विदेशी शिक्षा संस्थान फिर से दस्तक दे रहे हैं. खबर है कि नीति आयोग ने देश में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस खोले जाने का समर्थन किया है. आयोग ने पीएमओ और मानव संसाधन मंत्रालय के पास भेजी अपनी रपट में सुझाव दिया है कि विश्व प्रसिद्ध विदेशी शिक्षा संस्थाओं को भारत में अपने कैम्पस खोलने का निमंत्रण देना चाहिए. खास बात यह है कि आयोग ने यह रपट अपनी तरफ से तैयार नहीं की है. मानव संसाधन मंत्रालय और पीएमओ की यह पहल है.
पिछले साल जून में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सिलसिले में बैठक बुलाई थी, जिसके बाद नीति आयोग ने इसपर काम शुरू किया था. घूम-फिरकर एनडीए सरकार इस मामले में भी यूपीए के रास्ते पर आ गई है. सन 2010 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने लोकसभा में विदेशी शिक्षा संस्थान विधेयक पेश किया था. तब भाजपा ने विधेयक का विरोध किया था. अंततः मामला आया-गया हो गया. पर अब सरकार जो नई शिक्षा नीति लाने वाली है उसमें विदेशी विश्वविद्यालयों की भी जिक्र हो सकता है.
नीति आयोग की सलाह है कि विदेशी शिक्षा प्रदाताओं के भारत में प्रवेश के रास्ते बनाने चाहिए. इन विश्वविद्यालयों के संचालन के लिए नया कानून बनाया जाए. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 और डीम्ड विश्वविद्यालय नियमन में संशोधन करने इन विश्वविद्यालयों को डीम्ड विश्वविद्यालय की श्रेणी में रखा जाए. इसके साथ ही भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों की संयुक्त व्यवस्था की अनुमति भी दी जाए. विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना से देश को मानव संसाधन के अलावा वित्तीय लाभ भी होगा. उच्चस्तरीय शिक्षा संस्थान की स्थापना में पूँजीगत व्यय के अलावा गुणात्मक तकनीक, शोध और नवोन्मेष की जरूरत होती है. विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश से यह काम आसान होगा.
वैश्वीकरण की यह तार्किक परिणति है. नई आर्थिक नीति के साथ ही इसकी शुरुआत हो गई थी. पहला विधेयक 1995 में पेश किया गया, वह कानून नहीं बना. फिर 2005-06 में विधेयक का मसौदा तैयार हुआ, पर वह कैबिनेट के आगे नहीं गया. इसके बाद 2010 में यूपीए सरकार ने विधेयक पेश किया, जो 2014 में जाकर लैप्स हो गया. भाजपा, वामपंथी दल और समाजवादी पार्टी ने इसका विरोध किया. कहना मुश्किल है कि अब वामपंथी दलों के साथ खड़ी कांग्रेस इसका समर्थन करेगी या नहीं. तब कपिल सिब्बल ने कहा था कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से देश में शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आएगा. यही तर्क आज नीति आयोग का है. सिर्फ पात्र बदले हैं. देखना होगा कि सिब्बल जी आज क्या कहते हैं.
भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के विरोध के कई तर्क हैं. पहला तर्क औपनिवेशिक मनोदशा का है. जो विदेशी है, उसका विरोध होना ही चाहिए. यह शिक्षा महंगी होगी. सामान्य छात्र की पहुँच के बाहर. सन 2010 में जब यह पहल शुरू हुई थी तब कहा गया था कि देशी विश्वविद्यालयों से इनकी प्रतिस्पर्धा घातक होगी. पूँजी का जितना निवेश विदेशी संस्थाओं में होगा उतना देशी संस्थाओं में नहीं. हमारे संस्थान तो पहले ही उपेक्षा की मार झेल रहे हैं. रही-सही कसर विदेशी निवेश से पूरी हो जाएगी. सरकार शिक्षा की शुभचिंतक होती तो देशी विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने की ओर ध्यान देती. देश को आजाद हुए 69 वर्ष बीत चुके हैं. इन 69 वर्षों में विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्तियों की सूची में कई भारतीयों के नाम शामिल हो चुके हैं, पर साढ़े सात सौ विश्वविद्यालयों और करीब 38 हजार कॉलेजों में एक ऐसा नहीं है जो दुनिया के 100 सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हो सके. केवल उच्च शिक्षा ही नहीं सम्पूर्ण शिक्षा मिट्टी में मिली हुई है.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार देश में 744 छोटे-बड़े विश्वविद्यालय हैं. उनसे जुड़े कॉलेजों की संख्या हजारों में है, लेकिन हमारा एक भी विश्वविद्यालय क्यूएस रैंकिंग के टॉप 100 में शामिल नहीं है. पिछले साल पहली बार टॉप 200 में भारत के दो संस्थानों को जगह मिली. इनमें एक है इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु (147) और आईआईटी दिल्ली (179). हम क्यों नहीं एमआईटी, हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड और येल के कैम्पस अपने यहाँ खोलें? उनके पास विशेषज्ञता है और संसाधन भी.
सवाल है कि इन संस्थानों को रोककर क्या देशी शिक्षा व्यवस्था उन्नत हो जाएगी? विकल्प के अभाव में लोग अपने बच्चों को बाहर भेजते ही हैं. युनेस्को इंस्टीट्यूट ऑफ स्टैटिस्टिक्स के अनुसार सन 2012 में भारत के 2,00,000 छात्र पढ़ने के लिए विदेश गए. दुनिया के सबसे ‘मोबाइल छात्रों’ में चीन के बाद भारतीय दूसरे नम्बर पर हैं. भारत के दो लाख छात्रों के मुकाबले उस साल चीन के सात लाख छात्र विदेश पढ़ने गए थे. आज यह संख्या और बड़ी होगी. इनके कैम्पस भारत में होंगे तो फीस कुछ कम होगी. आवास भी सस्ता होगा. विदेशी छात्र भी आ सकते हैं. हमने हैल्थकेयर में विदेशियों को आकर्षित किया है। शिक्षा का हब भी भारत बन सकता है. कभी तक्षशिला और नालंदा थे या नहीं? यों भी भारतीय अर्थ-व्यवस्था की माँग को पूरा करने के लिए उपयोगी शिक्षा की जरूरत है.
भारत में उच्च शिक्षा में सकल पंजीकरण अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो या जीईआर) सुधरा है. सन 2012-13 में यह 21.5 फीसदी था जो 2014-15 में 23.6 फीसदी हो गया. जीईआर 18-23 की उम्र के बीच की कुल अर्हत आबादी के मुकाबले शिक्षा संस्थानों में पंजीकृत व्यक्तियों का अनुपात है. विकसित देशों में यह अनुपात 50 फीसदी से ऊपर होता है. मानव विकास का यह महत्वपूर्ण कारक है. इस लिहाज से अभी हमें शिक्षा संस्थानों की काफी बड़ी संख्या चाहिए. सरकार सिर्फ अपने बूते पर जीईआर के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकती. इसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी भी चाहिए.
निजी क्षेत्र यह काम मुनाफे के लिए ही करेगा. आरोप है कि निजी क्षेत्र के विद्यालय भारी फीस लेकर दाखिला देंगे. डोनेशन का मायाजाल पहले से चल रहा है. पर इन चीजों को ठीक होने में समय लगेगा. कुछ समय पहले एमबीए की डिग्री हासिल करने की प्रतियोगिता चली. कुकुरमुत्ते की तरह संस्थाएं खुल गईं. बड़ी संख्या में ऐसे एमबीए तैयार हो गए जो उपयोगी नहीं थे. इंजीनियरी और चिकित्सा-शिक्षा के साथ भी ऐसा हुआ है. इसके लिए नियमन की जरूरत होगी. उच्च स्तरीय विदेशी संस्थानों को इस आधार पर रोका भी तो नहीं जाना चाहिए. कड़े नियमन लागू कीजिए. प्रभात खबर में प्रकाशित
पिछले साल जून में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सिलसिले में बैठक बुलाई थी, जिसके बाद नीति आयोग ने इसपर काम शुरू किया था. घूम-फिरकर एनडीए सरकार इस मामले में भी यूपीए के रास्ते पर आ गई है. सन 2010 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने लोकसभा में विदेशी शिक्षा संस्थान विधेयक पेश किया था. तब भाजपा ने विधेयक का विरोध किया था. अंततः मामला आया-गया हो गया. पर अब सरकार जो नई शिक्षा नीति लाने वाली है उसमें विदेशी विश्वविद्यालयों की भी जिक्र हो सकता है.
नीति आयोग की सलाह है कि विदेशी शिक्षा प्रदाताओं के भारत में प्रवेश के रास्ते बनाने चाहिए. इन विश्वविद्यालयों के संचालन के लिए नया कानून बनाया जाए. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 और डीम्ड विश्वविद्यालय नियमन में संशोधन करने इन विश्वविद्यालयों को डीम्ड विश्वविद्यालय की श्रेणी में रखा जाए. इसके साथ ही भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों की संयुक्त व्यवस्था की अनुमति भी दी जाए. विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना से देश को मानव संसाधन के अलावा वित्तीय लाभ भी होगा. उच्चस्तरीय शिक्षा संस्थान की स्थापना में पूँजीगत व्यय के अलावा गुणात्मक तकनीक, शोध और नवोन्मेष की जरूरत होती है. विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश से यह काम आसान होगा.
वैश्वीकरण की यह तार्किक परिणति है. नई आर्थिक नीति के साथ ही इसकी शुरुआत हो गई थी. पहला विधेयक 1995 में पेश किया गया, वह कानून नहीं बना. फिर 2005-06 में विधेयक का मसौदा तैयार हुआ, पर वह कैबिनेट के आगे नहीं गया. इसके बाद 2010 में यूपीए सरकार ने विधेयक पेश किया, जो 2014 में जाकर लैप्स हो गया. भाजपा, वामपंथी दल और समाजवादी पार्टी ने इसका विरोध किया. कहना मुश्किल है कि अब वामपंथी दलों के साथ खड़ी कांग्रेस इसका समर्थन करेगी या नहीं. तब कपिल सिब्बल ने कहा था कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से देश में शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आएगा. यही तर्क आज नीति आयोग का है. सिर्फ पात्र बदले हैं. देखना होगा कि सिब्बल जी आज क्या कहते हैं.
भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के विरोध के कई तर्क हैं. पहला तर्क औपनिवेशिक मनोदशा का है. जो विदेशी है, उसका विरोध होना ही चाहिए. यह शिक्षा महंगी होगी. सामान्य छात्र की पहुँच के बाहर. सन 2010 में जब यह पहल शुरू हुई थी तब कहा गया था कि देशी विश्वविद्यालयों से इनकी प्रतिस्पर्धा घातक होगी. पूँजी का जितना निवेश विदेशी संस्थाओं में होगा उतना देशी संस्थाओं में नहीं. हमारे संस्थान तो पहले ही उपेक्षा की मार झेल रहे हैं. रही-सही कसर विदेशी निवेश से पूरी हो जाएगी. सरकार शिक्षा की शुभचिंतक होती तो देशी विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने की ओर ध्यान देती. देश को आजाद हुए 69 वर्ष बीत चुके हैं. इन 69 वर्षों में विश्व के सर्वाधिक धनी व्यक्तियों की सूची में कई भारतीयों के नाम शामिल हो चुके हैं, पर साढ़े सात सौ विश्वविद्यालयों और करीब 38 हजार कॉलेजों में एक ऐसा नहीं है जो दुनिया के 100 सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हो सके. केवल उच्च शिक्षा ही नहीं सम्पूर्ण शिक्षा मिट्टी में मिली हुई है.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार देश में 744 छोटे-बड़े विश्वविद्यालय हैं. उनसे जुड़े कॉलेजों की संख्या हजारों में है, लेकिन हमारा एक भी विश्वविद्यालय क्यूएस रैंकिंग के टॉप 100 में शामिल नहीं है. पिछले साल पहली बार टॉप 200 में भारत के दो संस्थानों को जगह मिली. इनमें एक है इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु (147) और आईआईटी दिल्ली (179). हम क्यों नहीं एमआईटी, हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड और येल के कैम्पस अपने यहाँ खोलें? उनके पास विशेषज्ञता है और संसाधन भी.
सवाल है कि इन संस्थानों को रोककर क्या देशी शिक्षा व्यवस्था उन्नत हो जाएगी? विकल्प के अभाव में लोग अपने बच्चों को बाहर भेजते ही हैं. युनेस्को इंस्टीट्यूट ऑफ स्टैटिस्टिक्स के अनुसार सन 2012 में भारत के 2,00,000 छात्र पढ़ने के लिए विदेश गए. दुनिया के सबसे ‘मोबाइल छात्रों’ में चीन के बाद भारतीय दूसरे नम्बर पर हैं. भारत के दो लाख छात्रों के मुकाबले उस साल चीन के सात लाख छात्र विदेश पढ़ने गए थे. आज यह संख्या और बड़ी होगी. इनके कैम्पस भारत में होंगे तो फीस कुछ कम होगी. आवास भी सस्ता होगा. विदेशी छात्र भी आ सकते हैं. हमने हैल्थकेयर में विदेशियों को आकर्षित किया है। शिक्षा का हब भी भारत बन सकता है. कभी तक्षशिला और नालंदा थे या नहीं? यों भी भारतीय अर्थ-व्यवस्था की माँग को पूरा करने के लिए उपयोगी शिक्षा की जरूरत है.
भारत में उच्च शिक्षा में सकल पंजीकरण अनुपात (ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो या जीईआर) सुधरा है. सन 2012-13 में यह 21.5 फीसदी था जो 2014-15 में 23.6 फीसदी हो गया. जीईआर 18-23 की उम्र के बीच की कुल अर्हत आबादी के मुकाबले शिक्षा संस्थानों में पंजीकृत व्यक्तियों का अनुपात है. विकसित देशों में यह अनुपात 50 फीसदी से ऊपर होता है. मानव विकास का यह महत्वपूर्ण कारक है. इस लिहाज से अभी हमें शिक्षा संस्थानों की काफी बड़ी संख्या चाहिए. सरकार सिर्फ अपने बूते पर जीईआर के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकती. इसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी भी चाहिए.
निजी क्षेत्र यह काम मुनाफे के लिए ही करेगा. आरोप है कि निजी क्षेत्र के विद्यालय भारी फीस लेकर दाखिला देंगे. डोनेशन का मायाजाल पहले से चल रहा है. पर इन चीजों को ठीक होने में समय लगेगा. कुछ समय पहले एमबीए की डिग्री हासिल करने की प्रतियोगिता चली. कुकुरमुत्ते की तरह संस्थाएं खुल गईं. बड़ी संख्या में ऐसे एमबीए तैयार हो गए जो उपयोगी नहीं थे. इंजीनियरी और चिकित्सा-शिक्षा के साथ भी ऐसा हुआ है. इसके लिए नियमन की जरूरत होगी. उच्च स्तरीय विदेशी संस्थानों को इस आधार पर रोका भी तो नहीं जाना चाहिए. कड़े नियमन लागू कीजिए. प्रभात खबर में प्रकाशित
18 अप्रैल 2016 के इंडियन एक्सप्रेस का यह सम्पादकीय भी पढ़ें
College chale hum
The hunger for higher education is manifesting
itself even in the poorest parts of India today
Nabarangpur in Odisha will finally get its first functional government
degree college from the next academic session starting July. This is no small
development; it is indicative of the winds of change whose effects are being
seen even in the country’s poorest district that is the focus of a year-long
assignment by The Indian Express. In 2000, all Nabarangpur schools put together
churned out a mere 700 students who cleared their Class X. But last year, the
figure crossed 8,400. The fact that many of these students are now going to
neighbouring Koraput district for pursuing pre-university and degree education
— Nabarangpur’s existing two private-run colleges neither have the required
number of seats nor the faculty and infrastructure — only shows how much behind
the curve the state and district administrations were. The explosion in demand
for higher education is something governments are yet to come to terms with,
given their understandable emphasis on improving primary and secondary school
literacy levels.
According to the ministry of human resource development statistics,
India currently has over 300 million children in the 6-17 years age group. Of
these, about 255 million, or 85 per cent, are enrolled in schools. At the same
time, there are more than 140 million Indians aged between 18 and 23, with
nearly 30 million of these, or just above a fifth, enrolled in colleges. The
latter numbers will swell in the coming years, more so with the farm sector’s
declining contribution to both output and employment. The period between 2004-05
and 2011-12 actually saw, for the first time, the country’s population engaged
in agriculture register a decline in relative (from 56.7 to 48.8 per cent of
the total labour force) as well as absolute (from 259 to 228 million) terms.
This trend will only intensify as rural folk, even in places like Nabarangpur,
increasingly envisage a future for their children outside agriculture.
Education obviously holds the master key here.
The resultant hunger for higher education, unprecedented in scale and
across communities, obviously presents huge challenges. These relate not merely
to quantity — the number of colleges — but also quality. More than 40 per cent
of enrolments at the undergraduate level are in the arts and social sciences
streams. The employability of many of those earning degrees from these
disciplines is questionable. Even with regard to the 20 per cent or so enrolled
in engineering and IT/computer courses, there are legitimate concerns over the
quality of education offered in most institutions vis-à-vis the skill sets
required by the industry. Matters are worse when education also begets a
disdain for manual labour and working with one’s hands. Addressing these issues
in a nation of aspirational youth, some 12 million of who join its workforce
every year, will not be easy.
पूँजी का जितना निवेश विदेशी संस्थाओं में होगा उतना देशी संस्थाओं में नहीं. हमारे संस्थान तो पहले ही उपेक्षा की मार झेल रहे हैं. रही-सही कसर विदेशी निवेश से पूरी हो जाएगी. सरकार शिक्षा की शुभचिंतक होती तो देशी विश्वविद्यालयों की दशा सुधारने की ओर ध्यान देती.
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