ईरान और चीन एक लम्बा सहयोग समझौता करने जा रहे हैं, जिससे वैश्विक समीकरण बदल जाने की संभावना है। चीन और ईरान की योजना के बरक्स यदि यूरोपीय देश निकट या सुदूर भविष्य में अमेरिकी प्रभा-मंडल से बाहर निकल गए, तो दुनिया की सूरत बदल जाएगी। साथ ही पश्चिम एशिया में चीन एक जबर्दस्त ताकत बनकर उभरेगा। ईरान को सऊदी अरब के वर्चस्व को समाप्त करने का मौका मिलेगा। पर ये सब संभावनाएं हैं और इस किस्म की हरेक अटकल के साथ उसके अंतर्विरोध भी जुड़े हैं। यह दो समान वजन वाली ताकतों का समझौता नहीं है। चीन विचारधारा से प्रेरित मूल्यबद्ध देश नहीं है। उसके पीछे अपनी महानता की जुनूनी मनोकामना है।
इलाके में ईरान अकेला ऐसा महत्वपूर्ण देश है, जो अमेरिका के खिलाफ खुलकर खड़ा हो सकता है। ऐसे देश की चीन को जरूरत है। चीन और ईरान दोनों को इस साल डोनाल्ड ट्रंप की पराजय का इंतजार भी है। जो बायडन का संभावित नया निजाम शायद ईरान को भटकने से रोके। ईरान के भीतर एक तत्व ऐसा भी है, जो चीन के दुर्धर्ष ‘आर्थिक अश्वमेध’ को समझता है। समझौते के दायरे में आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक हर तरह का सहयोग शामिल होगा और यह कम से कम 25 साल के लिए किया जाएगा। अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह खबर इसी अंदाज में लिखी है कि यह समझौता हो गया है। सबूत के तौर पर एक दस्तावेज भी प्रकाशित किया गया है, जो समझौते का प्रारूप है।
भारतीय मीडिया में यह खबर आई ही थी कि उसके अगले रोज एक और खबर आई, जो हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार ईरान ने चाबहार रेल परियोजना से भारत को अलग कर दिया है। भारत के नज़रिए से यह खबर ज्यादा महत्वपूर्ण है। अमेरिका और चीन के क्रॉस-फायर में भारत और ईरान के रिश्तों को चोट लगेगी। हमारे ईरान के साथ पारम्परिक रिश्ते हैं। सन 1994 में जब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के सालाना सम्मेलन में कश्मीर को लेकर भारत दबाव में आ गया था, ईरान ने हमारी मदद की थी। कारोबारी रिश्ते भी अच्छे रहे हैं। चाबहार के अलावा एशिया को यूरोप से जोड़ने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर का साझीदार भी भारत है। अफगानिस्तान को ईरान के रास्ते समुद्र मार्ग उपलब्ध कराने वाली परियोजना में भी हम शामिल हैं।
ट्रंप ने धकेला चीन की ओर
सत्तर के दशक में ईरानी क्रांतिकारियों का प्रसिद्ध नारा था, ‘न पश्चिम और न पूरब।’ यानी हम न तो अमेरिका के साथ हैं और न रूस के साथ। हालांकि आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई क्रांति के बाद ईरान के रिश्ते अमेरिका के साथ खराब ही हुए थे, पर उन्होंने रूस का पल्ला भी नहीं थामा। अब लगता है कि ईरान हित-रक्षा के लिए चीन के साथ जाएगा।
जो जानकारियाँ सामने आई हैं, उनके अनुसार चीन को सस्ता ईरानी तेल मिलेगा जिसके बदले में अगले 25 वर्ष में वह ईरान में दर्जनों औद्योगिक परियोजनाओं पर करीब 400 अरब डॉलर का निवेश करेगा। इनमें हवाई अड्डों और रेल लाइनों का निर्माण शामिल है। बदले में चीन को ईरानी बंदरगाहों पर छूट और सुविधाएं मिलेंगी। मुक्त व्यापार क्षेत्रों में काम करने की सुविधाएं। इतना ही महत्वपूर्ण रक्षा से जुड़ा समझौता है, जिसके तहत दोनों देश न केवल शस्त्रास्त्र के निर्माण में सहयोग करेंगे, बल्कि जरूरत पड़ने पर ज्यादा बड़े स्तर पर सैनिक सहयोग करेंगे।
चीन ने अदन की खाड़ी के देश जिबूती में अपना पहला सैनिक अड्डा बनाया है। संभावना इस बात की है कि उसे ईरान में सैनिक सुविधाएं भी हासिल हो जाएंगी। अमेरिका में माना जा रहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने सन 2015 के नाभिकीय समझौते से हाथ खींचकर ईरान को चीनी पाले में धकेल दिया है। फिर भी लगता नहीं कि यह समझौता किसी ताजा घटना का परिणाम है। ईरान और चीन के बीच 2016 से इसे लेकर बातचीत चल रही थी।
सऊदी वर्चस्व को चुनौती
ईरानी समाचार एजेंसी के तसनीम के अनुसार, समझौते के अनुच्छेद-6 में ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग और तकनीक के क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने का उल्लेख है। ईरान के तेल और गैस उद्योग में चीन 280 अरब डॉलर का और उत्पादन तथा परिवहन के आधारभूत ढांचे के विकास के लिए भी 120 अरब डॉलर का निवेश करेगा। 5-जी तकनीक के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में भी मदद करेगा।
बैंकिंग, टेलीकम्युनिकेशन, बंदरगाह, रेलवे और दर्जनों अन्य ईरानी परियोजनाओं में चीन बड़े पैमाने पर भागीदारी बढ़ाएगा। दोनों देश साझा सैन्य अभ्यास और शोध करेंगे। मिलकर हथियार बनाएंगे और ख़ुफ़िया जानकारियां भी साझा करेंगे। ईरान के पास प्राकृतिक गैसों का भंडार है। खनिज तेल के मामले में भी वह सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर है। चीन ने ईरान को विकल्प के तौर पर पेश करके सऊदी एकाधिकार को चुनौती दी है।
चीन के बढ़ते आर्थिक प्रभाव के कारण यूरोप के देश चीन के सामने खड़े होने से कतराने लगे हैं। क्या वे अमेरिका का साथ छोड़ेंगे? क्या अमेरिका चीन के साथ पंगा ले पाएगा? इस साल के चुनाव में ट्रंप की पराजय हुई, तो जो बायडन की चीन के बरक्स नीति क्या होगी? आमतौर पर बातचीत में वे कहते रहे हैं कि मैं चीन के साथ बातचीत में ट्रंप के मुकाबले ज्यादा कड़ा रुख अख्तियार करूँगा। अलबत्ता वे ईरान के साथ 2015 के नाभिकीय समझौते पर वापस जाना चाहेंगे।
भारत पर असर
भारत और ईरान के रिश्ते गहरे और दीर्घकालीन हैं। मोटे तौर पर ईरान में भारत कम से कम चार बड़ी परियोजनाओं में भागीदार है। चाबहार बंदरगाह और चाबहार से ज़ाहेदान तक रेल लाइन बिछाने का काम, फारस की खाड़ी के फरज़ाद बी क्षेत्र में तेल और गैस की खोज और उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर। इसके तहत भारत से लेकर यूरोप तक जाने वाले एक मार्ग का विकास होना है, जो मध्य एशिया से होकर गुजरेगा। फिलहाल इन चारों पर विराम लगेगा, क्योंकि ईरान पर लगी अमेरिकी पाबंदियों के कारण काम कराना संभव ही नहीं है। ज्यादातर सामग्री और सेवाएं यूरोप और अमेरिका से आती हैं, जो पाबंदियों के कारण उपलब्ध नहीं हैं।
भारत और ईरान के रिश्तों में खलिश नहीं, तो ठंडापन जरूर पैदा होगा। भारत ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान को कराची के विकल्प में बंदरगाह की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करने में भारत ने भूमिका निभाई। पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से भारतीय माल को अफगानिस्तान भेजने की अनुमति नहीं दी। इसके विकल्प में भारत ने चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार किया। भारत के सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है। ईरान में चीन के प्रवेश से भारतीय हितों को चोट लगेगी, जिसका फायदा पाकिस्तानी डिप्लोमेसी को मिलेगा।
गत 7 जुलाई को ईरान के बंदरगाह चाबहार से लेकर अफगानिस्तान की सीमा से लगे ज़ाहेदान तक रेल लाइन बिछाने की परियोजना के उद्घाटन के साथ भारत इस परियोजना से फिलहाल बाहर हो गया है। ईरान और भारत के बीच चार साल पहले चाबहार से अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर ज़ाहेदान तक रेल लाइन बिछाने को लेकर समझौता हुआ था। यह काम भारत की संस्था इरकॉन को करना था, पर अब ईरान ने अपने संसाधनों से 40 करोड़ डॉलर की व्यवस्था करके खुद यह काम शुरू कर दिया है।
ईरान ने ऐसा नहीं कहा है कि भारत को इस परियोजना से अलग कर दिया गया है, बल्कि कहा यह है कि भारत के लिए भविष्य में भागीदारी का रास्ता खुला है। भारतीय डिप्लोमेसी की विशेषता है कि हम अंतर्विरोधों के बीच से जगह निकाल लेते हैं। ईरान और सऊदी अरब दोनों के साथ हमारे रिश्ते अच्छे हैं। भविष्य में क्या होगा, इसका इंतजार करें।
भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात थी। भारत ने अफगानिस्तान को इस रास्ते से गेहूँ भेजकर इसकी शुरुआत भी की थी। इस कॉरिडोर का लाभ हमें फिर भी मिलेगा, क्योंकि इसे भारत तैयार करे या ईरान की कोई कंपनी इससे फर्क नहीं पड़ता। इस प्रोजेक्ट को उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़कर देखा जा रहा है, जिसमें रूस समेत मध्य एशिया के अनेक देश शामिल हैं।
नवजीवन में प्रकाशित
इलाके में ईरान अकेला ऐसा महत्वपूर्ण देश है, जो अमेरिका के खिलाफ खुलकर खड़ा हो सकता है। ऐसे देश की चीन को जरूरत है। चीन और ईरान दोनों को इस साल डोनाल्ड ट्रंप की पराजय का इंतजार भी है। जो बायडन का संभावित नया निजाम शायद ईरान को भटकने से रोके। ईरान के भीतर एक तत्व ऐसा भी है, जो चीन के दुर्धर्ष ‘आर्थिक अश्वमेध’ को समझता है। समझौते के दायरे में आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक हर तरह का सहयोग शामिल होगा और यह कम से कम 25 साल के लिए किया जाएगा। अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह खबर इसी अंदाज में लिखी है कि यह समझौता हो गया है। सबूत के तौर पर एक दस्तावेज भी प्रकाशित किया गया है, जो समझौते का प्रारूप है।
भारतीय मीडिया में यह खबर आई ही थी कि उसके अगले रोज एक और खबर आई, जो हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार ईरान ने चाबहार रेल परियोजना से भारत को अलग कर दिया है। भारत के नज़रिए से यह खबर ज्यादा महत्वपूर्ण है। अमेरिका और चीन के क्रॉस-फायर में भारत और ईरान के रिश्तों को चोट लगेगी। हमारे ईरान के साथ पारम्परिक रिश्ते हैं। सन 1994 में जब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के सालाना सम्मेलन में कश्मीर को लेकर भारत दबाव में आ गया था, ईरान ने हमारी मदद की थी। कारोबारी रिश्ते भी अच्छे रहे हैं। चाबहार के अलावा एशिया को यूरोप से जोड़ने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर का साझीदार भी भारत है। अफगानिस्तान को ईरान के रास्ते समुद्र मार्ग उपलब्ध कराने वाली परियोजना में भी हम शामिल हैं।
ट्रंप ने धकेला चीन की ओर
सत्तर के दशक में ईरानी क्रांतिकारियों का प्रसिद्ध नारा था, ‘न पश्चिम और न पूरब।’ यानी हम न तो अमेरिका के साथ हैं और न रूस के साथ। हालांकि आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई क्रांति के बाद ईरान के रिश्ते अमेरिका के साथ खराब ही हुए थे, पर उन्होंने रूस का पल्ला भी नहीं थामा। अब लगता है कि ईरान हित-रक्षा के लिए चीन के साथ जाएगा।
जो जानकारियाँ सामने आई हैं, उनके अनुसार चीन को सस्ता ईरानी तेल मिलेगा जिसके बदले में अगले 25 वर्ष में वह ईरान में दर्जनों औद्योगिक परियोजनाओं पर करीब 400 अरब डॉलर का निवेश करेगा। इनमें हवाई अड्डों और रेल लाइनों का निर्माण शामिल है। बदले में चीन को ईरानी बंदरगाहों पर छूट और सुविधाएं मिलेंगी। मुक्त व्यापार क्षेत्रों में काम करने की सुविधाएं। इतना ही महत्वपूर्ण रक्षा से जुड़ा समझौता है, जिसके तहत दोनों देश न केवल शस्त्रास्त्र के निर्माण में सहयोग करेंगे, बल्कि जरूरत पड़ने पर ज्यादा बड़े स्तर पर सैनिक सहयोग करेंगे।
चीन ने अदन की खाड़ी के देश जिबूती में अपना पहला सैनिक अड्डा बनाया है। संभावना इस बात की है कि उसे ईरान में सैनिक सुविधाएं भी हासिल हो जाएंगी। अमेरिका में माना जा रहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने सन 2015 के नाभिकीय समझौते से हाथ खींचकर ईरान को चीनी पाले में धकेल दिया है। फिर भी लगता नहीं कि यह समझौता किसी ताजा घटना का परिणाम है। ईरान और चीन के बीच 2016 से इसे लेकर बातचीत चल रही थी।
सऊदी वर्चस्व को चुनौती
ईरानी समाचार एजेंसी के तसनीम के अनुसार, समझौते के अनुच्छेद-6 में ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग और तकनीक के क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने का उल्लेख है। ईरान के तेल और गैस उद्योग में चीन 280 अरब डॉलर का और उत्पादन तथा परिवहन के आधारभूत ढांचे के विकास के लिए भी 120 अरब डॉलर का निवेश करेगा। 5-जी तकनीक के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में भी मदद करेगा।
बैंकिंग, टेलीकम्युनिकेशन, बंदरगाह, रेलवे और दर्जनों अन्य ईरानी परियोजनाओं में चीन बड़े पैमाने पर भागीदारी बढ़ाएगा। दोनों देश साझा सैन्य अभ्यास और शोध करेंगे। मिलकर हथियार बनाएंगे और ख़ुफ़िया जानकारियां भी साझा करेंगे। ईरान के पास प्राकृतिक गैसों का भंडार है। खनिज तेल के मामले में भी वह सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर है। चीन ने ईरान को विकल्प के तौर पर पेश करके सऊदी एकाधिकार को चुनौती दी है।
चीन के बढ़ते आर्थिक प्रभाव के कारण यूरोप के देश चीन के सामने खड़े होने से कतराने लगे हैं। क्या वे अमेरिका का साथ छोड़ेंगे? क्या अमेरिका चीन के साथ पंगा ले पाएगा? इस साल के चुनाव में ट्रंप की पराजय हुई, तो जो बायडन की चीन के बरक्स नीति क्या होगी? आमतौर पर बातचीत में वे कहते रहे हैं कि मैं चीन के साथ बातचीत में ट्रंप के मुकाबले ज्यादा कड़ा रुख अख्तियार करूँगा। अलबत्ता वे ईरान के साथ 2015 के नाभिकीय समझौते पर वापस जाना चाहेंगे।
भारत पर असर
भारत और ईरान के रिश्ते गहरे और दीर्घकालीन हैं। मोटे तौर पर ईरान में भारत कम से कम चार बड़ी परियोजनाओं में भागीदार है। चाबहार बंदरगाह और चाबहार से ज़ाहेदान तक रेल लाइन बिछाने का काम, फारस की खाड़ी के फरज़ाद बी क्षेत्र में तेल और गैस की खोज और उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर। इसके तहत भारत से लेकर यूरोप तक जाने वाले एक मार्ग का विकास होना है, जो मध्य एशिया से होकर गुजरेगा। फिलहाल इन चारों पर विराम लगेगा, क्योंकि ईरान पर लगी अमेरिकी पाबंदियों के कारण काम कराना संभव ही नहीं है। ज्यादातर सामग्री और सेवाएं यूरोप और अमेरिका से आती हैं, जो पाबंदियों के कारण उपलब्ध नहीं हैं।
भारत और ईरान के रिश्तों में खलिश नहीं, तो ठंडापन जरूर पैदा होगा। भारत ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान को कराची के विकल्प में बंदरगाह की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करने में भारत ने भूमिका निभाई। पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से भारतीय माल को अफगानिस्तान भेजने की अनुमति नहीं दी। इसके विकल्प में भारत ने चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार किया। भारत के सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है। ईरान में चीन के प्रवेश से भारतीय हितों को चोट लगेगी, जिसका फायदा पाकिस्तानी डिप्लोमेसी को मिलेगा।
गत 7 जुलाई को ईरान के बंदरगाह चाबहार से लेकर अफगानिस्तान की सीमा से लगे ज़ाहेदान तक रेल लाइन बिछाने की परियोजना के उद्घाटन के साथ भारत इस परियोजना से फिलहाल बाहर हो गया है। ईरान और भारत के बीच चार साल पहले चाबहार से अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर ज़ाहेदान तक रेल लाइन बिछाने को लेकर समझौता हुआ था। यह काम भारत की संस्था इरकॉन को करना था, पर अब ईरान ने अपने संसाधनों से 40 करोड़ डॉलर की व्यवस्था करके खुद यह काम शुरू कर दिया है।
ईरान ने ऐसा नहीं कहा है कि भारत को इस परियोजना से अलग कर दिया गया है, बल्कि कहा यह है कि भारत के लिए भविष्य में भागीदारी का रास्ता खुला है। भारतीय डिप्लोमेसी की विशेषता है कि हम अंतर्विरोधों के बीच से जगह निकाल लेते हैं। ईरान और सऊदी अरब दोनों के साथ हमारे रिश्ते अच्छे हैं। भविष्य में क्या होगा, इसका इंतजार करें।
भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात थी। भारत ने अफगानिस्तान को इस रास्ते से गेहूँ भेजकर इसकी शुरुआत भी की थी। इस कॉरिडोर का लाभ हमें फिर भी मिलेगा, क्योंकि इसे भारत तैयार करे या ईरान की कोई कंपनी इससे फर्क नहीं पड़ता। इस प्रोजेक्ट को उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़कर देखा जा रहा है, जिसमें रूस समेत मध्य एशिया के अनेक देश शामिल हैं।
नवजीवन में प्रकाशित
सटीक आँकलन।
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