Tuesday, May 12, 2020

बदलता पेट्रो-डॉलर परिदृश्य


पिछले महीने सोमवार 20 अप्रेल को अमेरिकी बेंचमार्क क्रूड वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (डब्ल्यूटीआई) में खनिज तेल की कीमतें -40.32 डॉलर के नकारात्मक स्तर पर पहुँच गईं। कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय वायदा बाजार में यह अजब घटना थी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि कोरोना वायरस के कारण अमेरिका सहित बड़ी संख्या में देशों में लॉकडाउन है। तेल की माँग लगातार घटती जा रही है। दूसरी तरफ उत्पादन जारी रहने के कारण भविष्य के खरीद सौदे शून्य होने के बाद नकारात्मक स्थिति आ गई। हालांकि यह स्थिति बाद में सुधर गई, फिर भी पेट्रोलियम के भावी कारोबार को लेकर उम्मीदें टूटने लगी हैं। उधर ओपेक देशों और रूस ने येन-केन प्रकारेण अपने उत्पादन को कम करने का फैसला करके भावी कीमतों को और गिरने से रोकने की कोशिश जरूर की है, पर इस कारोबार की तबाही के लक्षण नजर आने लगे हैं। सब जानते हैं कि एक दिन पेट्रोलियम का वर्चस्व खत्म होगा, पर क्या वह समय इतनी जल्दी आ गया है? क्या कोरोना ने उसकी शुरुआत कर दी है?  

कोरोना वायरस ने मनुष्य जाति के अस्तित्व को चुनौती देने का काम किया है।  आधुनिक विज्ञान और तकनीक को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उसने एकदम नए किस्म की इस बीमारी की पहचान करने और उसके इलाज के रास्ते खोजने की दिशा में तेजी से काम शुरू कर दिया है। इसकी पहचान करने वाले किट, रोकने वाली वैक्सीन और इलाज करने वाली दवाएं विकसित करने का काम तेजी से चल निकला है। करीब साढ़े तीन महीने पुरानी इस बीमारी को रोकने वाली वैक्सीन की पाँच-छह किस्मों का मनुष्यों पर परीक्षण चल रहा है। आशा है कि अगले एक वर्ष में इसपर पूरी तरह विजय पाई जा सकेगी, पर यह बीमारी विश्व-व्यवस्था के सामने कुछ सवाल लेकर आई है।

नई विश्व व्यवस्था
ये सवाल कम से कम तीन वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं। पहला सवाल पेट्रोलियम से ही जुड़ा है। क्या ऊर्जा के परम्परागत स्रोतों का युग समाप्त होने जा रहा है? विश्व-व्यवस्था और शक्ति-संतुलन में पेट्रोलियम की महत्वपूर्ण भूमिका है। पेट्रोलियम की भूमिका समाप्त होगी, तो उससे जुड़ी शक्ति-श्रृंखलाएं भी कमजोर होंगी। उनका स्थान कोई और व्यवस्था लेगी। हम मोटे तौर पर पेट्रो डॉलर कहते हैं, वह ध्वस्त होगा तो उसका स्थान कौन लेगा?  यह परिवर्तन नई वैश्विक-व्यवस्था को जन्म देगा। क्या पूँजीवाद और समाजवाद जैसे सवालों का भी अंत होगा?  क्या अमेरिका का महाशक्ति रूप ध्वस्त हो जाएगा? क्या भारत का महाशक्ति के रूप में उदय होगा? कोरोना से लड़ाई में राज्य को सामने आना पड़ा। क्या बाजार का अंत होगा? नब्बे के दशक से वैश्वीकरण को जो लहर चली थी, उसका क्या होगा? उत्पादन, व्यापार और पूँजी निवेश तथा बौद्धिक सम्पदा से जुड़े प्रश्नों को अब दुनिया किन निगाहों से देखेगी? इनके साथ ही वैश्विक-सुरक्षा के सवाल भी जुड़े हैं। वैश्विक-सुरक्षा की परिभाषा में जलवायु परिवर्तन और संक्रामक बीमारियाँ भी शामिल होने जा रही हैं, जो राजनीतिक सीमाओं की परवाह नहीं करती हैं। 

इस आलेख का प्रस्थान-बिन्दु पेट्रो डॉलर है। दूसरे प्रश्नों तक जाने के लिए अलग से अध्ययन करने की जरूरत होगी। फिलहाल पेट्रोलियम बाजार में लगी आग का रुख करें। पेट्रोलियम की माँग अचानक कम होने के पीछे कोरोना का हाथ है। चूंकि खनिज तेल की आपूर्ति सहज भाव से जारी थी, इसलिए यह संकट पैदा हुआ। तेल का उपभोग कम हो गया और नए आते क्रूड के भंडारण के लिए जगह नहीं बची। जमीन पर बने भंडारों, टैंकों और समुद्र में खड़े टैंकरों में लबालब भर जाने के बाद भी तेल आता जा रहा है, जिससे उसकी कीमत गिरती चली गई। पेट्रोलियम का उत्पादन जब शुरू होता है, तो उसे रोका नहीं जा सकता। कम जरूर किया जा सकता है, पर उसका न्यूनतम उत्पादन भी दुनिया के भंडारों को भरने के लिए काफी होता है।

औद्योगिक विकास के कारण दुनिया में ऊर्जा का भारी इस्तेमाल हो रहा है। इस औद्योगिक मशीनरी को चलाए रखने की मजबूरी भी है। वायदा बाजार में भविष्य के सौदे होते हैं। औद्योगिक योजनाओं के अनुसार भविष्य की खरीदारी भी चलती रहती है। खरीदार और विक्रेता भविष्य की सम्भावित कीमतों पर समझौते करते हैं। वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (डब्ल्यूटीआई) में एक सीमा के बाद मई के सौदे बट्टे खाते में चले गए। खरीदारों ने हथियार डाल दिए। इसके बाद के सौदों पर और बड़ा खतरा है।

पेट्रोलियम की कीमत
सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री प्रिंस अब्दुल अज़ीज़ बिन सलमान ने गत 13 अप्रेल को कहा कि काफी विचार-विमर्श के बाद तेल उत्पादन और उपभोग करने वाले देशों ने प्रति दिन करीब 97 लाख बैरल प्रतिदिन की तेल आपूर्ति कम करने का फैसला किया है। इस फैसले के बाद हालांकि ब्रेंट क्रूड बाजार में तेल की गिरती कीमतें कुछ देर के लिए सुधरीं, पर वैश्विक स्तर पर असमंजस कायम है। दो हफ्ते पहले ये कीमतें 22 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे पहुँच गई थीं। इस गिरावट को रूस ने अपना उत्पादन और बढ़ाकर तेजी दी। इस प्रतियोगिता से तेल बाजार में वस्तुतः आग लग गई। इस वक्त जो कीमतें हैं, उन्हें देखते हुए  इस उद्योग की तबाही निश्चित है। इस खेल में वेनेजुएला जैसे देश तबाह हो चुके हैं, जो पेट्रोलियम-सम्पदा के लिहाज से खासे समृद्ध थे।

पेट्रोलियम-बाजार के इस महाविनाश की सारी तोहमत कोरोना पर लगाना भी अनुचित होगा। क्रूड की कीमतों का झगड़ा पहले से चल रहा है। इसकी शुरुआत सऊदी अरब और रूस के टकराव से हुई। सऊदी अरब तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक का अलम्बरदार है। जब कोरोना वायरस के कारण माँग कम हुई, तो सऊदी अरब ने रूस से कहा कि आप भी अपना उत्पादन कम कर दें, ताकि कीमतें गिरने न पाएं। रूस ने शुरू में इनकार कर दिया, पर बाद में वह मान गया, काफी चख-चख के बाद।

जी-20 देशों के पेट्रोलियम मंत्रियों की हाल में हुई टेली कांफ्रेंस में उत्पादन घटाने के प्रस्ताव पर उत्पादक देशों के बीच खूब खींचतान हुई और 11 अप्रेल को जारी विज्ञप्ति कटौती की बात पर मौन थी। हालांकि ओपेक और रूस समेत दूसरे देशों के बीच, जिन्हें ओपेक+ कहा जाता है, एक दिन पहले समझौता हुआ था कि मई और जून में दैनिक तेल उत्पादन घटाया जाएगा। सऊदी अरब और रूस के बीच बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने की होड़ के बीच तेल का भाव करीब दो दशक के न्यूनतम स्तर पर आ गया है। अब सब मान रहे हैं कि यदि तेल की कीमतें 20 डॉलर के स्तर पर रहीं, तो इस उद्योग की तबाही निश्चित है।

इस तेल-संग्राम में फिलहाल अमेरिका ने सऊदी अरब और रूस के बीच समझौते की कोशिश की, क्योंकि इसमें उसका भी भला है, पर दूरगामी लड़ाई में रूस दूसरे पाले पर बैठा है। ओपेक और रूस ने 97 लाख बैरल प्रतिदिन खनिज तेल उत्पादन कम करने का फैसला किया है। पर यह फौरी युद्ध विराम है। यों भी इतनी कटौती से काम नहीं चलने वाला है। कोरोना ने तेल की माँग इतनी कम कर दी है कि बाजार का दिवाला निकला जा रहा है। ओपेक और रूस के बीच दिसम्बर 2018 में उत्पादन में कटौती करने का समझौता हुआ था। वह समझौता चलता रहा।

इधर कीमतों में गिरावट को देखते हुए गत 5 मार्च को वियना में हुए ओपेक शिखर सम्मेलन में उत्पादन में 15 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती करने का फैसला किया गया। अपने समझौते के तहत ओपेक ने रूस से भी आग्रह किया कि वह अपना उत्पादन घटाए, पर 6 मार्च को रूस ने इस सुझाव को मानने से इंकार कर दिया। इस तरह ओपेक+ समझौता करीब-करीब टूट गया। रूस के इस रुख को देखते हुए 8 मार्च को सऊदी अरब ने भी अपने क्रूड का उत्पादन बढ़ाकर कीमतों में 65 फीसदी की कमी करने की घोषणा की। इसकी प्रतिक्रिया में अमेरिकी कीमतें भी गिरीं। अब अमेरिका की इच्छा जागी कि ओपेक और रूस के रिश्ते टूटने न पाएं। ऐसे दौर में जब रूस और ईरान के खिलाफ अमेरिका ने आर्थिक पाबंदियाँ लगा रखी हैं, कोरोना वायरस ने कई प्रकार की विसंगतियाँ पैदा कर दी हैं।

क्या से क्या हो गया
कुछ दशक पहले पेट्रोलियम को कुछ देशों की समृद्धि का आधार माना जा रहा था। इन देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह पेट्रोलियम के हवाले कर दिया। उनकी उत्पादन लागत काफी ऊँची थी, पर पेट्रोलियम की कीमतें ऊँची होने के कारण वे बचे रहते थे। पर आज जब पेट्रोलियम की कीमतें गिर रही हैं, पेट्रोलियम पर आधारित देशों की हालत खराब है। दुनिया का लगभग आधा तेल उत्पादित करने वाला ओपेक अब बिखरता दिख रहा है। वेनेजुएला का 99 फीसदी निर्यात केवल पेट्रोलियम है। आज वह देश दिवालिया हो चुका है। वेनेजुएला की पेट्रोलियम उत्पादन लागत 2016 में 117.50 डॉलर प्रति बैरल थी, जो अब और ज्यादा हो चुकी होगी। इसी तरह ईरान के सकल निर्यात में पेट्रोलियम का हिस्सा 79 फीसदी है। उनकी उत्पादन लागत 2016 में 51.30 डॉलर प्रति बैरल थी, जो आज की कीमतों से कहीं ज्यादा है। सऊदी अरब में तेल की प्रति बैरल लागत 25 डॉलर से भी कम है।

एक जमाने में अमेरिका तेल आयातक था, पर उसने चट्टानों को तोड़कर खनिज तेल निकालने की तकनीक विकसित की है, जिसके कारण अब अमेरिका तेल निर्यातक देश बन गया है। पर उसका तेल महंगा है। अमेरिका में प्रति बैरल लागत कम से कम 50 डॉलर है। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह 70 डॉलर बैठेगी, क्योंकि कम्पनियाँ इस तकनीक को हासिल करने के लिए कर्ज भी लेती हैं। पर यह लागत है, जबकि सरकारों को आमदनी चाहिए ताकि उनका खर्चा चल सके, सामाजिक कार्यक्रम चलाए जा सके।

अमेरिकी अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है। पर पेट्रोलियम-आधारित देशों के बजट ही तेल के सहारे हैं। उनके लिए तो सबसे बड़ा संकट पैदा होने वाला है। अलजज़ीरा के अनुसार आज किसी भी देश के लिए 33 डॉलर की कीमत पर भी पेट्रोलियम बेच पाना सम्भव नहीं है। सऊदी अरब को अपने देश का कामकाज चलाए रखने के लिए 83 डॉलर प्रति बैरल की कीमत मिले तब काम होगा। रूस को 50 डॉलर और ईरान को 195 डॉलर। रूस आज अपना उत्पादन बढ़ाने की हौसला इसीलिए कर पा रहा है, क्योंकि उसकी लागत कम है।

प्राइस वॉर के पीछे
रूस आज जो कर रहा है, वही 2015 में सऊदी अरब ने किया था। उस वक्त कीमतें गिर रही थीं और सऊदी अरब ने उत्पादन बढ़ा दिया। ऐसा उसने अमेरिका के इशारे पर किया था। इसी प्राइस वॉर के सहारे अमेरिका ने वेनेजुएला को परास्त किया, ईरान और रूस के लिए समस्याएं खड़ी कीं। कजाकिस्तान, अजरबैजान और कोलम्बिया, ब्राजील और इक्वेडोर जैसे लैटिन अमेरिका के वामपंथी देशों पर नकेल डाली। सन 2015 में अमेरिकी डॉलर ने रूसी रूबल को जमीन सुँघा दी थी। उस झटके से रूस आजतक नहीं उबरा है।

पिछले कुछ वर्षों में पेट्रोलियम धनी देशों की सूची में अमेरिका नाम भी जुड़ गया है। सन 2019 में तो वह दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश भी बन गया था। सऊदी अरब से भी बड़ा। इस वक्त भी वह चौथा सबसे बड़ा निर्यातक देश है। यह उसकी उपलब्धि है, पर उसने भी अपने लिए बड़ा खतरा मोल ले लिया है। इन दिनों उसे इसकी बारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सऊदी अरब का प्रयास था कहीं न कहीं तेल की कीमतें 60 डॉलर के आसपास रहें, जिससे अमेरिका की ‘शैल-क्रांति’ धराशायी हो जाए। अमेरिका काफी हद तक ऊर्जा के मामले में स्वतंत्र हो चुका है। वह अब तेल निर्यातक देश है। इसकी सबसे बड़ी वजह अमेरिका में हुई शैल तेल और शैल गैस क्रांति है।

सन 2015 के बाद से तेल बाजार में काफी बड़े परिवर्तन हुए हैं। अमेरिका जिस शैल तकनीक से तेल निकाल रहा है, वह महंगी है। यह तेल 70 डॉलर से कम पर नहीं बेचा जा सकता। अब यदि तेल की कीमतें गिरीं, तो अमेरिकी कम्पनियाँ बैठ जाएंगी। एक अनुमान है कि अमेरिकी बैंकों ने इन कम्पनियों को 700 अरब डॉलर से लेकर दो ट्रिलियन डॉलर तक का कर्ज दे रखा है। अमेरिकी कम्पनियाँ बैठीं, तो उनके बैंक और इनवेस्टमेंट कम्पनियाँ भी बैठ जाएंगी। उसका असर दुनियाभर पर होगा। सवाल केवल तेल का नहीं, पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था का है। सन 2008 के संकट से बाहर निकलने के लिए अमेरिका ने 700 अरब डॉलर का पैकेज घोषित किया था। इसबार कोरोना संकट से निकलने के लिए अमेरिकी सरकार ने दो ट्रिलियन का पैकेज घोषित किया है। पर पेट्रोलियम उद्योग का क्या होगा? निवेशक अपना पैसा निकालने के बारे में सोचने लगे हैं।

रूस के पक्ष में अच्छी बात यह है कि वहाँ की अर्थव्यवस्था पेट्रोलियम पर आश्रित नहीं है। वहाँ के बजट में पेट्रोलियम की हिस्सेदारी करीब 50 फीसदी की है। हालांकि उसके निर्यात में पेट्रोलियम की बड़ी भूमिका है, पर उसकी स्थिति सऊदी अरब से बेहतर है, जिसका 80 फीसदी राजस्व इसके सहारे है। यह कहना सही नहीं होगा कि रूस इस संकट से बचा रहेगा, पर उसका स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। उसके जीडीपी के मुकाबले ऋण 17.3 फीसदी है, जबकि सऊदी अरब का 20 फीसदी, पर पिछले छह वर्षों में इसमें भारी वृद्धि हुई है। अमेरिका का कर्ज भी बढ़ा है। इस लिहाज से रूस की स्थिति बेहतर है।

डॉलर का ह्रास
दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिकी डॉलर वस्तुतः वैश्विक मुद्रा बन चुका है। दुनिया में पेट्रोलियम का कारोबार भी डॉलर में होता है। सऊदी अरब के राज परिवार और अमेरिका के विशेष रिश्तों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। इस पेट्रो डॉलर संकट के बाद क्या डॉलर की यही भूमिका रहेगी? रूस और चीन मिलकर विकासशील देशों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहे हैं। जिम्बाब्वे ने अपनी करेंसी के अलावा चीनी येन का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है। इसके पहले डॉलर को चुनौती देने वाले देश तेल-समृद्ध भी थे। लीबिया, ईरान, इराक और वेनेजुएला की तरह। इन सबके पास तेल था, जो एक जमाने तक सोने या नकदी के बराबर था। पर ये सब देश धूल में मिल गए, क्योंकि उनके पीछे मजबूत आधार नहीं था।

अब रूस और चीन की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत हो रही हैं। वे तेल पर आश्रित भी नहीं हैं। हाल में खबरें थीं कि रूस ने ईरान को इस बात के लिए तैयार कर लिया है कि वह अपना तेल उसके तट से बेचे। इससे अमेरिकी प्रतिबंधों को चुनौती मिलेगी और रूबल का सिक्का मजबूत होगा। रूस और चीन लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं। खबरें यह भी हैं कि ओपेक के भीतर कई देश सऊदी अरब और अमेरिका की दोस्ती को पसंद नहीं करते हैं।

सन 2008 में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने एसडीआर के नाम से अपनी करेंसी की शुरुआत की थी। यह स्वर्ण आधारित करेंसी है। आईएमएफ के पास सबसे ज्यादा सोना है। हालांकि मुद्राकोष इसे करेंसी नहीं कहता, पर हाल में पाकिस्तान को दिया गया ऋण एसडीआर में था। कहने का मतलब है कि डॉलर के विकल्प भी तैयार हो रहे हैं। रूस ने पिछले आठ साल में काफी सोना खरीदा है। चीन तो सबसे ज्यादा सोना खरीदता है। चीन स्वर्ण उत्पादक देश भी है। रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में डॉलर को स्वर्ण मानक से अलग कर दिया गया। अब वह केवल कागजी मुद्रा है, स्वर्ण मुद्रा नहीं।
माना जाता है कि जो मुद्रा स्वर्ण आधारित नहीं होती, वह लम्बे समय तक चलती नहीं। अमेरिका अपनी जरूरत के हिसाब से मुद्रा छापता है। यह बात वैश्विक मुद्रा होने के नाते अच्छी नहीं है। इससे भारत जैसे दूसरे विकासशील देशों के हितों को ठेस लगती है, जिन्हें और ज्यादा पूँजी चाहिए। पर हो यह रहा है कि अमेरिका ही कर्ज लेता जा रहा है। ज्यादातर निवेशक अमेरिका की तरफ भाग रहे हैं और भारत, इंडोनेशिया और ब्राजील जैसे देश वंचित रह जाते हैं।

आने वाले समय में क्या होगा, कोई नहीं जानता। कोरोना के बाद पेट्रोलियम की माँग बढ़ेगी, पर कितनी? विशेषज्ञों का अनुमान है कि सऊदी अरब जैसा देश अपने मजबूत मुद्रा भंडार के सहारे दो-तीन साल निकाल लेगा, पर उसके बाद उसकी अर्थव्यवस्था डगमगाने लगेगी। रूसी तेल की लागत कम है, इसलिए वह कई दशक तक सस्ता तेल बेचता रह सकता है। सस्ता मतलब है करीब 40 डॉलर प्रति बैरल। मोटे तौर पर संकेत यह है कि तेल की कीमतों का यह दौर और महामारी की मार दुनिया की अर्थव्यवस्था में कुछ बड़े बदलावों का संदेश लेकर आई है।

महामारी उतर जाने के बाद अमेरिका और चीन तथा रूस की प्रतियोगिता और तेज होगी। बेशक अमेरिका की ताकत का ह्रास हो रहा है, पर वह अभी महाशक्ति है। भारत अभी बीच में बैठा इस शक्ति-द्वंद्व को देख रहा है। हमें अपने पत्ते सावधानी से खेलने होंगे।

शेखर गुप्ता की राय भी देखें




1 comment:

  1. सार्थक आलेख। कुछ कुछ समझ में आया तेल का खेल।

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