अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस सप्ताह होने वाली
भारत-यात्रा काफी हद तक केवल चाक्षुष (ऑप्टिकल) महत्व है। चुनाव के साल में ट्रंप
अपने देशवासियों को दिखाना चाहते हैं कि मैं देश के बाहर कितना लोकप्रिय हूँ। उनके
स्वागत की जैसी व्यवस्था अहमदाबाद में की गई है, वह भी यही बताती है। दोनों नेताओं का यह अब तक
का सबसे बड़ा मेगा शो होगा। अमेरिका में हुए 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम में जहां 50 हजार लोग शामिल हुए थे वहीं अहमदाबाद में ‘लाखों’ का दावा किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ट्रंप वहाँ मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम का उद्घाटन
भी करेंगे, जो दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम है। अहमदाबाद हवाई अड्डे से
साबरमती आश्रम तक 10 किलोमीटर तक के मार्ग पर रोड शो होगा।
इस
स्वागत-प्रदर्शन से हटकर भी भारत और अमेरिका के रिश्तों के संदर्भ में इस यात्रा
का महत्व है। आमतौर पर ट्रंप द्विपक्षीय यात्राओं पर नहीं जाते। उनकी दिलचस्पी या
तो बहुपक्षीय शिखर सम्मेलनों में होती है या ऐसी द्विपक्षीय बैठकों में, जिनमें
किसी समस्या बड़े समाधान को हासिल करने की कोशिश हो। पिछले साल के गणतंत्र दिवस पर
भारत आने का प्रस्ताव ठुकरा कर वे भारत को हमें एक राजनयिक झटका लगा चुके हैं। बहरहाल
नाटकीयता अपनी जगह है, दोनों देशों के रिश्तों का महत्व है। ऐसे मौके पर जब
अमेरिका ने तालिबान के साथ समझौता करके अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने का फैसला
कर लिया है, यह यात्रा बेहद महत्वपूर्ण हो गई है।
कारोबारी तनाव
इस यात्रा के
दौरान पर्यवेक्षकों का ध्यान कारोबारी रिश्तों पर रहेगा। माना जा रहा है कि चीन
हमारा सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है, पर अब अमेरिका ने उसे पीछे छोड़ दिया है। सन
1999 में दोनों देशों के बीच जो कारोबार 16 अरब डॉलर का था, वह 2018 में 142 अरब डॉलर का हो गया। नब्बे
के दशक में शुरू हुई भारत की नई अर्थव्यवस्था और खासतौर से इक्कीसवीं सदी के
शुरुआती वर्षों की सूचना-क्रांति में हमारा सबसे बड़ा साझीदार अमेरिका है। यह
व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में है। ट्रंप को द्विपक्षीय व्यापार में घाटा पसंद
नहीं है। हालांकि भारत के साथ छोटा है, करीब 30 अरब डॉलर का, जबकि अमेरिका का चीन
के साथ व्यापार घाटा 350 अरब डॉलर का है।
पिछले दो वर्षों
में अमेरिका ने भारतीय माल पर टैक्स बढ़ाया है और भारत को प्राप्त जनरलाइज्ड
सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस (जीएसपी) के तहत मिलने वाली सुविधाएं खत्म कर दी हैं, पर दोनों
देशों के सामरिक रिश्तों में गर्मजोशी है। यह तेजी पिछले दो दशकों में
आई है। इसका एक बड़ा कारण शीतयुद्ध के बाद की स्थितियाँ हैं। अफगानिस्तान में
तालिबान और अलकायदा के उदय के बाद 9/11 की परिघटना
ने एक तरफ जेहादी राजनीति के कारण दोनों देशों को करीब आने को प्रेरित किया, दूसरी
ओर चीन के उदय के कारण अमेरिका को खासतौर से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के
करीब आने की जरूरत महसूस हुई है। सन 1998 में नाभिकीय परीक्षण के बाद भारतीय रक्षा तकनीक पर अमेरिका ने कई तरह
के प्रतिबंध लगाए थे। समय के साथ वे प्रतिबंध न सिर्फ हटे, बल्कि जुलाई 2005 में अमेरिका
के साथ हुए सामरिक समझौते के बाद रिश्तों में गुणात्मक बदलाव आया है। और अब रक्षा तकनीक के साथ-साथ भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के सामरिक
सहयोगी के रूप में उभर रहा है और ‘स्वतंत्र विदेश
नीति’ की हमारी पहचान खत्म हो रही है।
स्वाभाविक दोस्ती
अमेरिका में
राष्ट्रपति चाहे डेमोक्रेटिक पार्टी के रहे हों या रिपब्लिकन पार्टी के और संसद
में किसी भी पार्टी का बहुमत रहा हो भारत के साथ रक्षा सहयोग को पूरा समर्थन मिला
है। परिस्थितियाँ भी ऐसी बनीं कि अमेरिका के रिश्ते अपने पूर्व सहयोगी पाकिस्तान
के साथ बिगड़ते गए। दूसरी तरफ सन 1962 के युद्ध के बाद से भारत और चीन के रिश्तों
में जो तल्खी पैदा हुई, वह खत्म होती नजर नहीं आ रही है। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ की
वजह से भी दोनों देश करीब आए हैं।
इस इलाके में
भारत ही अकेला देश है, जहाँ आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था सफलता के साथ चल रही है। जापान
और ऑस्ट्रेलिया भी कमोबेश अपने-अपने कारणों से चीन से प्रतिस्पर्धा रखते हैं।
दक्षिण एशिया के शेष देशों से लेकर सुदूर पूर्व तक के इलाके के साथ भारत के
ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं। बढ़ते समुद्री व्यापार के मद्देनज़र भारत पर हिंद
महासागर से लेकर प्रशांत तक के क्षेत्र में सुरक्षा की जिम्मेदारी भी आ गई है। एक
समय तक राजनयिक भाषा में जिस भौगोलिक क्षेत्र को एशिया-प्रशांत कहा जाता था, उसे
अब हिंद-प्रशांत का नाम दिया गया है।
रक्षा तकनीक
भारत एक तरफ अमेरिका के साथ सामरिक समझौते कर रहा है, वहीं उसकी रूस से दूरी
बढ़ती नजर आ रही हैं। पर यह इतना सरल बात नहीं है, जितना नजर आ रहा है।
भारत की सामरिक शक्ति का तीन चौथाई भाग रूसी तकनीक पर आश्रित रहा है। भले ही अब
उसमें कमी आई हो, पर वह एकदम से समाप्त भी नहीं हो सकता। आज भी भारत को जो तकनीक चाहिए, वह पूरी तरह अमेरिकी भरोसे पर पूरी नहीं हो सकती। मसलन हवाई हमलों से रक्षा के
लिए भारत जिस एस-400 प्रणाली को खरीद रहा है, उसके समकक्ष अमेरिकी
प्रणाली एक तो उतनी प्रभावशाली नहीं है, दूसरे वह काफी महंगी है। भारत ने
अमेरिका के सामने यही दलील दी है कि हमारे सामने विकल्प क्या है?
ट्रंप की इस यात्रा के ठीक पहले की
खबर है कि दोनों देशों के बीच करीब 3.5 अरब डॉलर के
रक्षा उपकरणों की खरीद के प्रस्ताव तैयार हैं। दिल्ली की सुरक्षा के लिए भारत
अमेरिका की एनएएएएमएस-2 हवाई सुरक्षा प्रणाली खरीदने जा रहा है। दिल्ली के सुरक्षा
कवच की तीन परतें तैयार हो रही हैं। सबसे भीतर अमेरिकी प्रणाली, उसके बाहर भारत की
‘आकाश’ प्रणाली और उसके बाहर रूस की एस-400 प्रणाली
काम। यह एक नया सामरिक गणित है, जो भारतीय विदेश नीति की दिशा को भी बताता है। पर
इसमें दो राय नहीं कि भारत सामरिक दृष्टि से अब अमेरिकी खेमे में है।
अमेरिकी पहलकदमी
सन 2007 से अबतक भारत और अमेरिका के बीच करीब 20 अरब डॉलर
के रक्षा सौदे हो चुके हैं। धीरे-धीरे भारत का झुकाव सायास या अनायास रूसी तकनीक
के स्थान पर अमेरिकी तकनीक पर होता जा रहा है, जो महंगी है और जिसके साथ शर्तें
लगी होती हैं। फिर भी वह विश्वसनीय है। रक्षा तकनीक में भारत ने अमेरिका, फ्रांस
और इसरायल को अपना साझीदार बनाया है।
हाल में लखनऊ में हुए डेफएक्सपो-2020 में अमेरिका ने सबसे
ज्यादा बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। एमएमआरसीए कार्यक्रम के तहत राफेल सौदा रद्द होने
के बाद अब अमेरिका चाहता है कि उसके एफ-21 या एफए-18 विमान को भारत स्वीकार करे। हाल
में खबर है कि अमेरिका ने बोइंग के लड़ाकू विमान एफ-15ईएक्स की पेशकश भी भारत से
की है। नौसेना के लिए 57 लड़ाकू विमानों का सौदा भी शायद अमेरिका को मिलेगा। नौसेना
के लिए 24 एमएच-60 हेलिकॉप्टर और थलसेना के लिए छह अपाचे अटैक हेलिकॉप्टरों की
खरीद के सौदे पर सुरक्षा से जुड़ी कैबिनेट कमेटी की स्वीकृति मिलने ही वाली है और
संभव है कि इन पंक्तियों के प्रकाशन तक मिल चुकी हो।
‘टू प्लस टू’ वार्ता
गत दिसम्बर में दोनों देशों के बीच दूसरी ‘टू प्लस टू’ वार्ता हुई, जिसमें भारत की
तरफ से राजनाथ सिंह और एस जयशंकर तथा अमेरिका की तरफ से माइकेल पॉम्पियो तथा मार्क
टी एस्पर शामिल हुए। हालांकि ‘टू प्लस टू
वार्ता’ का दायरा काफी बड़ा है, पर मूलतः इसमें टकराव के
बिंदुओं के समाधान की कोशिश की जाती है। इसमें रूस और ईरान के
मुद्दे भी उठे हैं। कुछ समय पहले दोनों देशों के बीच सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण
कम्युनिकेशंस, कंपैटिबिलिटी, सिक्योरिटी एग्रीमेंट (कोमकासा) होने के बाद सैनिक समन्वय और सहयोग की राहें
खुली हैं। यह समझौता 10 साल के लिए हुआ है। इसके माध्यम से अमेरिकी नौसेना की
सेंट्रल कमांड और भारतीय नौसेना के बीच सम्पर्क कायम हुआ है। भारत ने अपना एक
अटैशे (प्रतिनिधि) बहरीन में नियुक्त किया है, जो अमेरिकी सेना के साथ समन्वय
बनाएगा।
चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल के समांतर अमेरिका ने ब्लू
डॉट नेटवर्क (बीडीएन) पहल शुरू की है, जिसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया को शामिल
किया गया है। इसका उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए निजी
निवेश को बढ़ावा देना है। भारत के साथ चारों देशों की चतुष्कोणीय सुरक्षा योजना ‘क्वाड’ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है।
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