Monday, January 8, 2018

टकराव के मुहाने पर असम

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का मामला विवादों से घिरता जा रहा है. इसे लेकर राज्य में ही नहीं, पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है. इस मामले की छाया 2019 के चुनावों पर भी पड़ेगी. इधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एक टिप्पणी ने आग में घी का काम किया है. असम पुलिस ने गुरुवार को उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की है, जिससे मामले ने दो राज्यों के बीच की राजनीतिक जंग का रूप भी ले लिया है.

ममता बनर्जी ने आरोप लगाया था कि असम में एनआरसी अपडेट के बहाने केंद्र सरकार वहां से बंगालियों को बाहर निकालने की साजिश रच रही है. इस टिप्पणी के बाद दोनों राज्यों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और इसकी गूँज संसद में भी सुनाई पड़ी है. ममता बनर्जी के बयान में बंगालियों की तरफदारी से ज्यादा मुसलमानों की पीड़ा है. उनके बयान को लेकर बीजेपी की बंगाल शाखा ने ममता पर यह कहकर हमला बोला है कि वे पश्चिम बंगाल को जिहादियों की पनाहगाह बना रही हैं.

मुस्लिम आबादी के लिहाज से जम्मू-कश्मीर के बाद असम ऐसा प्रदेश है, जहाँ मुस्लिम आबादी का अनुपात काफी बड़ा है. यह अनुपात पिछले सौ साल में बड़ी तेजी से बढ़ा है. विभाजन के बाद खासतौर से इसमें काफी इज़ाफा हुई है. आज़ादी के बाद काफी लम्बे अरसे तक लोगों का खुला आवागमन होता रहा. असम में इस्लाम दूसरा सबसे बड़ा धर्म है. सन 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की आबादी में 34.24 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं. राज्य के नौ जिलों में बहुसंख्यक मुसलमान हैं.

असम में मुसलमान 13वीं सदी के शुरू में आए, जब मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी की सेना ने पूर्वी भारत में प्रवेश किया और बोडो जनजाति के एक मुखिया ने इस्लाम कबूल किया. सत्रहवीं सदी में इराक से मुस्लिम संत शाह मीरन यहाँ आए और स्थानीय आबादी के बीच इस्लाम का प्रसार किया. असमिया मुसलमानों के अलावा यहाँ बंगाली मुसलमानों की तादाद काफी बड़ी है.

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के दौर में चायबागान में काम के लिए पूर्वी बंगाल से बड़ी संख्या में मुसलमान यहाँ आए. मारवाड़ी व्यापारियों के साथ भी काफी बड़ी संख्या में मजदूर आए, जिनमें बड़ी संख्या मुसलमानों की थी. सन 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत 1937 में बनी असम की असेम्बली में मुस्लिम लीग के सदस्यों की संख्या काफी बड़ी थी और वहाँ मुहम्मद सादुल्लाह के नेतृत्व में सरकार भी बनी.

विभाजन के समय मुस्लिम लीग की कोशिश थी कि असम को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किया जाए, पर स्थानीय नेता गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रतिरोध के कारण ऐसा सम्भव नहीं हुआ. बोरदोलोई को सरदार पटेल और महात्मा गांधी का समर्थन हासिल था. देश की वर्तमान राजनीति के अनेक सूत्र असम के साथ जुड़े हैं. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बोरदोलोई और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच मुस्लिम आबादी को लेकर विवाद थे.

स्वतंत्रता के समय असम बहुत बड़ा राज्य था. साठ और सत्तर के दशक में पूर्वोत्तर के राज्यों का पुनर्गठन वृहत्तर असम से किया गया. इस राज्य की प्राचीन अहोम संस्कृति है और इसका एक आर्थिक आधार है. एशिया में सबसे पहले पेट्रोलियम के कुएं की खुदाई असम में ही हुई थी. यह भी सच है कि राज्य में मुस्लिम आबादी का विस्तार हुआ है. सन 2001 में राज्य के 6 जिलों में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक थी, 2011 में यह संख्या बढ़कर 9 हो गई. हालांकि हाल के वर्षों में इस अनुपात में गिरावट आने की खबरें भी हैं.

असम की इस सामाजिक संरचना की झलक यहाँ की राजनीति में भी दिखाई पड़ती है. देश में मुस्लिम नेतृत्व वाला सबसे ताकतवर दल असम में है. सन 2011 के असम विधान सभा चुनाव में मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के नाम से मुसलमानों का एक ताकतवर राजनीतिक संगठन असम में तैयार हुआ है.

असम के मुसलमानों की संस्कृति उदार है. वे असमिया संस्कृति में रचे-बसे हैं. उनके रीति-रिवाज, परम्पराएं और उत्सव वही हैं, जो हिन्दुओं के हैं. सन 1979 से 1985 के बीच चले असम आंदोलन का निशाना बंगाली मुसलमान थे और आज भी उन्हें लेकर ही विवाद है. सन 1983 के विधानसभा चुनावों का एक बड़े तबके ने बहिष्कार किया था. उसके बाद 15 अगस्त 1985 को असम के आंदोलनकारियों और केंद्र सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, उसकी मूल भावना थी कि 1971 के बाद भारत आए बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा.

इस समझौते के पहले इंदिरा गांधी की सरकार ने 1983 में अवैध परिव्रजन अधिनियम पास किया, जिसके तहत 25 दिसम्बर 1971 के पहले भारत आए बांग्लादेशी नागरिकों की नागरिकता को वैध करार दिया गया. सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया. एक एनजीओ की अपील पर सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को एनआरसी की प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया है, जो अब अपनी तार्किक परिणति पर पहुँच रही है.

हालांकि अभी अंतिम रूप से तय नहीं हो पाया है कि कितने लोग राज्य में अवैध रूप से रह रहे हैं, पर लगता है कि बड़ी संख्या में लोग अपनी रिहाइश को साबित नहीं कर पाएंगे. सवाल है कि उनका क्या होगा? उन्हें कैसे बांग्लादेश भेजा जाएगा? राज्य के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल का कहना है कि हम केवल सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन कर रहे हैं. राज्य की बीजेपी सरकार के अंतर्विरोध भी इससे जुड़े हैं. वह हिंदुओं को शरण देने के पक्ष में है, मुसलमानों को नहीं.

अब 20 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में तारीख है. उसके बाद इस प्रक्रिया का अगला चरण स्पष्ट होगा. जैसे भारत और पाकिस्तान का विभाजन दुनिया की अपने किस्म की सबसे बड़ी परिघटना थी, उसी तरह नागरिकों की पड़ताल की यह अपने किस्म की सबसे बड़ी परिघटना है. इसकी तार्किक परिणति क्या है, अभी कहना मुश्किल है. फिलहाल हालात को काबू में रखने की जरूरत है.

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1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’ऐतिहासिकता को जीवंत बनाते वृन्दावन लाल वर्मा : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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