। ध्यानचंद के जन्मदिन को हम राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाते हैं। तमाम खेल प्रेमी नहीं जानते कि 29 अगस्त उनकी जन्मतिथि है। इस दिन राष्ट्रपति राष्ट्रीय खेल पुरस्कार देते हैं।

Tuesday, October 22, 2013

सोशल मीडिया का हस्तक्षेप यानी, ठहरो कि जनता आती है

ग्वालियर में राहुल गांधी की रैली खत्म ही हुई थी कि मीनाक्षी लेखी का ट्वीट आ गया माँ की  बीमारी का नाम लेने पर तीन कांग्रेसी सस्पेंड कर दिए गए, अब राहुल गांधी वही कर रहे हैं। उधर दिग्विजय सिंह ने ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी को चुनौती दी, मुझसे बहस करो। रंग-बिरंगे ट्वीटों की भरमार है। माना जा रहा है कि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार सोशल मीडिया का असर देखने को मिलेगा। इस साल अप्रेल में 'आयरिस नॉलेज फाउंडेशन और 'इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया' ने 'सोशल मीडिया एंड लोकसभा इलेक्शन्स' शीर्षक से एक अध्ययन प्रकाशित किया था, जिसमें कहा गया था कि भारत की 543 में से 160 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिनके नतीजों पर सोशल मीडिया का प्रभाव पड़ेगा। सोशल मीडिया का महत्व इसलिए भी है कि चुनाव से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार पर रोक लगने के बाद भी फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग सक्रिय रहेंगे। उनपर रोक की कानूनी व्यवस्था अभी तक नहीं है। दिल्ली में आप के पीछे सोशल मीडिया की ताकत भी है।

Saturday, September 21, 2013

रैनबैक्सीः भारतीय औषधि उद्योग की प्रतिष्ठा को धक्का

रैनबैक्सी की दवाओं पर अमेरिका में पाबंदी लगने से भारतीय शेयर बाजार में निवेशकों के 5,855 करोड़ रुपए एक दिन में ही डूब गए। दुनिया में बिकने वाली तकरीबन चालीस फीसदी जेनरिक दवाएं भारत में बनती हैं। क्या इस फैसले का असर इस पूरे कारोबार पर पड़ेगा? भारत में डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज़, ल्यूपिन लिमिटेड, सन फार्मा और सिपला वगैरह के कारोबार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। अमेरिकी एफडीए सभी कंपनियों का निरीक्षण नहीं करता, पर रैनबैक्सी के साथ हालात बिगड़ते चले गए। सही है कि अमेरिकी मानक कड़े होते हैं, पर रैनबैक्सी के मामले में शिकायतें केवल कड़ाई की नहीं थीं। क्या हम वास्तव में दवाओं के ठीक से क्लीनिकल ट्रायल भी नहीं कर सकते? सवाल यह भी है कि हमारे देश के औषधि नियामक किस बात का इंतजार कर रहे हैं? क्या उन्हें अपने देश की कम्पनी से जुड़े मामले की जाँच नहीं करनी चाहिए? क्या कारण है कि हमारे देश में ऐसी कंपनियाँ नहीं है जो नए अनुसंधान के आधार पर दवाएं बनाने की कोशिश करें? क्या हम केवल नकल कर सकते हैं वह भी टेढ़े तरीके से? इस मामले में अमेरिका का विसिल ब्लोवर कानून भी काम में आया है। कंपनी के एक पूर्व अधिकारी की शिकायतें भी इसमें शामिल हैं। इसलिए इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है कि हम विसिल ब्लोवर कानून को पास करने देरी क्यों कर रहे हैं? और यह भी कि इस कानून को निजी कंपनियों पर भी क्यों नहीं लागू करना चाहिए?

Saturday, August 3, 2013

निवेश को जज्ब करने वाला समाज भी चाहिए

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वैश्वीकरण की प्रत्यक्ष देन है। भारत में ही नहीं दुनिया भर में 1990 के दशक से इसका नाम ज्यादा सुना जा रहा है। पश्चिमी पूँजी को विस्तार के लिए नए इलाकों की तलाश है, जहाँ से बेहतर फायदा मिल सके। साथ ही इन इलाकों को पूँजी की तलाश है जो आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाए, ताकि रोजगार बढ़ें। बहस भी इसी बात को लेकर है कि रोजगार बढ़ते हैं या नहीं। बहरहाल सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार के दुबारा आने के बाद उम्मीद थी कि अब आर्थिक उदारीकरण का चक्का तेजी से चलेगा। यानी प्रत्यक्ष कर, बैंकिग, इंश्योरेंस, जीएसटी, भूमि अधिग्रहण और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े मसले निपटाए जाएंगे। पर दो बातों ने इस चक्के की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिए। एक तो सरकार घपलों-घोटालों की राजनीति में फँस गई और दूसरे पश्चिमी देश मंदी में आने लगे जिसके कारण पूँजी का विस्तार थमने लगा।

हमने उदारीकरण का मतलब घोटाले मान लिया, जबकि ये घोटाले समय से सुधार न हो पाने की देन थे। कई बार लगता है कि सरकार और पार्टी के बीच भी एक सतह पर असहमतियाँ हैं। पिछले साल प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के पहले तक सुधारों की गाड़ी डगमगा कर ही चल रही थी। पर उसके बाद बाद सोनिया गांधी ने साफ किया कि आर्थिक सुधारों का काम पूरा होगा। इस दिशा में पहला कदम था सिंगल ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का फैसला। यह फैसला एक साल पहले ही लागू होता, पर ममता बनर्जी के विरोध के कारण रुका पड़ा था। इसकी खातिर सरकार को द्रविड़ प्राणायाम करके सपा-बसपा को साथ लाना पड़ा।

Saturday, July 13, 2013

विपक्ष का ‘गेम चेंजर’ भी हो सकता है खाद्य सुरक्षा अध्यादेश

खाद्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा विधेयक और खाद्य सुरक्षा अध्यादेश एक सिक्के के तीन पहलू हैं। खाद्य सुरक्षा पर सिद्धांततः राष्ट्रीय सवार्नुमति है। किसी पार्टी में हिम्मत नहीं कि वह खुद को जन-विरोधी साबित करे।
भले ही अर्थशास्त्रीय दृष्टि कहती हो कि अंततः इसकी कीमत गरीब जनता को चुकानी होगी। पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर गहरी असहमतियाँ हैं। वामपंथी दल चाहते हैं कि खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए। सबके लिए समान। 
भाजपा बहस चाहती है। अध्यादेश के रास्ते इसे लागू करने का समर्थन किसी ने नहीं किया है। पर क्या विपक्ष इस अध्यादेश को रोकेगा? और रोका तो क्या कांग्रेस को इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा? और क्या विपक्ष इस मामले में कांग्रेस का पर्दाफाश कर पाएगा?
 दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक-कल्याण योजना क्या बगैर संसदीय विमर्श के लागू हो जाएगी? कांग्रेस क्या अर्दब में है या विपक्ष एक मास्टर स्ट्रोक में मारा गया?