आम आदमी पार्टी ने
राज्यसभा अपनी दो सीटें ऐसे प्रत्याशियों को देने का फैसला किया, जिन्हें लेकर लोगों को विस्मय है। यह उस पार्टी का फैसला है, जिसका जन्म राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरोध में हुआ था। पिछले
कुछ दशकों का अनुभव है कि राज्यसभा में पैसे के बल पर आने वाले सदस्यों की संख्या
बढ़ी है। पिछले साल एक स्टिंग ऑपरेशन में कर्नाटक के कुछ विधायक राज्यसभा चुनाव
में वोट के लिए पैसे माँगते देखे गए। राज्य में एक वोट की कीमत सात करोड़ रुपए
बताई जा रही थी।
सन 2013 में समाचार एजेंसियों ने खबर दी कि राज्य सभा के एक सदस्य
ने एक कार्यक्रम में कहा, ‘मुझे एक व्यक्ति ने बताया
कि राज्य सभा की सीट 100 करोड़ रुपए में मिलती
है। उसने बताया कि उसे खुद यह सीट 80 करोड़ रुपए में मिली, 20 करोड़ बच गए।’ बाद में इस सांसद ने बात को घुमा दिया, पर इस बात में सच का कुछ अंश जरूर होगा।
इस हफ्ते चारा घोटाले के
एक मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव को सजा सुनाई गई। लालू यादव के
समर्थकों ने इसे जातीय आधार पर हुआ अन्याय माना। वे उन्हें नेलसन मंडेला मानते हैं।
उधर टू-जी घोटाले में सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया।
जनता समझ नहीं पा रही है कि घोटाला हुआ भी था नहीं? एक और अदालत ने
कोयला घोटाले में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को तीन साल की सजा सुनाई।
संयोग से पिछले साल के
आखिरी दिन तमिलनाडु में फिल्मी सितारे रजनीकांत ने राजनीति में आने की घोषणा की
है। उनका कहना है, मैं राजनीति के साथ
आध्यात्मिकता और ईमानदारी को जोड़ना चाहता हूँ। यह भी संयोग है कि इन्हीं दिनों
चेन्नई की आरके नगर सीट से टी.टी.वी. दिनाकरन ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में
चुनाव जीता है। खबरें हैं कि इस चुनाव में खुलाआम नोट बाँटे गए। किसका लोकतंत्र और
कहाँ की ईमानदारी?
लोकतंत्र के सैकड़ों, बल्कि हजारों साल के इतिहास का यह अटल सवाल है ‘राजनीति में ईमानदारी सम्भव भी है या नहीं?’ जनता से पूछें तो सबका जवाब एक जैसा न हो, पर सबकी चाहत है कि ईमानदारी होनी चाहिए। राजनीति
सामाजिक-आर्थिक जीवन की संचालक है। सच यह भी है कि थोड़ी बहुत बेईमानी का तत्व हम
सबके भीतर है। मौका पाकर वह बढ़ता है। पर ऐसे भी लोग हुए हैं, जो मौका मिलने पर भी ईमानदारी के रास्ते पर चले। महत्व
उन्हें मिलना चाहिए। लाल बहादुर शास्त्री और गुलजारी लाल नंदा जैसे नेता हमारे बीच
भी हुए हैं। अंततः हमें ईमानदारी चाहिए। एक संतुलित और कल्याणकारी व्यवस्था का
निर्माण तभी सम्भव है, जब शिखर पर बैठे लोग
ईमानदार हों। पर हमें लगता है कि बेईमानी का शिकंजा बहुत जबर्दस्त है। उससे पार
पाना बेहद मुश्किल है।
जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा
है, ‘दुनिया जिसे राजनीति के
नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।’ सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में राजनीतिक व्यवस्था
बन ही रही थी। पत्रकारिता जन्म ले रही थी। विचार-विनिमय पैम्फलेट के जरिए हो रहा
था। जोनाथन स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ पैम्फलेटीयर थे। तकरीबन तीन सौ साल पहले
उनकी राजनीति के बारे में ऐसी राय थी। हालांकि अंत में उन्होंने भी लिखा, ‘सत्य की ही (भले ही कितनी देर से हो) जीत होगी।’ स्विफ्ट के इस आलेख का शीर्षक है ‘द आर्ट ऑफ पोलिटिकल लाइंग(राजनीतिक झूठ बोलने की कला)।’ हम राजनीति शब्द का इस्तेमाल ही नकारात्मक अर्थों मे ही
करते हैं। पॉलिटिक्स माने क्षुद्रता, झूठ, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, लूट। यही मानकर लोग इसमें शामिल होते हैं। लोकतांत्रिक
दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले
विधायक थे, फिर भी मुख्यमंत्री बने।
उन्होंने लोकतंत्र को क्या दिया?
राजनीति अपशब्द क्यों है? क्या उसके बगैर हम काम कर
सकते हैं? क्या किसी राजव्यवस्था के
बगैर हमारा काम हो सकता है? राजव्यवस्था ज़रूरी है तो
क्या वह बगैर राजनीति के सम्भव है? क्या कारण है कि हम
राजनीति को गालियाँ देते रहते हैं? और क्या कारण है कि हम
उसे अनीति का पर्याय मान बैठे हैं? वैश्विक राजनीतिक दर्शन
है कि अंतर्विरोधी हितों के बीच बगैर किसी प्रकार के दबाव के संगति बैठाना या
निपटारा कराना राजनीति है। और ऐसा निपटारा कराने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही
एकमात्र सफल पद्धति है। इसका मतलब है कि हमें राजनीति में ऐसे लोगों की जरूरत है, जो न केवल समझदार हों,
बल्कि व्यापक
सामाजिक हित की जिनमें समझ हो।
राजनीति के हिस्से दुनिया
का सबसे मुश्किल काम है विपरीत हितों के बीच सामंजस्य बैठाना, वह भी लोकतांत्रिक तरीके से। इस लिहाज से राजनीति की हम
सबके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। क्या वह यह काम कर रही है? गौर से देखें तो जवाब मिलेगा हाँ। पर उसके पहले उन विपरीत
हितों की ओर नज़र डालें जिनके बीच संगति बैठाने का काम उसे करना है। अलग-अलग
समाजों की राजनीति भी अलग-अलग है। हम अपनी राजनीति को उसमें शामिल समाज और इतिहास
से काट कर नहीं देख सकते। उसकी खासियत है कि वह समाज से बनती है और समाज को बनाती
भी है।
चुनावी लोकतंत्र को लेकर
हमारे समाज में हमेशा विस्मय, अचम्भे और अविश्वास का
भाव रहा है। इकबाल का इकबाल की मशहूर पंक्तियाँ हैः-
इस राज़ को एक मर्दे
फिरंगी ने किया फाश/हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते/जम्हूरियत एक तर्जे हुकूमत
है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते
हम सबको बराबर नहीं मानते
हैं। हमें लगता है कि हमारे बीच कुछ लोग कम समझदार हैं, जिन्हें समझा-बुझाकर लोग सत्ता के सिंहासन पर बैठ जाएंगे।
वास्तव में हुआ भी ऐसा ही है। इसीलिए वोटरों को खुश करने (या बेवकूफ बनाने) की कला
का नाम राजनीति हो गया है। राजनीति इस देश का सबसे बड़ा बिजनेस भी है। लाखों करोड़
का कारोबार है, जिसका हिसाब-किताब अंधेरे
बंद कमरों में होता है।
सच यह है कि देश की आबादी
का काफी बड़ा हिस्सा गरीबी और बदहाली से घिरा है। उसकी जानकारी का स्तर वह है ही
नहीं कि वह राजनीतिक दलों की बहियों को पढ़ पए। वैसे ही जैसे फिल्म मदर इंडिया के
सुक्खी लाला के चोपड़े गाँव वाले नहीं पढ़ पाते थे। वे हमें इसलिए बेवकूफ बना पाते
हैं, क्योंकि हम नासमझ हैं। आप
समझदार होंगे, तो उन्हें ईमानदार भी
बनना पड़ेगा।
No comments:
Post a Comment