तमिल सिनेमा के सुपरस्टार
रजनीकांत ने अपने वायदे के अनुसार साल के आखिरी दिन राजनीति में आने की घोषणा कर
दी. उनकी पार्टी की रूपरेखा, विचारधारा और तौर-तरीकों का पता अब आने वाले दिनों
में लगेगा, पर इतना तय है कि तमिलनाडु आने वाले वक्त की राष्ट्रीय राजनीति में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. अभी हमें दूसरे सुपरस्टार कमलहासन की राजनीति का
इंतज़ार भी करना होगा. इन दोनों गतिविधियों के बरक्स परम्परागत द्रविड़ राजनीति
यानी डीएमके और एआईडीएमके के घटनाचक्र पर भी गौर करना होगा.
जिस तरह से उत्तर भारत
में ओबीसी राजनीति उतार पर है, उसी तरह तमिलनाडु में 60 साल से प्रभावी
द्रविड़-राजनीति ढलान पर है. उसके स्थान पर रजनीकांत हिन्दू रूपकों को वापस लेकर आ
रहे हैं. रविवार को उन्होंने कई बार भगवत गीता के उद्धरण दिए और कहा, ‘हमारी आध्यात्मिक राजनीति
होगी.’ द्रविड़-राजनीति ने धार्मिक प्रतीकों का उपहास उड़ाया था. वह 60 साल तक सफल
भी रही. उस राजनीति के भीतर से दूसरी द्रविड़ राजनीति भी निकली. पर एमजी रामचंद्रन
से लेकर जयललिता तक किसी ने आध्यात्मिक राजनीति का दावा नहीं किया.
जयललिता के निधन के बाद
राज्य की राजनीति में भारी उथल-पुथल है. द्रमुक पुरोधा करुणानिधि का युग बीत रहा
है. उनके बेटे एमके स्टालिन नए हैं. राज्य में ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसकी विलक्षण पहचान हो.
ऐसे में इन दोनों बड़े सिने-कलाकारों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उस शून्य को भरेगी.
इस घटनाक्रम पर केंद्रीय राजनीति की सतर्क निगाहें हैं. पहले ही बीजेपी ने
रजनीकांत के साथ सम्पर्क बना रखा है. उधर कमलहासन ने स्पष्ट किया है कि मेरी भगवा
राजनीति में दिलचस्पी नहीं है.
रजनीकांत की आध्यात्मिक छवि
है. तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति सवर्ण हिन्दू संस्कृति की विरोधी है, पर दक्षिण
भारत हिन्दू आध्यात्मिकता का केन्द्र भी है. अब यहाँ द्रविड़ राजनीति-विरोधी हवाएं
भी चलने लगी हैं. रजनीकांत उसी माहौल का लाभ लेना चाहेंगे, जिसके सहारे बीजेपी इस
इलाके में पैर जमाना चाहती है. नरेन्द्र मोदी लगातार रजनीकांत के सम्पर्क में रहे
हैं. पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ उनकी मुलाकात हुई है. इससे अनुमान
लगाया जा रहा है कि उनकी पार्टी का बीजेपी के साथ गठबंधन हो सकता है.
तमिलनाडु व्यक्ति पूजा का
केन्द्र है. वहाँ के नेताओं का कद बहुत बड़ा होता है. वर्तमान नेतृत्व का संकट इसी
वजह से पैदा हुआ है, क्योंकि वहां इस
वक्त ‘आसमानी कद’ का कोई नेता नहीं है. वहाँ
सिनेमा के साथ राजनीति का गहरा रिश्ता भी रहा है. प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री
के पहले लगातार पाँच मुख्यमंत्री सिनेमा जगत से आए थे. बीजेपी के पास इस इलाके में
बड़े राजनेता नहीं हैं. अलबत्ता रजनीकांत की ओर से अभी तक कोई सकारात्मक संकेत
नहीं है.
रजनीकांत के पीछे उनके
प्रशंसकों की भारी भीड़ है, पर राजनीतिक दल प्रशंसकों की भीड़ के सहारे नहीं,
कर्मठ कार्यकर्ताओं के सहारे खड़े होते हैं. रविवार को रजनीकांत ने कहा है कि मुझे
कार्यकर्ता नहीं संरक्षक चाहिए. ये कार्यकर्ता नए उत्साही नौजवान होंगे और पुराने
दलों से अप्रसन्न होकर इनके पास आए लोग. उनके पास राजनीतिक कर्म का अनुभव भी होगा.
इन्हें छोटे-छोटे इलाकों में अपने संगठन का विस्तार करना होगा. बीजेपी की दिलचस्पी
इसी बात में है. उसके पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता है. वह रजनीकांत
का सहारा बन सकती है.
रजनीकांत ने 2021 के
तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में सभी 234 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. पर
बीजेपी की दिलचस्पी 2019 के लोकसभा चुनाव में है. क्या दोनों एक-दूसरे के पूरक
बनेंगे? इसका जवाब अब मिलेगा. बीजेपी के लिए 2019 में दक्षिण भारत बहुत महत्वपूर्ण
है. उसे नई जमीन चाहिए, क्योंकि 2014 में जिन क्षेत्रों में उसे भारी सफलता मिली
थी, वहाँ से अब उतनी सीटें नहीं मिलेंगी.
बीजेपी ने सन 2004 के
चुनाव में तमिलनाडु और आंध्र के गठबंधनों को लेकर गलती की थी, जिसके कारण केन्द्र
में उसकी सरकार नहीं बनी. एक गलतफहमी है कि 2004 में भाजपा की हार ‘इंडिया शाइनिंग’ के कारण हुई. भाजपा की हार का मूल कारण इन दोनों राज्यों का
गणित था. आंध्र और तमिलनाडु में भाजपा के गठबंधन गलत साबित हुए. दूसरी ओर कांग्रेस
ने तेलंगाना बनाने का आश्वासन देकर अपनी सीटें सुरक्षित कर ली थीं.
सन 1999 के लोकसभा चुनाव में
भाजपा को कुल 182
सीटें मिलीं थीं, जो 2004 में 138 रह गईं. यानी 44 का नुकसान हुआ. इसके
विपरीत कांग्रेस की सीटें 114 से बढ़कर 145 हो गईं. यानी 31 का लाभ हुआ. यह सारा लाभ
तमिलनाडु और आंध्र से पूरा हुआ था. 1999 में इन दोनों राज्यों से कांग्रेस की सात सीटें थीं, जो 2004 में 39 हो गईं. इन 39 में से 29 आंध्र में थीं, जहाँ 1999 में उसके पास केवल पाँच
सीटें थीं. कांग्रेस को केवल लोकसभा में ही सफलता नहीं मिली. उसे आंध्र विधानसभा
के चुनाव में भी शानदार सफलता मिली, और वाईएसआर रेड्डी एक ताकतवर मुख्यमंत्री के रूप में
स्थापित हुए.
सवाल है कि यदि रजनीकांत
का झुकाव बीजेपी की तरफ रहा तो क्या कमलहासन का झुकाव डीएमके की तरफ होगा? क्या कांग्रेस भी इस
गठजोड़ में होगी? ऐसे कई सवाल हैं. पर सबसे बड़ा सवाल जनता की उम्मीदों का है. तमिलनाडु में
देश की सबसे अच्छी कार्य-संस्कृति मानी जाती है. हाल के कुछ वर्षों से वहाँ के कारोबारी
और उद्योग जगत की राजनीति और प्रशासन से शिकायतें बढ़ गईं हैं. भ्रष्टाचार बढ़ता
जा रहा है. सरकारी परियोजनाओं और कार्यक्रमों में ‘कट’ की संस्कृति बढ़ती जा
रही है. यह सब राजनीति के इशारे पर हो रहा है. अद्रमुक की पिछली सरकार और द्रमुक
की उससे पहले की सरकार ने इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है. जनता इस संस्कृति से
निजात चाहती है. हाल में जयललिता की विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में वोटरों को
नकद रुपये देने की खबरे सामने आईं हैं. इन खबरों के कारण जागरुक जनता की नाराजगी
बढ़ती जा रही है. ऐसे में रजनीकांत उद्धारक के रूप में सामने आए हैं.
दक्षिण भारत में फ़िल्मी सितारों को पूजा जाता है और तमिलनाडु में रजनीकांत की हैसियत किसी फ़रिश्ते से कम नहीं आंकी जाती है किन्तु उनके विरोधी उन पर बाहरी होने का आरोप लगाने वाले हैं. हमारे हिंदी फिल्मों के सितारे तो अक्सर 'फुस्स' पटाखा साबित हुए हैं पर दक्षिण भारत इस मामले में अलग है. रजनीकांत को राजनीति में आकर पैसा तो नहीं कमाना है क्योंकि वह तो उनके पास पहले से ही बेशुमार है. अगर वो वाक़ई तमिलनाडु की सेवा करने के इरादे से राजनीति में उतरे हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए.
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