Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।

भारत सरकार मानती है कि श्रीलंका के साथ रिश्तों में केवल तमिल मुद्दे को ही कसौटी नहीं बनाना चाहिए। क्षेत्रीय व्यापार और सामरिक संतुलन भी महत्वपूर्ण हैं। पर तमिल पार्टियों की आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण भारत सरकार के सामने असमंजस पैदा हो रहा है। यही बात बंगाल में तीस्ता नदी के पानी के बँटवारे और सीमा-निर्धारण को लेकर कही जा सकती है। अब तमिलनाडु विधानसभा माँग कर रही है कि सरकार श्रीलंका को मित्र देश मानना बंद करे और उसके खिलाफ प्रतिबंध लगाए। प्रस्ताव के ज़रिए अलग तमिल ईलमके लिए जनमत संग्रह कराए जाने की भी मांग की गई है। मुख्यमंत्री जयललिता ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि भारत को इस साल नवंबर में कोलंबो में होने जा रहे राष्ट्रमंडल सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक का बहिष्कार करना चाहिए।
हमारे देश में भावनाओं को भड़काना और उसकी आग में अपनी रोटियाँ सेकना कोई नई बात नहीं है। राजनीतिक दलों की संगठन शक्ति एजेंडा तय करती है। कोई विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि तमिलनाडु के लोग ऐसा चाहते हैं या नहीं। हालांकि केन्द्र सरकार इस प्रश्न पर ज्यादा व्यापक स्तर पर सोचती है, पर ऐसे अवसर भी आए हैं, जब राजनीतिक कारणों से सत्तारूढ़ पार्टी ने संकीर्ण दृष्टि से फैसले किए। सन 2004 में तेलंगाना राष्ट्र समिति ने कहा कि जो पार्टी तेलंगाना बनाने का वादा करेगी उसे हम समर्थन देंगे। कांग्रेस ने वादा कर दिया, पर आज तक बनाकर नहीं दिया। इस आश्वासन के कारण आंध्र प्रदेश की आर्थिक-सांस्कृतिक संरचना पर विपरीत प्रभाव पड़ा। प्रदेश का एक इलाका इस सवाल को लेकर लगातार उबल रहा है। तकरीबन ऐसा ही आश्वासन बिहार को पिछड़ा प्रदेश घोषित करने का। हालांकि अभी तक ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई है, पर कल को हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। क्या इस प्रकार की विसंगतियाँ हमारी राजनीति की देन हैं? क्या गठबंधन का दौर इसे और आगे बढ़ाएगा? क्या अगले लोकसभा चुनाव के बाद स्थिति और खराब होगी, क्योंकि आशंका है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ और ज्यादा ताकतवर होकर आने वाले वाली हैं?
यूपीए-1 और यूपीए-2 के आप अनेक समानताएं पाएंगे। जुलाई 2008 में जिस वक्त सरकार विश्वासमत हासिल करने जा रही थी, उस वक्त का यूपीए आज के यूपीए के मुकाबले कहीं दुर्बल था। न्यूक्लियर डील का मसला आज के मसलों के मुकाबले बड़ा ही था। न्यूक्लियर डील की ज़रूरत हमें थी या नहीं, इसपर राष्ट्रीय स्तर पर कभी बहस नहीं हुई। जिन्हें संसद में हुई बहस याद है तो वे फिर से याद करें कि तमाम राजनीतिक सवाल उस बहस में उठे, पर किसी ने न्यूक्लियर डील पर चर्चा नहीं की। सरकार बच गई, क्योंकि सरकार को गिराने या चलाने का गणित अलग होता है और नीतियों और विचारों का अलग। गठबंधन की राजनीति को चलाने वाले अक्सर सिद्धातों की दुहाई देते हैं। पर व्यवहार की कसौटी पर ये सिद्धांत कहाँ रहते हैं, इसे याद करें। सन 1996 के मई में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार विश्वास मत नहीं जीत पाई, क्योंकि उनका समर्थन करने कोई पार्टी या सांसद आगे नहीं आया। वही पार्टी 1998 में वही पार्टी सरकार बना ले गई। इसके बाद उसने 1999 का चुनाव जीता और उसके गठबंधन में ऐसे तमाम दल शामिल हुए जो साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने देने से रोकने के लिए कृत संकल्प थे। आज डीएमके भी साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने की तरफदार है। पर यह पार्टी भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शामिल थी। ममता बनर्जी भी उसमें थीं। साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने की हामी बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना चुकी है। आश्चर्य है कि आज भी समान विचारधारा और सिद्धांतों की बात राजनीति में होती है।
पिछले कुछ हफ्तों से हम इस बात को लेकर परेशान हैं कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होंगे या नहीं। मुलायम सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा के बीच लगातार शाब्दिक-संग्राम चल रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर आडवाणी जी तक सबको लगता है कि समाजवादी पार्टी यूपीए से अपना समर्थन वापस ले लेगी। कोई नहीं जानता कि लेगी या नहीं लेगी, पर कोई यह भी नहीं जानता कि यह समर्थन क्यों है और यदि यह वापस होगा तो क्यों होगा। मुलायम सिंह यादव तीसरे मोर्चे का झंडा उठाकर चल रहे हैं, पर कोई दूसरी बड़ी पार्टी उनके साथ नज़र नहीं आ रही। कम्युनिस्ट पार्टियों के कुछ नेता व्यक्तिगत रूप से इस विचार की समर्थन कर रहे हैं, पर कोई पहल नहीं कर रहा है। क्यों? मान लिया चुनाव समय से ही होंगे तो उसके लिए भी कितना समय बचा है? तीसरा मोर्चा बनना है तो उसे भी चार-छह महीने अपना सांगठनिक और वैचारिक आधार बनाने में लगेंगे। वास्तव में क्षेत्रीय दलों की ताकत बढ़ी है और वे एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं, पर इसका कोई वैचारिक आधार नहीं है। डीएमके या अन्ना डीएमके के लिए श्रीलंका को कोसना आसान है। पर यदि ये पार्टियाँ केन्द्र सरकार का नेतृत्व करतीं तो क्या इस शब्दावली का इस्तेमाल करतीं? सिद्धांत, विचार और संस्थाओं का दुरुपयोग इस राजनीति की देन है। फिर भी यह राजनीति ताकतवर होकर उभर रही है तो क्यों?
इसके तमाम कारण हैं, पर कम से कम दो तो गिनाए जा सकते हैं। पहला जिन दलों को हम राष्ट्रीय कहते हैं, वे अपनी साख खो रहे हैं। देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के समन्वय की जिम्मेदारी उनकी थी। सारे दूर-दराज के लोगों को राष्ट्रीय धारा से जोड़ने का काम उनका था। दूसरी ओर अधिकतर क्षेत्रीय दल सिद्धांत विहीन भावनात्मक गठजोड़ हैं जो एक नेता के पीछे हैं। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, शरद पवार, नीतीश कुमार, जगनमोहन रेड्डी या प्रकाश सिंह बादल की व्यक्तिगत सत्ता है। बेशक इन सभी दलों का संगठन है, पर फैसले हाईकमान को करने होते हैं। यह हाईकमान शब्द इन पार्टियों ने कांग्रेस से लिया है, जिसे बीजेपी ने भी अपनाया है। शायद यह व्यावहारिक मज़बूरी है, वैसे ही जैसे गठबंधन की मज़बूरी है। अगला चुनाव शायद क्षेत्रीय शक्तियों को और ज्यादा ताकत देने का काम करे। इस ताकत का इस्तेमाल किस तरह होगा, कौन करेगा और इसे अराजक बनने से कैसे रोका जाएगा, इन सवालों पर
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

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