Saturday, April 23, 2016

पेचीदगियों से भरा ‘संघ मुक्त भारत’ अभियान

लोकतंत्र की रक्षा के लिए नीतीश कुमार ‘संघ मुक्त’ भारत कार्यक्रम लेकर आ रहे हैं। पर उसके पहले वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति को बेहतर बनाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने दल की राष्ट्रीय अध्यक्षता को सम्हाला है। वे जल्द से जल्द बीजेपी विरोधी दलों की व्यापक एकता के केन्द्र में आना चाहते हैं। वे कहते हैं कि यह काम कई तरह से होगा। कुछ दलों का आपस में मिलन भी हो सकता है। कई दलों का मोर्चा और गठबंधन भी बन सकता है। कोई एक संभावना नहीं है, अनेक संभावनाएं हैं। इस मोर्चे की प्रक्रिया और पद्धति का दरवाजा खुला है। पिछले पचासेक साल से यह प्रक्रिया चल रही है। बहरहाल अब नीतीश कुमार ने इसमें कांग्रेस को भी शामिल करके इसे नई दिशा दी है। जिससे इस अवधारणा के अंतर्विरोध बढ़ गए हैं।


मोदी-विरोधी राजनीति का पहला धमाका पिछले साल बिहार में महा-गठबंधन के रूप में हुआ था। फिर इस साल बंगाल में कांग्रेस और वाम मोर्चा के गठबंधन ने इसे नया आयाम दिया। दोनों पक्ष इसे गठबंधन कहने में अभी सकुचा रहे हैं। नीतीश कुमार का कहना है कि हम सामाजिक विद्वेष पैदा करने वाली राजनीति के खिलाफ हैं। पर उन्होंने जाने-अनजाने मान लिया है कि अब केवल भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी है। और यह भी कि विपक्ष बँटा हुआ है, जिसे वे जोड़ना चाहते हैं। जैसे बिहार में जोड़ा। और यह कि भाजपा को हराने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर महा-गठबंधन की जरूरत है। कांग्रेस ने भी कहा है कि हमें इस प्रकार के धर्म निरपेक्ष गठबंधन में शामिल होने से गुरेज नहीं है। हम तो यों भी भाजपा-विरोधी हैं।

कांग्रेस का ‘हमें बचाओ’ अभियान

नीतीश कुमार के इस अभियान में कई खतरे अंतर्निहित हैं। नीतीश और कांग्रेस दोनों के लिए। दोनों के लिए यह अंतिम हथियार है। सफल हो गया तब भी और विफल हुआ तब भी। सफल होने पर नेतृत्व, संगठन और कार्यक्रमों को लेकर अंतर्विरोध पैदा होगा। कांग्रेस गठबंधन बनाने की आदी नहीं है। सन 1990 में चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाकर कुछ महीनों के भीतर हाथ खींच लिया था। फिर 1996 से 1998 के बीच संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों को बनाया और गिराया। फिर 2004 में वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से यूपीए बना और 2008 में गठजोड़ टूटा। इसके बाद भी यूपीए-2 के ज्यादातर अंतर्विरोध गठबंधन से जुड़े थे, जिन्हें मनमोहन सिंह मजबूरी कहते थे। गठबंधनों के लिए वह फिर तैयार है तो इसलिए क्योंकि अब अकेले उससे कुछ होना नहीं है। इसे ‘संघ-मुक्त’ के साथ-साथ ‘कांग्रेस बचाओ’ अभियान भी कह सकते हैं।

इस मोड़ पर कांग्रेस और नीतीश कुमार दोनों एक-दूसरे की जान बचाने के बारे में सोच रहे हैं। इस योजना के सूत्रधारों में वामपंथी दल भी शामिल हैं। अभी यह खिचड़ी बनी नहीं है। अलबत्ता इसमें कई रंगत की राजनीति का जुड़ना इसकी बुनियादी कमजोरी की ओर इशारा कर रहा है। यह राजनीति मोदी-विरोध में है। किसी नए विचार की वाहक नहीं। यह नकारात्मक बात इसकी दूसरी कमजोरी है। नीतीश का कहना है कि गैर-बीजेपी दलों की एकजुटता का मतलब विचारधारा और सुशासन का न्यूनतम साझा कार्यक्रम होगा। अगली साँस में वे यह भी कहते हैं कि इस मोर्चे में कोई भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं होगा। जनता इस बारे में तय करेगी कि कौन इसके लायक है। यह किसी महत्वपूर्ण बात की पेशबंदी है।

1989 की वापसी

सत्ताधारी दल के खिलाफ विरोधियों की राष्ट्रीय छतरी बनाने की जरूरत का प्रतिपादन साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने किया था। पहले 1977 में और फिर 1989 में इस छतरी के नीचे बनी सरकारें ज्यादा नहीं चलीं। इसके बाद 1996 में कहानी बदलने लगी। गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर बनी एकता कांग्रेस की बैसाखी पर खड़ी हुई और बार-बार गिरी। पहले चन्द्रशेखर, फिर देवेगौडा और फिर इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार बनाने और गिराने में कांग्रेस की भूमिका थी। संयोग से आज की स्थिति 1989 जैसी है, जब पूरा विपक्ष एकसाथ था। फर्क इतना है कि तब यह एकता कांग्रेस के खिलाफ थी और आज बीजेपी के खिलाफ है।

पिछले दशक में राष्ट्रीय राजनीति में धीरे-धीरे दो ध्रुव बने हैं। पर कांग्रेस के पराभव से शून्य पैदा हो रहा है, जिसे भरने के लिए क्षेत्रीय क्षत्रप आगे आ रहे हैं। नीतीश कुमार भी उनमें से एक हैं। पर राष्ट्रीय स्तर पर अब भी दो ही बड़े घटक हैं। कांग्रेस अभी खत्म नहीं हुई है। पर नीतीश कुमार संयुक्त मोर्चे की वापसी चाहते हैं और कांग्रेस का साथ भी। पर उन्होंने या तो इस बात के अंतर्विरोधों पर विचार किया नहीं है या उन्हें भरोसा है कि उनपर विजय पा लेंगे। इसीलिए वे कहते हैं कि यह काम कई तरह से होगा। यानी कह सकते कि 2019 के चुनाव में नीतीश कुमार किसी महागठबंधन के साथ उतरेंगे या किसी एक दल के रूप में।

बिहार नहीं, यह उत्तर प्रदेश है
फिलहाल उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले वे अपने जेडीयू का विस्तार करने की कोशिश कर रहे हैं। चौधरी अजित सिंह के साथ उनका मिलाप हो रहा है। शायद दो-एक और पार्टियों के साथ उनका विलय हो। पर यह विलय पहली कतार के दलों के साथ नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में धमाका नहीं कर पाए तो 2019 की योजनाओं को धक्का लगेगा।

पिछले साल बिहार विधानसभा के चुनाव के समय से ही नीतीश कुमार के समर्थक उन्हें राष्ट्रीय स्तर का नेता साबित करने के प्रयास में हैं। भावी प्रधानमंत्री। बिहार में उनकी सरकार का काम-काज भी अच्छा रहा है। उनकी पहचान भले ही राष्ट्रीय बन जाए, पर उनके पीछे राष्ट्रीय ताकत नहीं है। वे असम में ही गठबंधन बनाने में कामयाब नहीं हुए। वे गठबंधन बनाने में कामयाब हुए भी तो क्या वे उसके नेता बन पाएंगे? देश में आज भी सबसे बड़ा संगठन कांग्रेस के पास है। भाजपा से भी बड़ा। इसलिए नीतीश को कांग्रेस की शरण में जाना होगा।

इस बात की कल्पना नहीं करनी चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर बने महा-गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस नहीं करेगी। सन 2014 के चुनाव के पहले जो गठबंधन बनाने की कोशिश की जा रही थी, वह तीसरा मोर्चा था। अब नीतीश कुमार तीसरा नहीं दूसरा मोर्चा बनाने की बात कर रहे हैं। सच यह भी है कि वे बिहार के निर्विवाद नेता भी नहीं हैं। उनसे बड़े नेता लालू यादव साबित हो चुके हैं। वहाँ लालू, नीतीश और कांग्रेस को मिलकर सफलता मिली है। यह एकता टूटी तो परिणाम एकदम पलटेंगे। उत्तर प्रदेश में बिहार का फॉर्मूला लागू होने वाला भी नहीं है।

क्षेत्रीय राजनीति के मुहावरे अलग
बिहार चुनाव के ठीक पहले मुलायम सिंह ने इस गठबंधन से हाथ खींच लिया था। और अब नीतीश कुमार की इस घोषणा के बाद सबसे पहले समाजवादी पार्टी ने घोषणा की है कि हमारी दिलचस्पी किसी गठबंधन में शामिल होने की नहीं है। क्षेत्रीय राजनीति के अपने मुहावरे हैं। वह केवल मोदी या भाजपा-विरोधी नारों से संचालित नहीं होगी। कांग्रेस ने बंगाल में वाम मोर्चे के साथ गठबंधन किया है। पर यह भाजपा-विरोधी नहीं, ममता-विरोधी मोर्चा है। इसका फायदा उसे मिलेगा या नहीं, इसका पता अगले महीने चुनाव परिणाम आने के बाद लगेगा। पर इस गठबंधन के कई पेच हैं, जो केरल में कांग्रेस को परेशान करेंगे। इसका दूसरा मतलब यह भी है कि बंगाल में नीतीश-कांग्रेस गठबंधन को ममता का नहीं वाम मोर्चा का सहारा मिलेगा।

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु की 81 सीटें शुद्ध रूप से स्थानीय दलों के प्रभाव में हैं। इन दलों की राजनीति गैर-कांग्रेस या गैर-भाजपावाद से निर्धारित नहीं होती। कर्नाटक में जनता परिवार का वारिस देवेगौडा का जेडीएस है, पर उसकी पटरी कांग्रेस के साथ नहीं बैठेगी। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात में बीजेपी और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है। केवल राजस्थान में जनता परिवार का कुछ असर है। पर कांग्रेस वहाँ किसी दूसरे को नेतृत्व में क्यों आने देगी?

नीतीश कुमार के मित्रों में आम आदमी पार्टी भी है, पर पंजाब में वह कांग्रेस की मुख्य विरोधी है। यों भी ‘आप’ और कांग्रेस के औपचारिक रूप से एक खेमे में आने की सम्भावना कम हैं। एंटी-मोदी राजनीति में ‘आप’ आगे है, पर कांग्रेसी खेमे में बैठना उसके लिए आत्मघाती होगा। जनता परिवार का एक महत्वपूर्ण दल उड़ीसा का बीजू जनता दल है। वह भी कांग्रेस-विरोध के कारण इस गठबंधन के साथ नहीं आएगा। क्षेत्रीय राजनीति के पेचों को सुलझाना आसान नहीं है। और उन्हें सुलझाए बगैर राष्ट्रीय मोर्चा बनाना बेहद मुश्किल होगा।

राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

1 comment:

  1. संघ ही भाजपा है और भाजपा ही संघ ... आप जैस प्रबुध पत्रकार ऐसा जब कहते हैं तो अफ़सोस ही होता है ... भाजपा मुक्त भारत तो कई बार रहा है और आगे भी रह सकता है ... पर संघ मुक्त भारत ... बचकानी सोच का प्रतीक मात्र है ... आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे ...

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