Friday, May 29, 2020

उफ भारत माता!

प्रवासी मजदूरों की बदहाली से जुड़ा एक वीडियो इन दिनों वायरल हुआ है, जिसमें एक स्त्री की लाश के पास उसकी छोटी सी बच्ची चादर खींच रही है. यह हृदय विदारक वीडियो किसी के भी मन को विह्वल कर जाएगा. ट्विटर पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आईं.  ज्यादातर प्रतिक्रियाएं दया और करुणा से भरी हैं. पर यह मामला करुणा से ज्यादा हमारे विवेक को झकझोरने वाला होना चाहिए. ऐसा कैसे हो गया? क्या इनके आासपास लोग नहीं थे? क्या उस महिला को पीने का पानी देने वाला भी कोई नहीं था? 


दया और करुणा से भरी प्रतिक्रियाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं  राजनीतिक नेताओं की हैं. किसी ने बच्चों की मदद की पेशकश की. उन्हें पालने-पोसने की जिम्मेदारी ली. अच्छी बात है, पर सवाल अपनी जगह है. इस मदद को पाने के लिए एक माँ को बदहाली में मरना होता है. क्या आपकी राजनीति इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं है? ऐसी मदद का दशमांश भी सामान्य समय में मिल गया होता, तो शायद उसकी मौत नहीं होती. ऐसी परिस्थितियाँ क्यों पैदा हुईं? परिस्थितियों का लाभ उठाने वाले तमाम हाथ हैं, पर बुनियादी सवाल का जवाब देने कोई आगे नहीं आता. क्यों? जो जवाब आएंगे भी वे ज्यादातर राजनीतिक हैं. शायद यही वजह है कि आज तमाम कहानियाँ हमारे सामने हैं, जिनमें ज्योति की कहानी भी एक है, जो पीपली लाइव की याद दिला रही है. हमारी करुणा और दया प्रचार चाहती है. हम बुनियादी सवालों पर जाना ही नहीं चाहते. 

ऐसा भी नहीं है कि हालात इतने ही निराशाजनक हैं. प्रवासी मजदूरों के प्रकरण में ज्योति की कहानी काफी चर्चित रही, जो अपने पिता को साइकिल पर बैठाकर 1400 किलोमीटर दूर अपने घर तक लाई. उसकी बहादुरी को लेकर दुनियाभर में तारीफ हुई, तो कुछ लोगों ने यह भी कहा कि ज्योति की कहानी प्रवासी मजदूरों की बदहाली की व्यथा है. बेशक है, पर इस पूरी कहानी पर नजर डालें, तो पता लगेगा कि यह बेटी और उसके पिता के मन में इतनी हिम्मत पैदा करने वाली परिस्थितियाँ भी मौजूद थीं. ऐसा नहीं था कि वे अकेले थे. उन्हें रास्ते भर मदद भी मिली. वे पेट्रोल पम्पों पर रुकते थे. कई बार ट्रक डाइवरों ने उन्हें लिफ्ट भी दी. उन्होंने साइकिल खरीदी तो उस सराकारी पैसे से जो उनके बैंक खाते में आया. 

यह सच है कि पैदल चलते प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा हमारे दिल दहलाती है, पर यह भी सच है कि उन्हें रास्ते भर भोजन देने के लिए भी लोग खड़े थे. यह सरकारी व्यवस्था से अलग लोगों की अपनी व्यवस्था थी. शुरू में सरकारों ने उनके साथ बड़ा खराब व्यवहार किया. चौराहों पर मुर्गा बनाया, डंडों से पीटा. पर इन लोगों के अस्तित्व का सवाल था. सोशल मीडिया और मुख्यधघारा के मीडिया की कवरेज से अंततः सुप्रीम कोर्ट में भी उनकी सुनवाई हुई. अदालत ने सरकार को निर्देश दिए. सच यह है कि कहानी का एक ही पहलू नहीं है. 

कौन बनाता है हालात की तस्वीरें? जनता के दृष्टिकोण को कौन दिशा देता है? इसमें या तो मीडिया की भूमिका है या राजनीति की. आदर्श रूप में मीडिया को सभी पहलुओं को छूने का प्रयास करना चाहिए. क्या वास्तव में  अंधेर है? ऐसा नहीं है. कहीं न कहीं रोशनी भी है. लोग चाहते हैं कि हालात इतने खराब न होने पाएं. वे समाधान चाहते हैं, उन्हें रास्ते बताने वाले लोगों की जरूरत है. राजनीतिक पहलू को थोड़ी देर के लिए भूलकर हम समस्या के मानवीय पहलू पर विचार करें. कौन पैदा करेगा वह पहलू? यह विचार पैदा करने का काम मीडिया का है.

अत्यधिक करुणा, दया-ममता वगैरह जब किनारे जाकर लगते हैं तो या तो प्रचारात्मक हो जाते हैं या व्यवस्था को कोसने लगते हैं. जरूरत इस बात की है कि हम तस्वीर को साफ तरीके से लोगों के सामने रखें. पर मीडिया जब फिल्मों की तरह सनसनीखेज, मसालेदार और भावनाओं का दोहन करने लगता है, तब वह अपनी भूमिका से हट जाता है. दुनिया के अखबारों की शुरुआत इन चटखारों के साथ ही हुई थी, पर पिछले डेढ़-दो सौ साल में अखबारों ने अपनी भूमिका को काफी हद तक वस्तुनिष्ठ बनाया. दुर्भाग्य से यह अखबारों के अंत का समय है. यह अंत केवल एक संस्था के रूप में उनकी भूमिका समाप्त होने का ही नहीं है, बल्कि उसकी नैतिक भूमिका के खत्म होने का समय भी है. 

अखबारों और डिजिटल मीडिया में एक फर्क मुझे शुरू से नजर आ रहा है. वह है नजरिए का. डिजिटल मीडिया में आईबॉल की संख्या महत्वपूर्ण है. अखबार अपने व्यापक वैचारिक आधार पर चलते थे. हालांकि भारत में स्वतंत्रता के बाद से ज्यादातर अखबार सत्तामुखी रहे हैं, फिर भी उन्होंने जनता के सवालों या प्रतिपक्ष के विचारों को मंच देने का काम भी किया. उनकी साख इसी वजह से आज के डिजिटल मीडिया से ज्यादा थी. इमर्जेंसी के पहले तक का पूरा मीडिया ही एक तरह से कांग्रेसी था, फिर भी इमर्जेंसी में अखबारों पर बंदिशें लगीं, क्योंकि उन्होंने प्रतिपक्ष को भी जगह दी. वह मीडिया व्यवस्था के अंतर्विरोधों को एक सीमा तक व्यक्त करता था.

आज का डिजिटल मीडिया (यानी वैब मीडिया और टीवी दोनों) किसी एक छोर के सहारे रहने में ही अपने अस्तित्व की रक्षा देख पाता है. कुछ लोगों ने गोदी मीडिया शब्द का इस्तेमाल किया है. यानी कि सत्ता की गोद में बैठा मीडिया. हर कीमत पर सरकार का समर्थन करने वाला मीडिया. इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार विरोधी मीडिया है ही नहीं. सरकार समर्थक मीडिया के बराबर नहीं, तो उससे मुकाबला करने लायक मीडिया सरकार-विरोधी भी है. सरकार-विरोधी बातों को पढ़ने और जानने के इच्छुक लोगों की तादाद भी काफी बड़ी है.

इन स्थितियों में वह मीडिया नजर नहीं आता, जो किसी मसले के दोनों या उससे ज्यादा पक्षों का वस्तुनिष्ठ तरीके से विवेचन करे. तथ्यों को एकतरफा तरीके से पेश करने की परम्परा चल निकली है. इस किस्म की पत्रकारिता को राजनीतिक दलों के मीडिया सेलों से तैयार सामग्री आसानी से मिल जाती है. इस वजह से सत्ता-पक्ष और विपक्ष की गतिविधियों का विवेचन करने की कोशिश ही नहीं होती.


प्रताप भानु मेहता का इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित यह लेख भी पढ़ें

1 comment:

  1. गरीबों का तो ऊपर वाला ही मालिक होता है
    बहुत दिल दुखता है ऐसी घटनाएं देख सुन कर

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