Sunday, January 14, 2018

क्या 'दागी राजनीति' को भी कभी सजा मिलेगी?

हाल में लालू यादव और मधु कोड़ा जैसे नेताओं को सजा मिलने के बाद उम्मीद जागी है कि बड़ी मछलियाँ भी न्याय-व्यवस्था के घेरे में आएंगी। पिछले कई साल भ्रष्टाचार और अपराधों के खिलाफ लहरें तो बनती हैं, पर तार्किक परिणति तक पहुँचते-पहुँचते टूट जाती हैं। क्या अब माहौल बदलेगा? हाल में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के एक प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाई है, जिसके तहत दागी राजनेताओं के मुकदमों का जल्द निपटारा करने के लिए 12 विशेष अदालतें बनेंगी। देश के अलग-अलग इलाकों में बनने वाली इन फास्ट ट्रैक अदालतों में 1,581 आपराधिक मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी की जाएगी। यानी यदि 1 मार्च 2018 तक ये अदालतें गठित हो गईं और एक अदालत एक साल में 100 मुकदमों का फैसला भी कर पाई तो 1 मार्च 2019 तक 1200 मुकदमों का फैसला हो जाएगा। आंशिक रूप से ही सही, आपराधिक मामलों की तार्किक परिणति की ओर यह एक बड़ा कदम होगा।  

ये आपराधिक मुकदमे सांसदो और विधायकों के हैं। जस्टिस रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की बेंच ने केंद्र को निर्देश दिया कि इन अदालतों की स्थापना के लिए राज्यों को 7.8 करोड़ रुपये की राशि का आबंटन करे। सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में सरकार से कहा था कि इन अदालतों को जल्द से जल्द गठित किया जाना चाहिए। हाल में चुनाव आयोग ने यह माँग भी की है कि सजायाफ्ता जन-प्रतिनिधि को हमेशा के लिए चुनाव लड़ने के लिए वंचित किया जाए। आज की व्यवस्था में उसे सजा पूरी करने के छह साल बाद फिर से चुनाव लड़ने का अधिकार है।
विडंबना है कि फास्ट ट्रैक अदालतें बनाने के समर्थन में राजनीतिक स्वर नहीं है। संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल ने कहा कि जन-प्रतिनिधियों पर मुकदमे चलाने के लिए अलग से अदालतें बनाने की जरूरत क्या है? उनका कहना था कि संविधान का अनुच्छेद 14 सबको समानता का अधिकार देता है और अनुच्छेद 15 के मुताबिक धर्म, जाति या जन्मस्थान वगैरह के आधार पर भी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। जन-प्रतिनिधियों के लिए फिर किस आधार पर अलग से अदालत बनाई जा सकती है? जब आतंकवादियों के लिए देश में अलग अदालत नहीं है तो फिर सांसदों और विधायकों के लिए क्यों?
सन 2011 में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद से देश में लगातार यह सवाल भी किया जा रहा है कि अपराधियों को राजनीति में संरक्षण क्यों मिलता है? यदि इतना अपराध है तो सजाएं क्यों नहीं होतीं? हाल में लालू यादव को चारा घोटाले के एक मामले में सजा सुनाई गई है। उसके पहले दिल्ली की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने कोयला घोटाले का फैसला सुनाया था, जिसमें झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और कुछ अधिकारियों को सजाएं सुनाई गई थीं। पिछले साल तमिलनाडु की मुख्यमंत्री से जुड़े एक मामले में फैसला आया था। चूंकि जयललिता जीवित नहीं हैं, इसलिए उनके बारे में यह फैसला नहीं था, पर उनकी सहयोगी शशिकला को सजा हुई।
एक तरफ ये सजाएं हुईं है, उधर सीबीआई की एक विशेष अदालत में टू-जी मामले से जुड़े सभी अभियुक्त बरी भी हुए हैं। यह मामला अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है। बहरहाल फैसले होंगे तो कुछ सजाएं होंगी और कुछ लोग बरी भी होंगे। सवाल फैसले का है। वह जल्दी होना चाहिए। राजनीति और अपराधों की साठगांठ का सवाल छोटा नहीं है। सवाल है कि क्या अगले लोकसभा चुनाव के पहले राजनीति में गुणात्मक बदलाव आएगा? क्या यह बदलाव हमें कभी देखने को मिलेगा? क्या राजनीति में पवित्रता की वापसी होगी?
सन 2013 से दागी राजनेताओं को लेकर देश में बहस है। अपनी ही सरकार के अध्यादेश को फाड़ने वाले राहुल गांधी आज अपनी पार्टी के अध्यक्ष हैं और उनकी पार्टी को लालू यादव की पार्टी से रिश्ते जोड़ने में गुरेज नहीं है। टू-जी मामले से जुड़े राजनेता आज सगर्व मुख्यधारा में विचरण कर रहे हैं। पिछले दो-ढाई दशक का इतिहास घोटालों का इतिहास है। सूची बनाएं तो सैकड़ों घोटाले हैं, पर सजा पाने वालों की सूची काफी छोटी है। दूसरी ओर सजायाफ्ता जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त करना और उन्हें चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बेहतर बनाने की दिशा में एक कदम है। ऐसे तमाम कदमों की हमें जरूरत है।
हमारी न्याय-व्यवस्था के अंतर्विरोधों का फायदा आपराधिक प्रवृत्तियाँ उठाती हैं। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि जन-प्रतिनिधियों से जुड़े आपराधिक मामलों का निपटारा समयबद्ध होना चाहिए ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया सुचारू हो। राजनेताओं के खिलाफ तमाम मामले फर्जी भी होते हैं। राजनीतिक कारणों से उन्हें फँसाया जाता है। इस बात का पता भी तो तभी चलेगा, जब अदालत में फैसला होगा। फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना इस दिशा में बड़ा कदम साबित होगी। इन अदालतों में 1500 से ज्यादा जिन जन-प्रतिनिधियों के मामले जाएंगे। इन मामलों में लालू यादव, मधु कोड़ा और सुरेश कलमाडी जैसे नेताओं के मुकदमे नहीं हैं। इनमें ऐसे मुकदमे हैं, जो बहु-प्रचारित नहीं है।
केन्द्र सरकार के हलफ़नामे के मुताबिक अपराधी नेताओं के मुक़दमों के निपटारे के लिए 12 स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट बनेंगी। सभी कै फैसलों के लिए एक साल का समय निर्धारित किया गया है। 1581 की संख्या 2014 की है। इनके खिलाफ करीब 13,500 मुकदमे हैं। पिछले साढ़े तीन साल में यह संख्या बढ़ी ही होगी। एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में लोकसभा में चुन कर आए 542 सांसदों में से 185 के नाम आपराधिक मुकदमे हैं। इन 185 में से 112 पर गंभीर आपराधिक मुक़दमे हैं। इनके मुकाबले काफी बड़ी संख्या राज्यों की विधानसभाओं में है। दागी जन-प्रतिनिधियों को चुनाव लड़ने से वंचित तभी किया जा सकता है, जब उनके खिलाफ आरोप सिद्ध हो जाए। इस नियम को तार्किक परिणति तक पहुँचाने के लिए जरूरी है कि मुकदमों का जल्द से जल्द फैसला हो।
राजनीति में शुचिता केवल अदालती फैसलों और चुनाव आयोग की अपीलों से ही नहीं आने वाली। इसके लिए जनता का दबाव होना चाहिए और राजनीतिक दलों की पहल। पर अनुभव बताता है कि राजनीतिक दल चुनाव सुधारों में अड़ंगा लगाते है। जिस वक्त टिकट विवरण होता है प्रत्याशी की जीत की सम्भावना सबसे महत्वपूर्ण होती है। जिताऊ उम्मीदवार के दूसरे अवगुणों की अनदेखी हो जाती है। चुनावी हलफनामे की व्यवस्था के कारण पिछले 14 साल में कई प्रकार की सूचनाएं अब हमारे पास हैं। अब इस दिशा में अगला कदम उठाया जाना चाहिए।



हरिभूमि में प्रकाशित

3 comments:

  1. This one is a much needed step.

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  2. पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी एस कृष्णमूर्ति ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में फिर से चुनाव कराने की वकालत की है जहां जीत का अंतर नोटा मतसंख्या की तुलना में कम रही और विजयी उम्मीदवार एक तिहाई मत जुटाने में भी नाकाम रहे। उन्होंने यह विचार व्यक्त किया कि भारत में ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट निर्वाचन प्रणाली’ अब अपनी उपयोगिता खत्म कर चुकी है। कृष्णमूर्ति ने पीटीआई को बताया, ‘‘मेरे विचार में नोटा बहुत बेहतर है। हमें यह कहना चाहिए कि अगर नोटा मतों के कुछ निश्चित प्रतिशत को पार कर जाता है जैसे अगर विजेता एवं पराजित उम्मीदवार के बीच मतों का अंतर नोटा मतों से कम होता है, तो आप कह सकते हैं कि हमें दूसरी बार चुनाव कराना चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि इस उपाय को लागू करने के लिए कानून बनाने की जरूरत है।

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मकर संक्रांति पर ब्लॉग बुलेटिन की शुभकामनायें करें स्वीकार में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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