Sunday, April 14, 2013

नीतीश के लिए आसान नहीं है एनडीए से अलगाव की डगर


फिलहाल जेडीयू ने भारतीय जनता पार्टी से प्रधानमंत्री पद के अपने प्रत्याशी का नाम घोषित करने का दबाव न डालने का फैसला किया है। पर यदि दबाव डाला भी होता तो यह एक टैक्टिकल कदम होता। दीर्घकालीन रणनीति नहीं। यह धारणा गलत है कि बिहार में एनडीए टूटने की शुरूआत हो गई है। सम्भव था कि जेडीयू कहती, अपने प्रधानमंत्री-प्रत्याशी का नाम बताओ। और भाजपा कहती कि हम कोई प्रत्याशी तय नहीं कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का पार्टी के संसदीय बोर्ड में आना या प्रचार में उतरना प्रधानमंत्री पद की दावेदारी तो नहीं है। बहरहाल यह सब होने की नौबत नहीं आई। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नीतीश कुमार और शरद यादव से फोन पर बात की कि भाई अभी किसी किस्म का दबाव मत डालो। यह न आप के लिए ठीक होगा और न हमारे लिए। और बात बन गई।
यूपीए सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे दे तब भी ज़रूरी नहीं कि एनडीए टूटे। इसके व्यावहारिक कारण है। किसी भी नज़रिए से जेडीयू-भाजपा गठजोड़ फिलहाल टूटता नज़र नहीं आता। पहले यह देखिए कि दोनों आज भी साथ-साथ क्यों हैं? भाजपा तो घोषित साम्प्रदायिक पार्टी है। नीतीश कुमार और शरद यादव ने भाजपा का साथ देने का फैसला उस वक्त किया था, जब उस पर साम्प्रदायिकता का साफ बिल्ला लगा हुआ था। बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुए ज्यादा समय बीता नहीं था। सन 1996 के चुनाव में शिवसेना और हरियाणा विकास पार्टी के अलावा समता पार्टी का ही भाजपा के साथ तालमेल था। तब तक एनडीए बना भी नहीं था। शिरोमणि अकाली दल के जुड़ने के पहले से जॉर्ज-नीतीश जोड़ी भाजपा से जुड़ चुकी थी। बल्कि भाजपा को कट्टरपंथी छवि बदलने का सुझाव इनका ही था। यह साथ क्या सिर्फ नरेन्द्र मोदी के कारण टूट जाएगा?

सच यह है कि भाजपा अभी बहुत सी बातें तय नहीं कर पाई है। वह भी मोदी के नाम की घोषणा करने की स्थिति में नहीं है। उसे कम से कम कर्नाटक के चुनाव परिणाम का इंतज़ार करना होगा। यों भी मोदी के ‘गवर्नेंस’ और ‘ग्रोथ’ के फॉर्मूले पर पार्टी जा रही है, 2002 के दंगों के सहारे नहीं। एनडीए ने अपने सहयोगी दलों की इच्छा के अनुसार राम मंदिर को अपने एजेंडा से बाहर रखा है। जेडीयू भले ही दस साल पहले बना है, पर नीतीश कुमार और भाजपा का साथ 17 साल पुराना है। मुसलमानों को क्या केवल मोदी से नाराज़गी है भाजपा से नहीं? जब भाजपा का साथ कोई नहीं दे रहा था, उस वक्त नीतीश कुमार ने साथ दिया। क्या यह बात बिहार के मुसलमान नहीं जानते हैं?

कांग्रेस-विरोध की राजनीति से पैदा हुई पार्टी है जेडीयू। सन 1994 में जब जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार जनता दल से हटकर समता पार्टी बना रहे थे, तब उनकी धारणा थी कि जनता दल जातिवादी राह पर चला गया है। 1996 के लोकसभा चुनाव में समता पार्टी ने भाजपा के साथ सहयोग किया था। 30 अक्टूबर 2003 को जनता दल, लोकशक्ति पार्टी और समता पार्टी ने मिलकर जब जनता दल युनाइटेड बनाया तब वह मूलतः लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के विरोध में था। कांग्रेस विरोध के अलावा राजद-विरोध भी जेडीयू की राजनीति का केन्द्रीय सिद्धांत है। राजद-एलजेपी को हराना अकेले नीतीश कुमार के बस की बात नहीं है। जेडीयू और एनडीए गठबंधन टूटने के बाद बिहार में राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण तेजी से होगा। लालू यादव और रामविलास पासवान के आधार में भी हाला-डोला आएगा। और बिहार में मोदी का प्रवेश हो ही जाएगा। जो केवल हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण नहीं करेगा, बल्कि ओबीसी राजनीति को भी उधेड़ देगा। अचानक कई समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे।


जेडीयू का कहना है कि भाजपा से गठबंधन टूटा तो हम अकेले चुनाव लड़ेंगे। पर यह सरल काम नहीं है। ऐसा सम्भव था तो अब तक क्यों नहीं किया? बेशक गठबंधन टूटने से बिहार सरकार की वर्तमान संरचना पर फर्क नहीं पड़ेगा। पर लोकसभा और उसके बाद विधान सभा चुनाव का गणित बिगड़ जाएगा। इसका लाभ आरजेडी और लोजपा गठबंधन को मिले तो आश्चर्य नहीं। जेडीयू और कांग्रेस गठबंधन यों तो मुश्किल है, पर राजनीति में कुछ भी सम्भव है। पर क्या पिछले विधान सभा चुनाव के मुकाबले अब कांग्रेस की ताकत बढ़ी है? मोदी के मामले में बहादुरी दिखाने के कारण सम्भव है कि जेडीयू को मुस्लिम वोटर इनाम दे, पर सवर्ण और सर्वाधिक पिछड़े वर्गों का आधार खिसक भी तो सकता है। आरजेडी-लोजपा गठबंधन दूने वेग से उभरेगा। भाजपा अलग ताकत के रूप में उभरेगी। मोदी के कारण उसके पास कुछ नया वोट होगा। यह वोट कहाँ से आएगा? शायद कांग्रेस से और कुछ नीतीश के हिस्से से।

सम्भव है कि एनडीए टूटने से भाजपा को सदमा लगे और वह सम्हल न पाए। तो फिर यह धक्का अभी क्यों? अभी साथ छोड़ने पर भाजपा को सम्हलने का काफी समय मिल जाएगा। मोदी का प्रदेश में आवागमन शुरू हो जाएगा। और चुनाव आते-आते पार्टी अपना आधार फिर से तैयार कर लेगी। धक्का ही देना है तो चुनाव के ठीक पहले देना चाहिए ताकि भाजपा सम्हल ही न पाए। पर ऐसे फैसले सम्मेलनों में नहीं बैकरूम होते हैं। बेशक कहीं कुछ चल रहा है। सच यह है कि नीतीश सरकार अलोकप्रियता की ओर बढ़ रही है। विकास के नारे को काफी भुनाया जा चुका है। बिहार को विशेष दर्जा दिलाने का एक प्रचारात्मक रास्ता बचा है। समस्या का समाधान इससे भी नहीं होगा। राज्य में नए राजनीतिक मुहावरों की ज़रूरत है। और उस नए वर्ग को संतुष्ट करने की भी जो जाति और धर्म के नशे से बाहर आ गया है।

2 comments:

  1. sahi view h sr.. nitish ki party khud hi bikharne lagegi kuoki uske 50% aadmi to modi ya bjp samarthak h

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  2. आपका विश्लेषण दम रखता है ...
    पर राजनीति का खेल किस करवट बैठेगा कुछ पता नहीं ...

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