Monday, June 27, 2022

महाराष्ट्र-घमासान से जुड़े राजनीतिक-अंतर्विरोध

संविधान सभा में डॉ भीमराव आम्बेडकर ने एकबार कहा था-राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता। महाराष्ट्र का घमासान हमारे राजनीतिक-अंतर्विरोधों को रेखांकित कर रहा है। यह टकराव विधानसभा सचिवालय और राजभवन तक पहुँच चुका है। इसक निपटारा फ्लोर-टेस्ट से सम्भव है, जो न्यायपालिका की देन है। पर वह आसानी से नहीं होगा। अभी मानसिक युद्ध चल रहा है। इसके बाद राज्यपाल और सदन के डिप्टी स्पीकर की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होंगी। इस मामले को अदालत में ले जाने की शुरुआत भी हो गई है। एकनाथ शिंदे के पक्ष ने विधानसभा के उपाध्यक्ष के फैसले को चुनौती दी है।  

फैसला जो भी हो, इस परिघटना ने राजनीति की विडंबनाओं को रेखांकित किया है। उद्धव ठाकरे सरकार के मंत्री एकनाथ शिंदे बागी विधायकों के साथ असम के एक पाँच सितारा होटल में डेरा डाले हुए हैं। मामला जिस करवट भी बैठे, पर सच यह है कि मुख्यधारा के मीडिया की नजर असम की पीड़ित जनता पर कम और राजनीति पर ज्यादा है।  

बेशक इन विडंबनाओं के अनेक पहलू हैं, पर 2014 के बाद की राष्ट्रीय राजनीति के दो कारक इसके जिम्मेदार हैं। एक, भारतीय जनता पार्टी का अतिशय सत्ता-प्रेम और दूसरे, उसे रोक पाने या संतुलित करने में विरोधी दलों की विफलता। इस समय सत्ता-समीकरण बेहद असंतुलित है। इसका एक कारण कांग्रेस पार्टी का पराभव है। पर यह कुल मिलाकर यह राष्ट्रीय राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता है।

पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र भी कसौटी पर है। हैरत है कि महाराष्ट्र के बागियों को गठबंधन के ढाई साल बाद विचारधारा से जुड़ी बातें याद आ रही हैं। दूसरी तरफ शिवसेना के नेतृत्व और उसके विधायकों का ढाई साल लम्बा अबोला भी अविश्वसनीय है। यह कैसा लोकतंत्र है? इस राजनीतिक-व्यवस्था में राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की भूमिका है और चुनाव सुधारों को लागू करा पाने से जुड़ी विफलताएं हैं। राजनीति में एक तरफ मनी और मसल पावरकी भूमिका बढ़ रही है और दूसरी तरफ धार्मिक-साम्प्रदायिक संकीर्णता विचारधारा का स्थान ले रही है।

ऐसा नहीं है कि बीजेपी के आधार-विस्तार को चुनौती नहीं मिली है। पिछले आठ वर्षों में कम से कम पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व ने भारतीय जनता पार्टी की विस्तार-कामना को सफल चुनौती दी। इतना ही नहीं 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को भी महत्वपूर्ण मसला बनाया। इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें कही गईं थीं। पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी माँग दूसरे दलों ने नहीं की। 2016 की नोटबंदी को चुनौती देने सबसे पहले ममता बनर्जी ही दिल्ली गईं थीं। बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चेबंदी का प्रयास भी उनकी तरफ से हो रहा है।  

दूसरी तरफ बीजेपी ने जहाँ भी मौका लगा येन-केन प्रकारेण अपने आधार का विस्तार किया है। यह विस्तार पारदर्शी और नैतिक तरीके से हो तो आपत्ति नहीं, पर ज्यादातर मामलों में तोड़फोड़ या बैकरूम राजनीति का सहारा लिया गया। महाराष्ट्र में इस समय जो हो रहा है, उसके पीछे भी बीजेपी का हाथ है। बागी विधायकों का सूरत और असम में डेरा डालना इस बात की पुष्टि कर रहा है। यों आज की राजनीति में विधायकों को होटलों या रिज़ॉर्टों में रखना आम बात हो गई है, पर ऐसे मौके पर और ऐसे राज्य में जब लोग आपदा से घिरे हैं, यह क्रूर लगता है।

राष्ट्रीय राजनीति में महाराष्ट्र की बड़ी भूमिका है। लोकसभा-सदस्यों की दृष्टि से उत्तर प्रदेश के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। यहाँ भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का गठबंधन नब्बे के दशक में ही बन गया था। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार में केवल शिवसेना ही शामिल थी। पर तब महाराष्ट्र में बीजेपी उसकी अनुगामिनी थी। दोनों के आंतरिक-टकराव की पृष्ठभूमि सन 2009 में तैयार हुई, जब विधानसभा चुनाव में बीजेपी को शिवसेना से ज्यादा सीटें मिलीं। सन 2014 में शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा, पर बीजेपी की ताकत और बढ़ गई। उस समय विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी को ‘फ्लोर टेस्ट’ पार करने में राकांपा ने मदद की थी, जो आज महाविकास अघाड़ी की सूत्रधार पार्टी है।  

फ्लोर टेस्ट के बाद घबराकर शिवसेना ने सरकार में शामिल होना स्वीकार कियापर उसके अलग होने की भूमिका तैयार होने लगी। चुनाव के बाद बनी सरकार में शिवसेना को महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं दिए गए। उनके मंत्रियों की फाइलों को लेकर सवाल किए गए। बीजेपी नेताओं ने ‘मातोश्री’ जाकर राय-मशविरा बंद कर दिया।

शायद यह सब सोच-समझकर हुआ। 2019 में दोनों पार्टियों ने चुनाव-पूर्व गठबंधन किया, पर चुनाव परिणाम आने के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद हो गया। ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री पद की शर्त भी भाजपा ने नहीं मानी। इस विवाद के पीछे बीजेपी के आधार विस्तार का भय है। महाराष्ट्र ही नहीं दूसरे राज्यों में भी सहयोगी दलों के साथ उसकी कड़वाहट भी बढ़ रही है। मसलन बिहार।   

हाल के घटनाक्रम पर एक नजर डालें। 2016 में अरुणाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई, लेकिन पार्टी के अंदर विवाद हो गया। इसके बाद कांग्रेस के 42 विधायकों ने बागी रूख अख्तियार कर लिया। इन सभी ने पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल बना ली और भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई। बाद में इस ग्रुप का भाजपा में विलय हो गया। 2017 में गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में सरकार बनाने लायक सीटें नहीं जीत पाने के बावजूद बीजेपी की सरकारें बनीं। कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी छोड़ी और छोटे दलों ने सहयोग दिया।

2018 में कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला। शुरुआती जद्दोजहद के बाद जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई। पर एक साल बाद यह सरकार गिर गई। दोनों पार्टियों के कई विधायकों ने इस्तीफे दे दिए और अंततः भाजपा की सरकार बनी। फिर 2020 में करीब-करीब ऐसी ही कहानी मध्य प्रदेश में दोहराई गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके सहयोगियों ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और फिर वहाँ बीजेपी की सरकार आ गई। उत्तराखंड और राजस्थान में भी कोशिशें हुईं, पर वे सफल नहीं हुईं। बहरहाल महाराष्ट्र के इस घटनाक्रम का असर राष्ट्रीय राजनीति पर और 2024 के लोकसभा चुनावों पर पड़ने वाला है, इसलिए इसके परिणामों पर नजरें रखनी होंगी। पर ज्यादा दिलचस्पी इस बात में है कि महाराष्ट्र के संकट का हल किस तरह निकलता है।

कोलकाता से शुरू हुए दैनिक वर्तमान के सम्पादकीय पेज पर पहले दिन का पहला आलेख

 

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-06-2022) को चर्चा मंच     "सियासत में शरारत है"   (चर्चा अंक-4475)     पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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  2. वर्तमान व्यवस्था पर कड़ा प्रहार

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  3. सटीक प्रहार!
    यहां बस खोट ही खोट है, राजनीति जिम्मेदारी बस कल्पना की बात हैं।
    सामायिक आधार पर सटीक लेख।

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