एनआईटी श्रीनगर की घटना सामान्य छात्र की समस्याओं से जुड़ा मामला नहीं है। जैसे जेएनयू, जादवपुर या हैदराबाद की घटनाएं राजनीति से जोड़ी जा सकती हैं, श्रीनगर की नहीं। देश के ज्यादातर दलों के छात्र संगठन भी हैं। जाहिर है कि युवा वर्ग को किसी उम्र में राजनीति के साथ जुड़ना ही होगा, पर किस तरीके से? हाल में केरल के पलक्कड़ के सरकारी कॉलेज के छात्रों ने अपनी प्रधानाचार्या की सेवानिवृत्ति पर उन्हें कब्र खोदकर प्रतीक रूप से उपहार में दी। संयोग से छात्र एक वामपंथी दल से जुड़े थे। सामाजिक जीवन से छात्रों को जोड़ने के सबसे बड़े हामी वामपंथी दल हैं, पर यह क्या है?
संकीर्ण राष्ट्रवाद को उन्मादी विचारधारा साबित किया जा सकता है। खासतौर से तब जब वह समाज के एक ही तबके का प्रतिनिधित्व करे। पर भारतीय राष्ट्र-राज्य राजनीतिक दलों का फुटबॉल नहीं है। वह तमाम विविधताओं के साथ देश का प्रतिनिधित्व करता है। आप कितने ही बड़े अंतरराष्ट्रीयवादी हों, राष्ट्र-राज्य के सवालों का सामना आपको करना होगा। सन 1947 के बाद भारत का गठन-पुनर्गठन सही हुआ या नहीं, इस सवाल बहस कीजिए। पर फैसले मत सुनाइए। जेएनयू प्रकरण में भारतीय राष्ट्र-राज्य पर हुए हमले को सावधानी के साथ दबा देने का दुष्परिणाम श्रीनगर की घटनाओं में सामने आया है। भारत के टुकड़े करने की मनोकामना का आप खुलेआम समर्थन करें और कोई जवाब भी न दे।
चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन को पहले ही काफी हद तक तोड़ दिया है। हमारे साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय अंतर्विरोधों को खुलकर खोला गया है। पर अब भारत की अवधारणा पर हमले के खतरों को भी समझ लेना चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि जेएनयू का घटनाक्रम असम, बंगाल और केरल के चुनावों से जुड़ गया? और अब कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही एनआईटी श्रीनगर में आंदोलन खड़ा हो गया। संघ और भाजपा के एकांगी राष्ट्रवाद से असहमत होने का आपको अधिकार है, पर भारतीय राष्ट्र-राज्य किसी एक दल की बपौती नहीं है। वह हमारे सामूहिक सपनों का प्रतीक है। उसे राजनीति का खिलौना मत बनाइए।
जेएनयू प्रकरण में कश्मीर का सवाल पीछे रह गया और राष्ट्रवाद पर नई बहस शुरू हो गई, जो ‘भारत माता की जय’ पर जाकर खत्म हुई। श्रीनगर में जो हुआ वह खेल में जीत-हार की सामान्य खबर भी नहीं थी। सम्भव है कि उसकी प्रतिक्रिया में जो हुआ उसमें उन्मादी राष्ट्रवाद की कड़वाहट भी घुली हुई हो, पर इन दोनों चरम बिन्दुओं के बीच सामान्य छात्र की भावनाएं भी शामिल हैं। मान लिया श्रीनगर में ‘भारत माता की जय’ भड़काने वाला नारा है। पर ये छात्र भविष्य में देश-विदेश में काम करेंगे। इन्हें केवल कश्मीर में ही नहीं रहना। राजनीतिक सहमतियाँ और असहमतियाँ अपनी जगह हैं, पर उनका सामान्य जीवन भी है। राजनीति उनके जीवन में जहर क्यों भर रही है? उन्मादी राष्ट्रवाद कैम्पस के जीवन के लिए जहरीला है, तो भारत-विरोधी भावनाएं भी शीतल-समीर नहीं है।
आजादी के बाद देश में इंजीनियरी शिक्षा के लिए रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज बनाए गए थे। इन्हें संसदीय विधेयक के तहत बनाया गया था, पर इनका संचालन राज्य सरकारें करती थीं। सन 2002 में भारत सरकार ने इन्हें नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी घोषित करके इनका इंतजाम अपने हाथ में ले लिया था। एक माने में ये संस्थान राष्ट्रीय एकीकरण का काम भी करते हैं। श्रीनगर का क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज 1960 में खुला था जो अब एनआईटी है। यहाँ 3000 छात्र हैं, जिनमें से तकरीबन 500 घाटी के और 2500 शेष भारत के हैं। क्या यह माना जाए कि यह कश्मीर और शेष भारत का संग्राम है? कश्मीर के छात्र भी यदि वे जम्मू और लद्दाख के हैं तो उन्हें हिन्दुस्तानी माना जाएगा। इसका क्या मतलब है? यह विभाजन पूरी तरह धार्मिक आधार पर है। पर शेष भारत के सारे छात्र हिन्दू नहीं हैं।
कश्मीर के आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपना धर्म-निरपेक्ष स्वरूप तकरीबन ढाई दशक पहले खो चुका है। यह शुद्ध रूप से धार्मिक आधार पर चलाया जा रहा आंदोलन है, जिसका नारा है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान।’ इसके साथ भारत के कुछ दूसरे अंतर्विरोधों को जोड़ लिया गया है। मसलन नक्सली और पूर्वोत्तर के आंदोलन। पीडीपी-भाजपा सरकार-विरोधी राजनीति भी इसे सुनहरी मौके के रूप में देख रही है। जबकि जरूरत इस बात की है कि छात्रों को एक जगह लाया जाए। उन्हें समझाया जाए कि वे छात्र हैं, उनके जीवन में बड़े राजनीतिक फैसले करने का समय भी आएगा। फिलहाल वे अपनी पढ़ाई पूरी करें।
कश्मीर से विलगाव को दूर करने के लिए जरूरी है कि कदम बढ़ाए जाएं। स्थानीय छात्रों को जरूरी नहीं कि घाटी में ही काम मिले। उनके तमाम साथी देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं। वे जो भी मानते हों, हम उन्हें भारतीय मानते हैं। कश्मीरी शॉल बेचने वाले देशभर में जाते हैं। वे भी इस संवाद-समन्वय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके विपरीत श्रीनगर जाकर पढ़ने वाले बच्चे अपने घरों में जाकर कश्मीर के लोगों की सकारात्मक छवि बना सकते हैं। पर ऐसा नहीं हो रहा है। एनआईटी श्रीनगर की जो सकारात्मक भूमिका हो सकती थी, वह जोड़ने के बजाय तोड़ने वाली हो गई है। क्या यह अनायास है?
यह भी तो हो सकता है कि वेस्टइंडीज की जीत पर जश्न मनाने वालों को उकसाया गया हो। उनके मन में भारत के प्रति नफरत की जो भावना भरी जा रही है, क्या हम उससे अपरिचित हैं? श्रीनगर में पढ़ रहे शेष भारत के लगभग ढाई हजार छात्र आसानी से उन्मादी बन जाएंगे, ऐसा क्यों मान लें? क्या समूचा शेष भारत उन्मादी हो चुका है? ऐसा नहीं कि छात्र अपने आपसी भेद को नहीं समझते हैं, पर उनके जीवन में उस प्रकार का जहर नहीं है जैसा दूर से लगता है। वे साथ-साथ रहते हैं और काफी हद तक दोस्ताना हैं। होली-दीवाली और ईद वे मिलकर मनाते रहे हैं।
इसके पहले आपने कभी इस संस्थान से बदमज़गी की खबर नहीं सुनी होगी। सन 2014 की बाढ़ में इस कैम्पस में भी पानी भरा था और यहाँ के काफी छात्र कश्मीर विवि के कैम्पस में जाकर रहे थे। यहाँ के छात्रों ने मिलकर राहत का काम भी किया था। बड़ी संख्या में छात्रों का कहना है कि हम राजनीतिक बातें करते भी नहीं हैं। अब अचानक उनके बीच राजनीति प्रवेश कर गई है। स्थानीय छात्रों की ‘आजादी’ से जुड़ी संवेदनशीलता से शेष भारत के छात्र भी परिचित थे, पर स्थानीय छात्रों को भी ‘भारत’ से जुड़ी संवेदनशीलता का सम्मान करना चाहिए। क्या यह संवेदनशीलता उन्माद है?
सम्भव है उन्हें भी भड़काया गया हो। इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के अनुसार तीसरे साल के एक छात्र का कहना था कि कोई भी सच्चा भारतीय इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। 31 मार्च की घटना के बाद जब 1 अप्रैल को शेष भारत के छात्र जमा हुए तो बाहर से आए लोगों की भीड़ ने कैम्पस में प्रवेश किया और छात्रों की पिटाई की। झंडा फहराने की घटना इसके बाद हुई।
इस रिपोर्ट में कुछ स्थानीय छात्रों को इस बात पर विस्मय था कि इतना बड़ा तिरंगा कहाँ से आ गया। और उसे लटकाने वाला पोल भी। मान लेते हैं कि कोई तैयारी थी, पर छात्रों पर हुए लाठीचार्ज को सही कैसे ठहराएंगे? जेएनयू में भारत-विरोधी नारों की हमने अनदेखी की थी। निवेदिता मेनन ने छात्रों की सभा में कहा था कि कश्मीर पर भारत का ‘इल्लीगल ऑक्युपेशन’ है। उन छात्रों में से एक ने भी उनसे नहीं पूछा कि अवैध कब्जा क्यों है? इस बहस को आगे बढ़ना चाहिए। कश्मीर के सवाल को कालीन के नीचे नहीं छिपाया जा सकता।
हरिभूमि में प्रकाशित
संकीर्ण राष्ट्रवाद को उन्मादी विचारधारा साबित किया जा सकता है। खासतौर से तब जब वह समाज के एक ही तबके का प्रतिनिधित्व करे। पर भारतीय राष्ट्र-राज्य राजनीतिक दलों का फुटबॉल नहीं है। वह तमाम विविधताओं के साथ देश का प्रतिनिधित्व करता है। आप कितने ही बड़े अंतरराष्ट्रीयवादी हों, राष्ट्र-राज्य के सवालों का सामना आपको करना होगा। सन 1947 के बाद भारत का गठन-पुनर्गठन सही हुआ या नहीं, इस सवाल बहस कीजिए। पर फैसले मत सुनाइए। जेएनयू प्रकरण में भारतीय राष्ट्र-राज्य पर हुए हमले को सावधानी के साथ दबा देने का दुष्परिणाम श्रीनगर की घटनाओं में सामने आया है। भारत के टुकड़े करने की मनोकामना का आप खुलेआम समर्थन करें और कोई जवाब भी न दे।
चुनावी राजनीति ने हमारे सामाजिक जीवन को पहले ही काफी हद तक तोड़ दिया है। हमारे साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय अंतर्विरोधों को खुलकर खोला गया है। पर अब भारत की अवधारणा पर हमले के खतरों को भी समझ लेना चाहिए। यह सिर्फ संयोग नहीं था कि जेएनयू का घटनाक्रम असम, बंगाल और केरल के चुनावों से जुड़ गया? और अब कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार की सुगबुगाहट के साथ ही एनआईटी श्रीनगर में आंदोलन खड़ा हो गया। संघ और भाजपा के एकांगी राष्ट्रवाद से असहमत होने का आपको अधिकार है, पर भारतीय राष्ट्र-राज्य किसी एक दल की बपौती नहीं है। वह हमारे सामूहिक सपनों का प्रतीक है। उसे राजनीति का खिलौना मत बनाइए।
जेएनयू प्रकरण में कश्मीर का सवाल पीछे रह गया और राष्ट्रवाद पर नई बहस शुरू हो गई, जो ‘भारत माता की जय’ पर जाकर खत्म हुई। श्रीनगर में जो हुआ वह खेल में जीत-हार की सामान्य खबर भी नहीं थी। सम्भव है कि उसकी प्रतिक्रिया में जो हुआ उसमें उन्मादी राष्ट्रवाद की कड़वाहट भी घुली हुई हो, पर इन दोनों चरम बिन्दुओं के बीच सामान्य छात्र की भावनाएं भी शामिल हैं। मान लिया श्रीनगर में ‘भारत माता की जय’ भड़काने वाला नारा है। पर ये छात्र भविष्य में देश-विदेश में काम करेंगे। इन्हें केवल कश्मीर में ही नहीं रहना। राजनीतिक सहमतियाँ और असहमतियाँ अपनी जगह हैं, पर उनका सामान्य जीवन भी है। राजनीति उनके जीवन में जहर क्यों भर रही है? उन्मादी राष्ट्रवाद कैम्पस के जीवन के लिए जहरीला है, तो भारत-विरोधी भावनाएं भी शीतल-समीर नहीं है।
आजादी के बाद देश में इंजीनियरी शिक्षा के लिए रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज बनाए गए थे। इन्हें संसदीय विधेयक के तहत बनाया गया था, पर इनका संचालन राज्य सरकारें करती थीं। सन 2002 में भारत सरकार ने इन्हें नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी घोषित करके इनका इंतजाम अपने हाथ में ले लिया था। एक माने में ये संस्थान राष्ट्रीय एकीकरण का काम भी करते हैं। श्रीनगर का क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज 1960 में खुला था जो अब एनआईटी है। यहाँ 3000 छात्र हैं, जिनमें से तकरीबन 500 घाटी के और 2500 शेष भारत के हैं। क्या यह माना जाए कि यह कश्मीर और शेष भारत का संग्राम है? कश्मीर के छात्र भी यदि वे जम्मू और लद्दाख के हैं तो उन्हें हिन्दुस्तानी माना जाएगा। इसका क्या मतलब है? यह विभाजन पूरी तरह धार्मिक आधार पर है। पर शेष भारत के सारे छात्र हिन्दू नहीं हैं।
कश्मीर के आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपना धर्म-निरपेक्ष स्वरूप तकरीबन ढाई दशक पहले खो चुका है। यह शुद्ध रूप से धार्मिक आधार पर चलाया जा रहा आंदोलन है, जिसका नारा है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान।’ इसके साथ भारत के कुछ दूसरे अंतर्विरोधों को जोड़ लिया गया है। मसलन नक्सली और पूर्वोत्तर के आंदोलन। पीडीपी-भाजपा सरकार-विरोधी राजनीति भी इसे सुनहरी मौके के रूप में देख रही है। जबकि जरूरत इस बात की है कि छात्रों को एक जगह लाया जाए। उन्हें समझाया जाए कि वे छात्र हैं, उनके जीवन में बड़े राजनीतिक फैसले करने का समय भी आएगा। फिलहाल वे अपनी पढ़ाई पूरी करें।
कश्मीर से विलगाव को दूर करने के लिए जरूरी है कि कदम बढ़ाए जाएं। स्थानीय छात्रों को जरूरी नहीं कि घाटी में ही काम मिले। उनके तमाम साथी देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं। वे जो भी मानते हों, हम उन्हें भारतीय मानते हैं। कश्मीरी शॉल बेचने वाले देशभर में जाते हैं। वे भी इस संवाद-समन्वय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके विपरीत श्रीनगर जाकर पढ़ने वाले बच्चे अपने घरों में जाकर कश्मीर के लोगों की सकारात्मक छवि बना सकते हैं। पर ऐसा नहीं हो रहा है। एनआईटी श्रीनगर की जो सकारात्मक भूमिका हो सकती थी, वह जोड़ने के बजाय तोड़ने वाली हो गई है। क्या यह अनायास है?
यह भी तो हो सकता है कि वेस्टइंडीज की जीत पर जश्न मनाने वालों को उकसाया गया हो। उनके मन में भारत के प्रति नफरत की जो भावना भरी जा रही है, क्या हम उससे अपरिचित हैं? श्रीनगर में पढ़ रहे शेष भारत के लगभग ढाई हजार छात्र आसानी से उन्मादी बन जाएंगे, ऐसा क्यों मान लें? क्या समूचा शेष भारत उन्मादी हो चुका है? ऐसा नहीं कि छात्र अपने आपसी भेद को नहीं समझते हैं, पर उनके जीवन में उस प्रकार का जहर नहीं है जैसा दूर से लगता है। वे साथ-साथ रहते हैं और काफी हद तक दोस्ताना हैं। होली-दीवाली और ईद वे मिलकर मनाते रहे हैं।
इसके पहले आपने कभी इस संस्थान से बदमज़गी की खबर नहीं सुनी होगी। सन 2014 की बाढ़ में इस कैम्पस में भी पानी भरा था और यहाँ के काफी छात्र कश्मीर विवि के कैम्पस में जाकर रहे थे। यहाँ के छात्रों ने मिलकर राहत का काम भी किया था। बड़ी संख्या में छात्रों का कहना है कि हम राजनीतिक बातें करते भी नहीं हैं। अब अचानक उनके बीच राजनीति प्रवेश कर गई है। स्थानीय छात्रों की ‘आजादी’ से जुड़ी संवेदनशीलता से शेष भारत के छात्र भी परिचित थे, पर स्थानीय छात्रों को भी ‘भारत’ से जुड़ी संवेदनशीलता का सम्मान करना चाहिए। क्या यह संवेदनशीलता उन्माद है?
सम्भव है उन्हें भी भड़काया गया हो। इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के अनुसार तीसरे साल के एक छात्र का कहना था कि कोई भी सच्चा भारतीय इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। 31 मार्च की घटना के बाद जब 1 अप्रैल को शेष भारत के छात्र जमा हुए तो बाहर से आए लोगों की भीड़ ने कैम्पस में प्रवेश किया और छात्रों की पिटाई की। झंडा फहराने की घटना इसके बाद हुई।
इस रिपोर्ट में कुछ स्थानीय छात्रों को इस बात पर विस्मय था कि इतना बड़ा तिरंगा कहाँ से आ गया। और उसे लटकाने वाला पोल भी। मान लेते हैं कि कोई तैयारी थी, पर छात्रों पर हुए लाठीचार्ज को सही कैसे ठहराएंगे? जेएनयू में भारत-विरोधी नारों की हमने अनदेखी की थी। निवेदिता मेनन ने छात्रों की सभा में कहा था कि कश्मीर पर भारत का ‘इल्लीगल ऑक्युपेशन’ है। उन छात्रों में से एक ने भी उनसे नहीं पूछा कि अवैध कब्जा क्यों है? इस बहस को आगे बढ़ना चाहिए। कश्मीर के सवाल को कालीन के नीचे नहीं छिपाया जा सकता।
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