सोमवार से संसद का बजट
सत्र शुरू हो रहा है। पहले ही दिन सर्वेक्षण पेश होगा, जिससे हमें अपनी
अर्थ-व्यवस्था की दशा-दिशा का पता लगेगा। एक जमाने में बजट का मतलब सस्ता और महंगा
होता था। मध्य वर्ग की दिलचस्पी आयकर में रहती है। इस साल के विधानसभा चुनावों और अगले
लोकसभा चुनाव के बरक्स लोक-लुभावन बातों की भविष्यवाणियाँ हो रहीं हैं। पर
प्रधानमंत्री ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि लोगों को मुफ्त की चीजें नहीं, ईमानदार
शासन पसंद है। इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि सरकार कड़वी दवाई पिलाने वाली है?
इतना साफ है कि केंद्र
सरकार वित्तीय अनुशासन नहीं तोड़ेगी, पर वह जोखिम भरे फैसले भी करेगी। वित्तमंत्री
अरुण जेटली की प्राथमिकता राजकोषीय घाटे को 3.2 फीसदी पर रखने की है, जबकि यह 3.5
फीसदी को छू रहा है। इसे सीमा के भीतर रखने के लिए सरकार मुफ्तखोरी वाले लोक-लुभावन
बस्तों को बंद ही रखेगी। चुनौती संतुलन बनाने की है।
बजट अब केवल मध्यवर्ग का
दस्तावेज ही नहीं है। पिछले बीसेक साल से आयकर की दरें 10,20 और 30 फीसदी पर टिकी
हैं। जीएसटी लागू हो जाने के बाद अप्रत्यक्ष करों को लेकर अटकलें भी शेष नहीं
बचीं। पिछले साल से रेलवे बजट भी आम बजट का हिस्सा बन जाने के कारण आर्थिक-गतिविधियों
के एक और मोर्चे पर से निगाहें हटी हैं। पर बजट का गहरा राजनीतिक-निहितार्थ होता
है।
तीन या चार मसले ऐसे हैं,
जो राजनीतिक नजरिए से संवेदनशील हैं। पहला है सब्सिडी का, दूसरा ग्रामीण-जीवन,
तीसरा सामाजिक क्षेत्र यानी शिक्षा-स्वास्थ्य और महिला-बाल कल्याण और चौथा है
रोजगार। अभी तक अर्थ-व्यवस्था का लोक-लुभावन तत्व है सब्सिडी। हम जीवन के हर
क्षेत्र में सब्सिडी देते हैं। कृषि, उद्योग, बैंकिंग और वित्त
तथा सेवा क्षेत्र,
हर जगह सब्सिडी
है। सरकार सब्सिडी कम करने की कोशिश करती है, तो बदनामी मिलती है। पेट्रोलियम की
कीमतें इसका उदाहरण हैं।
इस बजट में
कोई बड़ी नाटकीय घोषणा जरूर होगी। शायद सार्वभौमिक बेसिक आय स्कीम। पिछले साल के आर्थिक
सर्वे में सरकार से सिफारिश की गई थी कि हरेक नागरिक की हर महीने एक तयशुदा आमदनी
सुनिश्चित करने के लिए ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम’ बनाई जाए। पिछले कुछ साल
से सरकार सब्सिडी की रकम को व्यक्ति के खाते में डालने का प्रयास कर रही है। क्यों
न उसे निश्चित आय की शक्ल दी जाए? ‘आधार’ और ‘जन-धन’ योजना इसी दिशा में उठाए गए कदम हैं।
ऐसे कार्यक्रम को लागू करना
आसान नहीं हैं। सबपर लागू करने लिए साधन भी नहीं हैं। पर गरीबी की रेखा के नीचे के
लोगों के लिए ऐसी योजना लागू हो सकती है। इसमें मनरेगा को भी शामिल किया जा सकता
है। मनरेगा भी लोगों की आय बढ़ाने का जरिया है। मध्य प्रदेश की एक पंचायत में
पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर ऐसी स्कीम को लागू करके देखा भी गया है।
सम्भावना है कि इस योजना
की शुरुआत इस वर्ष प्रारंभिक तौर पर की जाएगी। सन 2018 के विधानसभा चुनाव और 2019 के
आम चुनाव तक इसकी सम्भावनाओं से जनता को परिचित कराया जा सकता है। तब तक जीएसटी
में स्थिरता आ जाएगी, राजस्व की स्थिति बेहतर होगी और आर्थिक-संवृद्धि की गति तेज
हो चुकी होगी। यह योजना मनरेगा का विस्तार होगी। दुनिया में यह अपने किस्म का नया
प्रयोग होगा। फिनलैंड और कनाडा में ऐसे प्रयोग चल रहे हैं।
केंद्रीय बजट में राज्यों
के लिए भी कुछ संकेत होते हैं। केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 14वें
वित्तीय आयोग की संस्तुतियों के आधार पर बढ़ गई है। सन 2014-15 में राज्यों को
जीडीपी के प्रतिशत के रूप में 2.7 फीसदी की हिस्सेदारी मिल रही थी, जो पिछले साल
के बजट अनुमानों में 6.4 फीसदी हो गई थी। केंद्रीय राजस्व में वृद्धि राज्यों के
स्वास्थ्य के लिए अच्छी खबर होती है। जीएसटी के कारण अप्रत्यक्ष करों और नोटबंदी
के कारण प्रत्यक्ष करों में किस दर से वृद्धि हुई है, इसका पता अब लगेगा।
पिछले महीने जब गुजरात
विधानसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे, तब विशेषज्ञों ने कहा था कि अगले बजट में
सरकार को कृषि क्षेत्र पर छाए संकट को देखते हुए कुछ कार्यक्रमों की घोषणा करनी
होगी। गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में बीजेपी को विफलता मिली। किसान परेशान हैं। पिछले
बजट में वित्तमंत्री ने 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का दावा कया था। सरकार
ग्रामीण क्षेत्र में खर्च बढ़ाने की घोषणा कर सकती है। सिंचाई में केंद्रीय मदद बढ़
सकती है। किसानों को फसल का मूल्य सुनिश्चित कराने के लिए मध्य प्रदेश की ‘भावांतर’ जैसी योजना को पूरे देश
में लागू किया जा सकता है।
ऐसे ही सवाल सामाजिक
क्षेत्रों से जुड़े खर्चों के बारे में हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे
पिछड़े राज्यों में सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला औसत व्यय विकसित राज्यों के
मुकाबले काफी कम है। राज्य सरकारें भी अपने राजकोषीय घाटे को सीमा के भीतर रखना
चाहती हैं। केंद्रीय बजट में भी या तो कटौती हुई है या वृद्धि मामूली रही है। यही
स्थिति शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य की है।
चालू वर्ष में स्थिति हाथ
के बाहर नहीं निकल पाने की एक बड़ी वजह थी पिछले बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर पर भारी
निवेश। पिछले साल पूँजीगत व्यय में 25.4 फीसदी की भारी वृद्धि करके सरकार ने
निर्माण कार्यों में बड़े सरकारी निवेश का रास्ता खोला था। इंफ्रास्ट्रक्चर पर
3,96,135 करोड़ रुपये का आबंटन बहुत बड़ा फैसला था। देश में इतने बड़े स्तर पर
निर्माण पर निवेश पहले कभी नहीं हुआ। इस सरकारी निवेश के कारण देशभर में सड़कों का
जाल फैल रहा है।
प्रधानमंत्री कौशल
केन्द्रों को 60 जिलों से बढ़ाकर देशभर के 600 जिलों में फैलाने की घोषणा पिछले
साल की गई थी। देशभर में 100 भारतीय अंतर्राष्ट्रीय कौशल केन्द्र स्थापित करने का
दावा किया गया था। इन कार्यक्रमों का विस्तार इस बजट में देखने को मिलेगा।
मध्य वर्ग को आयकर में
राहत और उपभोक्ता सामग्री पर छूटों का इंतजार रहता है। कहा जा रहा है कि
वित्तमंत्री आयकर के स्लैब्स में बदलाव करेंगे। कुछ लोगों का अनुमान है कि इसबार
वित्तमंत्री आयकर छूट की सीमा बढ़ाकर 5 लाख कर देंगे। छूट की सीमा वर्तमान ढाई लाख
से बढ़ाकर तीन लाख भी कर दी, तो वेतनभोगी वर्ग प्रसन्न होगा। आयकर का एक चौथा
स्लैब भी घोषित किया जा सकता है और 5-10 लाख की आय को 10 फीसदी के दायरे में रखा
जा सकता है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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