भारत सरकार ने हज सब्सिडी
खत्म करने का जो फैसला किया है, वह अनायास नहीं हुआ. इसके लिए मई 2012 में सुप्रीम
कोर्ट ने आदेश दिए थे. उसके पहले से भी यह बहस चल रही थी कि यह सब्सिडी धार्मिक
रूप से उचित है भी या नहीं. मुसलमानों के ज्यादातर बड़े नेताओं ने इसे खत्म करने
का समर्थन किया है. अलबत्ता धार्मिक तुष्टीकरण को लेकर बहस फिर से शुरू हो गई है. कहा
जा रहा है कि बीजेपी ने अपने मतदाताओं को इस फैसले के मार्फत कोई संदेश दिया है.
जमीनी सच यह है कि हिन्दुओं
और मुसलमानों को एक-दूसरे के धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है.
आपत्तियाँ धार्मिक मसलों के राजनीतिकरण को लेकर हैं. हज यात्रा में सुधारों पर
पिछले एक साल से विचार चल रहा है. पिछले साल बनी एक कमेटी की रिपोर्ट के संदर्भ
में यह फैसला हुआ है. अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी के
अनुसार इस साल 1.75 लाख मुसलमान बिना
सब्सिडी के हज यात्रा करेंगे. पिछले साल 1.25 लाख लोग गए थे. हाल में
सऊदी अरब सरकार ने भारत से हज यात्रा पर आने वालों के कोटे में वृद्धि भी की है.
नकवी ने यह भी कहा कि
सब्सिडी हटाने के फ़ैसले से जो रकम बचेगी वह अल्पसंख्यकों की शिक्षा, ख़ासकर
लड़कियों की तालीम पर खर्च की जाएगी. यह अच्छी बात है. देखना होगा कि अगले बजट में
सरकार कितना पैसा उस मद में रखती है. मई 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस
सब्सिडी को क्रमिक रूप से 2022 तक पूरी तरह खत्म कर दिया जाए. नवम्बर 2017 में
सेंट्रल हज कमेटी की बैठक में तय हो गया था कि 2018 में यह सब्सिडी पूरी तरह खत्म
हो जाएगी.
हमें देखना यह चाहिए कि
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पीछे वजह क्या थी और अब सरकार ने जो फैसला किया है,
उसका निहितार्थ क्या है. मुसलमानों के ज्यादातर प्रतिनिधियों ने कहा है कि हम खुद
चाहते थे कि यह सब्सिडी खत्म की जाए. कहा जाता था कि सब्सिडी वस्तुतः एयर इंडिया
के खाते में जाती थी. एयर इंडिया का किराया ज्यादा होता था, इसलिए हज यात्री को
वास्तव में मिलने वाली रियायत नाम के लिए ही थी.
दिल्ली-जेद्दाह का आने-जाने
का एयर इंडिया का रियायती किराया सामान्य एयरलाइंस के किराए का डेढ़ गुना था. एयर
इंडिया का कहना है कि हज यात्रा के विमान जाते या आते वक्त एक तरफ पूरी तरह खाली रहते
थे, जिससे उनकी लागत ज्यादा बैठती थी. मुस्लिम नेताओं का कहना है कि रियायत फायदेमंद
हो तब भी हमें इसकी जरूरत नहीं, क्योंकि इस्लाम कहता है कि हज यात्रा व्यक्ति को
अपने साधनों से ही करनी चाहिए.
इस सब्सिडी के खत्म होने
के बाद अब पूछा जाएगा कि हिन्दू पर्वों और उत्सवों पर होने वाले सरकारी खर्च को भी
बंद किया जाएगा या नहीं? हरिद्वार, इलाहाबाद, नाशिक और उज्जैन में लगने वाले कुम्भ
मेलों की व्यवस्था पर केन्द्र और राज्य सरकारें भारी रकम खर्च करती हैं. अमरनाथ, कैलाश-मानसरोवर
और ननकाना साहिब की यात्रा पर सरकारी सब्सिडी है. उत्तर प्रदेश सरकार
कैलाश-मानसरोवर और सिंधु-दर्शन यात्रा पर अनुदान देती है, आंध्र सरकार गोदावरी
पुष्करम कार्यक्रम पर. मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री तीर्थ-दर्शन योजना है, हरियाणा
सरकार कुरुक्षेत्र के गीता समारोह के लिए रकम देती है.
ऐसे सवाल उठेंगे, पर इन खर्चों
को बंद करने का सुझाव भी नहीं दिया जा सकता. हज यात्रियों के भी सारे खर्च बंद
नहीं होंगे. उनके रहने-सहने, खान-पान, साज-सफाई, इलाज, सुरक्षा और संचार की
जिम्मेदारी सरकार पर भी है. ये सुविधाएं हज यात्रियों के लिए भी उतनी ही जरूरी
हैं, जितनी दूसरे धर्मों से जुड़ी यात्राओं और उत्सवों में जरूरी है. सामूहिक-व्यवस्था
के खर्च और यात्री के व्यक्तिगत खर्च को अलग-अलग करके देखने की जरूरत है.
इस मामले में सांविधानिक सिद्धांत
सबसे ऊपर हैं, जो हमें भेदभाव से रोकते हैं. अलबत्ता इस बात को भी
ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत में, खासतौर से दक्षिण भारत में, बहुत बड़ी
संख्या में हिन्दू मंदिरों और ट्रस्टों पर राज्य सरकारों का नियंत्रण है. उनकी आय
सरकार के खाते में जाती है. ऐसा केवल हिन्दू धर्मस्थलों के साथ है, अन्य किसी धर्म
के साथ नहीं.
भारत में हज सब्सिडी का
चलन अंग्रेजी शासनकाल से है. सन 1932 में ब्रिटिश सरकार ने पोर्ट हज कमेटी एक्ट
बनाया. सरकारी मदद से हज कमेटियाँ बनाई गईं. हज यात्रा के लिए कोलकाता और मुम्बई
दो केन्द्र बनाए गए. सन 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट की तरह यह व्यवस्था भी
मुसमानों की माँगों को देखते हुए की गई थी. उस वक्त हज यात्रा पानी के जहाज से
होती थी, जो मुगल शिप लाइंस के जहाजों से ही की जाती थी. यह जहाज सेवा भी सरकारी
थी.
स्वतंत्रता के बाद सन
1959 में केंद्र सरकार ने 1932 के कानून को खत्म करके एक नया हज अधिनियम बनाया. सन
1973 में हज सब्सिडी में बदलाव करके पानी के जहाज की जगह हवाई यात्रा को शामिल
किया गया. हमारी धर्म-निरपेक्ष संरचना राज-व्यवस्था को धर्मों और सम्प्रदायों से
दूर नहीं करती है. धार्मिक क्रिया-कलाप यदि जीवन का अंग हैं तो उनकी सुरक्षा,
संरक्षण और व्यवस्थापन की जिम्मेदारी सरकार पर भी है. पर इसकी भी मर्यादा है.
अंततः धार्मिक क्रिया-कलाप सामुदायिक कर्म हैं, सरकारी नहीं. सरकार को स्वास्थ्य,
शिक्षा, आवास, परिवहन और दूसरी ऐसी जरूरतों पर ध्यान देना चाहिए, जो सभी समुदायों
की जरूरत है.
कई बार लगता है कि
सरकारें वह सब कर रहीं हैं, जिसकी माँग समुदाय ने नहीं की. सन 2012 में जब यह
मामला सुप्रीम कोर्ट में था, तब सब्सिडी को लेकर तत्कालीन सरकार ने कई तरह के
प्रस्ताव पेश किए. उनमें एक प्रस्ताव यह भी था कि पैसे वालों से ज्यादा पैसा लेकर
गरीबों को रियायतें दी जाएं या जीवन में केवल एकबार ही रियायत दी जाए वगैरह. हज
यात्रा की सरकारी व्यवस्था में वीआईपी कल्चर था और वह आज भी है. हज के दौरान एक
भारी शिष्टमंडल सरकारी खर्च पर जाता है. तब अदालत ने हज यात्रा का राजनीतिक लाभ
उठाने की सरकारी कोशिशों की आलोचना भी की थी. हज की सब्सिडी के साथ ऐसी सरकारी-संस्कृति
का अंत भी होना चाहिए.
true, opposition is making every decision politicised.
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