Saturday, January 25, 2014

उदारीकरण और भ्रष्टाचार, कैसे लड़ेंगे राहुल?

कांग्रेस का नया पोस्टर है राहुल जी के नौ हथियार दूर करेंगे भ्रष्टाचार। इन पोस्टरों में नौ कानूनों के नाम हैं। इनमें से तीन पास हो चुके हैं और छह को संसद के अगले अधिवेशन में पास कराने की योजना है। यह पोस्टर कांग्रेस महासमिति में राहुल गांधी के भाषण से पहले ही तैयार हो गया था। राहुल का यह भाषण आने वाले लोकसभा चुनाव का प्रस्थान बिन्दु है। इसका मतलब है कि पार्टी ने कोर्स करेक्शन किया है। हाल में हुए विधानसभा के चुनावों तक राहुल मनरेगा, सूचना और शिक्षा के अधिकार, खाद्य सुरक्षा और कंडीशनल कैश ट्रांसफर को गेम चेंजर मानकर चल रहे थे। ग्राम प्रधान को वे अपने कार्यक्रमों की धुरी मान रहे थे। पर 8 दिसंबर को आए चुनाव परिणामों ने बताया कि शहरों और मध्य वर्ग की अनदेखी महंगी पड़ेगी।

सच यह है कि कोई पार्टी उदारीकरण को राजनीतिक प्रश्न बनाने की हिम्मत नहीं करती। विकास की बात करती है, पर इसकी कीमत कौन देगा यह नहीं बताती। राजनीतिक समझ यह भी है कि भ्रष्टाचार का रिश्ता उदारीकरण से है। क्या राहुल इस विचार को बदल सकेंगे? कॉरपोरेट सेक्टर नरेंद्र मोदी की ओर देख रहा है। दिल्ली में आप की सफलता ने साबित किया कि शहर, युवा, महिला, रोजगार, महंगाई और भ्रष्टाचार छोटे मुद्दे नहीं हैं। 17 जनवरी की बैठक में सोनिया गांधी ने अपनी सरकार की गलतियों को स्वीकार करते हुए मध्य वर्ग से नरमी की अपील की। और अब कांग्रेस के प्रवक्ता बदले गए हैं। ऐसे चेहरे सामने आए हैं जो आर्थिक उदारीकरण और भ्रष्टाचार विरोधी व्यवस्थाओं के बारे में ठीक से पार्टी का पक्ष रख सकें।


हाल में जयराम रमेश ने कहा कि हमने दो साल पहले लोकपाल विधेयक को पास कर दिया होता तो आम आदमी पार्टी बनी न होती। उनका आशय जो भी हो, पर अब राहुल गांधी भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा बनाना चाहते हैं। संयोग से वे जिन दिनों इस मुद्दे को उठा रहे हैं उन्हीं दिनों हरियाणा सरकार अशोक खेमका को कई तरह से घेरने की कोशिश कर रही है। खेमका का मामला चुनाव में भी मुद्दा बनकर उभरे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

कांग्रेस की बदली हुई समझ का संकेत 21 दिसम्बर को फिक्की की सभा में मिला जहाँ राहुल को उद्योगपतियों की नाराजगी से रूबरू होना पड़ा। उन्हें बताया गया कि केवल पर्यावरण के नाम पर ही तमाम उद्योगों का काम रुका पड़ा है। उसी रोज वन एवं पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन का इस्तीफा हुआ। पहले समझा गया कि यह इस्तीफा चुनाव की तैयारी के सिलसिले में है। पर बाद में चीजें ज्यादा स्पष्ट हुईं। फिक्की की सभा में राहुल ने कहा कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है जो लोगों का खून चूस रहा है। व्यापार जगत की चिंताओं का उत्तर देते हुए उन्होंने स्थिति में सुधार लाने के लिए मंजूरी देने में नियम आधारित व्यवस्था की वकालत की।


इसके एक हफ्ते बाद 27 दिसम्बर को राहुल गांधी ने पार्टी के शीर्ष नेताओं और कांग्रेस शासित 12 राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की। उन्होंने आदर्श हाउसिंग घोटाला मामले पर महाराष्ट्र सरकार की खिंचाई की और न्यायिक आयोग की रिपोर्ट को खारिज करने के फैसले से असहमति जताते हुए कहा कि इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। इस बैठक में फल और सब्जियां बेचने के लिए किसानों पर लगी पाबंदियों को हटाने की घोषणा भी की गई। यह भी तय किया गया कि कांग्रेस-शासित राज्य 28 फरवरी से पहले केंद्रीय कानून की तर्ज पर लोकायुक्त अधिनियम पास करेंगे। इन बातों के बावजूद आने वाले चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार के मामलों पर ही घेरा जाएगा। टूजी, कोयला खान, कॉमनवैल्थ गेम्स, ऑगस्टा हेलिकॉप्टर, आदर्श घोटाला और रॉबर्ट वाड्रा जैसे तमाम मामले इस चुनाव के दौरान उठेंगे।

राहुल के 17 जनवरी के आक्रामक वक्तव्य को इस पहलकदमी का हिस्सा मानना चाहिए। राहुल ने कांग्रेस सांसदों से कहा कि वे संसद में पड़े छह विधेयकों को अगले तीन महीने में पास करवाएं चाहे इसके लिए उन्हें लड़ना भी पड़े। इस बहाने उन्होंने विपक्ष पर प्रहार भी किए। उन्होंने कहा, आज मीडिया क़ानून बना रहा है, न्यायपालिका क़ानून बना रही है लेकिन जिन्हें क़ानून बनाने के लिए जनता ने चुना है वे इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं हैं। उन्हें इस प्रक्रिया में वापस लाना होगा। इसी मंच से राहुल ने प्रधानमंत्री से मांग की कि सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या नौ से बढ़ाकर 12 की जाए। एक साल पहले सिलेंडरों की संख्या 6 की गई, फिर दबाव में उन्हें 9 किया गया और अब 12 करने की माँग की गई। इससे उदारीकरण और पॉपुलिज़्म को लेकर उनके विरोधाभास पर भी रोशनी पड़ती है।

दिल्ली में कांग्रेस महासमिति और भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठकें साथ-साथ हुईं। भाजपा ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया और राहुल के भाषण का नरेंद्र मोदी ने फौरन जवाब दे दिया। पर यह मसला भाषणों से सुलझने वाला नहीं है। राहुल और मोदी दोनों का ध्यान मध्यवर्ग पर है। दोनों ऊँची विकास दर चाहते हैं, पर कैसे? कांग्रेस ने बैंकिग विधेयक, इंश्योरेंस, पेंशन और भूमि अधिग्रहण कानूनों को पास करा लिया। इसमें भाजपा ने उसका साथ दिया। पर रिटेल में विदेशी पूँजी के निवेश को लेकर दोनों में मतभेद हैं।

भारत में वैश्वीकरण की गाड़ी सन 1991 से चलनी शुरू हुई है। जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। पिछले तेईस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। पुरानी कतरनें खोजते हुए 16 मार्च 2004 को शोलापुर में लालकृष्ण आडवाणी के एक संवाददाता सम्मेलन की रपट हाथ लगी, जिसमें आडवाणी ने आर्थिक उदारीकरण की जबर्दस्त हिमायत की थी। उन्होंने कहा, यह मान लेना गलत है कि उदारीकरण के बाद समाज के पिछड़े वर्गों को बाजार की ताकतों का सहारा नहीं मिलेगा। 1998 से 2004 तक एनडीए सरकार ने उदारीकरण के रास्ते को न सिर्फ पूरी तरह मंजूर किया था, बल्कि इंडिया शाइनिंग का नारा दिया था। रिटेल में एफडीआई का श्रीगणेश बीजेपी ने ही किया है। उदारीकरण से जुड़े तमाम बड़े फैसले एनडीए सरकार ने किए।

विडंबना है कि जब बीजेपी फैसले करती है तब कांग्रेस उसका विरोध करती है और जब कांग्रेस फैसले करती है तो बीजेपी उसका विरोध करती है। आज भी जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कोड के कानून पास नहीं हो पाए हैं। इन्हीं वजहों से सबसे पहले प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने पॉलिसी पैरेलिसिस शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि सन 2014 के पहले उदारीकरण का पहिया आगे नहीं बढ़ पाएगा। सिर्फ पोस्टरों से आर्थिक विकास नहीं होगा और न भ्रष्टाचार रुकेगा। वास्तविक उदारीकरण व्यवस्था को पारदर्शी बनाने से आएगा।  


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