लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि मैं एक सपने के सहारे राजनीति
में सक्रिय हूँ। उधर नरेन्द्र मोदी गुजरात का कर्ज़ चुकाने के बाद भारत माँ का कर्ज़
चुकाने के लिए दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली का कर्ज़ चुकाने के लिए कम से कम डेढ़
दर्जन सपने सक्रिय हो रहे हैं। ये सपने क्षेत्रीय राजनीति से जुड़े हैं। उन्हें लगता
है कि प्रदेश की खूब सेवा कर ली, अब देश-सेवा की घड़ी है। बहरहाल आडवाणी जी के सपने
को विजय गोयल कोई रूप देते उसके पहले ही उनकी बातों में ब्रेक लग गया। विजय गोयल के
पहले मुलायम सिंह यादव ने आडवाणी जी की प्रशंसा की थी। भला मुलायम सिंह आडवाणी की प्रशंसा
क्यों कर रहे हैं? हो सकता है जब दिल्ली की गद्दी का फैसला हो
रहा हो तब आडवाणी जी काम आएं। मुलायम सिंह को नरेन्द्र मोदी के मुकाबले वे ज्यादा विश्वसनीय
लगते हैं। कुछ और कारण भी हो सकते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी यूपी में प्रचार के लिए
आए तो वोटों का ध्रुवीकरण होगा। शायद मुस्लिम वोट फिर से कोई एक रणनीति तैयार करे।
और इस रणनीति में कांग्रेस एक बेहतर विकल्प नज़र आए। उधर आडवाणी जी लोहिया की तारीफ
कर रहे हैं। क्या वे भी किसी प्रकार की पेशबंदी कर रहे हैं? आपको
याद है कि आडवाणी जी ने जिन्ना की तारीफ की थी। उन्हें लगता है कि देश का प्रधानमंत्री
बनने के लिए अपनी छवि सौम्य सभी वर्गों के लिए स्वीकृत बनानी होती है। जैसी अटल बिहारी
वाजपेयी की थी।
जिस रोज़ राहुल गांधी ने सीआईआई की सभा को सम्बोधित किया उसी
रोज़ नरेन्द्र मोदी ने भी गांधीनगर की एक सभा को सम्बोधित किया। मुख्यमंत्री और अपेक्षाकृत
गतिशील होने के नाते नरेन्द्र मोदी अक्सर सभाओं को सम्बोधित करते रहते हैं। राष्ट्रीय
क्षितिज पर पिछले कुछ समय से नामो और रागा दो राजनीतिक ब्रैंड तेजी से उभरे हैं। और
जब दोनों एक ही दिन मीडिया पर दो अलग-अलग विंडो में दोनों आमने-सामने दिखाई पड़ें तो
पहला सवाल मन में आता है कि कौन किसपर भारी पड़ा? एक
खुर्राट और मुखर है तो दूसरा अपेक्षाकृत नौसिखुआ और सॉफ्ट। एक को मंच पर जम जाने की
कला आती है तो दूसरा विस्मित और भ्रमित है। एक ने अपनी जगह लड़-भिड़कर बनाई है तो दूसरा
तोहफे की तरह मिल रही कुर्सी पर भी बैठने को अनिच्छुक है। कांग्रेस और भाजपा के बीच
वैचारिक लड़ाई खोजने वालों से पूछा जाए कि दोनों के बीच क्या फर्क है तो वे सिर्फ एक
जगह अटकेंगे।
राहुल गांधी ने अपने भाषण में इसी बात को रेखांकित किया। राहुल
ने भारतीय व्यवस्था की तुलना मधुमक्खी के छत्ते से की। मधुमक्खियों का कार्य-विभाजन
इस प्रकार होता है कि वे अलग-अलग काम करती है और उनका छत्ता बनता जाता है। वह केन्द्रीय
व्यवस्था नहीं, विकेन्द्रित व्यवस्था का कमाल है। यह किसी एक व्यक्ति की उपलब्धि नहीं
हम सबकी उपलब्धि या विफलता है। चीन और भारत का यह फर्क है। हम लोकतांत्रिक तरीके से
बढ़ रहे हैं। पर इस छत्ते को बनाने वाले का पास ताकत नहीं है। उसे ताकत देने वाली व्यवस्था
बनाइए। इस बात से नरेन्द्र मोदी और भाजपा को भी आपत्ति नहीं होगी। और राहुल को नरेन्द्र
मोदी के विकास-फॉर्मूले पर आपत्ति नहीं। तो अंतर कहाँ है? आर्थिक विकास की बात राहुल गांधी भी करते हैं और मोदी भी। पर राहुल
सामाजिक सद्भाव की बात भी करते हैं। किसी भी प्रकार का आर्थिक विकास, चाहे वह किसी
भी कीमत पर हासिल हो, मानवीय मूल्यों को पूरा नहीं करता। अंतर केवल यहाँ है। और यहीं
से कहानी शुरू होती है। भाजपा कहती है कि कांग्रेस ने तुष्टीकरण की राजनीति की। उसकी
राह भी साम्प्रदायिक है। राहुल कहते हैं सामाजिक सद्भाव की कीमत पर हुई प्रगति को आर्थिक
विकास नहीं कह सकते।
अगले चुनाव के लिए भाजपा की रणनीति साफ हो रही है। आडवाणी जी
का नाम भले ही कोई उछाले पर नरेन्द्र मोदी सबसे आगे हैं। पर चुनाव केवल नरेन्द्र मोदी
के नाम पर नहीं होगा। चुनाव में एक नकारात्मक, एक सकारात्मक और एक बुनियादी सवाल होगा।
कांग्रेस की नकारात्मक छवि भारतीय जनता पार्टी का पहला सहारा है। पिछले तीन साल के
‘घोटाला-दौर’ को खबरों में
बनाए रखने में बीजेपी कामयाब हुई है। इसमें रामदेव, अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल
की भूमिका भी है, भले ही यह उनकी योजना न रही हो। आप कह सकते हैं कि ये आंदोलन उत्तर
भारत के छोटे से इलाके में ही प्रभावशाली थे। पूरे देश में नहीं। पर गौर करें कि दिल्ली
में अगली सरकार बनाने या बिगाड़ने में उत्तर भारत की सबसे बड़ी भूमिका होगी। उत्तर
प्रदेश की 80, बिहार की 40, मध्य प्रदेश की 29, राजस्थान की 25, छत्तीसगढ़ की 11, झारखंड
की 14, उत्तराखंड की 5, हरियाणा की 10, दिल्ली की 7, हिमाचल प्रदेश की 4 और चंडीगढ़
की 1 सीट का टोटल करें तो 226 आता है। इन 226 सीटों पर कांग्रेस की प्रतिष्ठा दाँव
पर है। इन 226 में से कांग्रेस अपनी स्थिति पहले जैसी बनाए रखेगी तो उसके लिए आसानी
होगी। पर यदि वह पहले के मुकाबले बीस से पचास के बीच सीटें खोएगी तो दिल्ली में कहानी
बदल जाएगी। महत्वपूर्ण यह है कि इन सीटों को कौन हासिल करेगा। एनडीए को दिल्ली में
सरकार बनानी है तो उसे इन सीटों को हासिल करने की कोशिश करनी होगी। इनके अलावा पंजाब
की 13, महाराष्ट्र की 48, गुजरात की 26, ओडीशा की 21 और असम की 14 यानी 112 पर सीटों
पर यूपीए और एनडीए दोनों के लिए गुंजाइश है। आंध्र की 42 और कर्नाटक की 28 सीटों पर
दोनों पार्टियों की इज्जत दाँव पर होगी। पर तमिलनाडु की 39, और बंगाल की 42 यानी
81 सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों को कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
पिछले साल कांग्रेस ने नवम्बर में सूरजकुंड की संवाद बैठक की
और फिर जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर लगाया, जहाँ राहुल को औपचारिक रूप से आगे करने
की घोषणा की गई। पिछले पाँच दशकों में कांग्रेस का यह चौथा चिंतन शिविर था। इसके पहले
के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे। 1974 में नरोरा का शिविर जय
प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर
1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 के
शिमला शिविर का फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में देखा जा सकता है। कांग्रेस ने पचमढ़ी
में तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। पर शिमला
आते-आते पार्टी को गठबंधन का महत्व समझ में आ गया। 14 मार्च 1998 को श्रीमती सोनिया
गांधी पार्टी अध्यक्ष बनीं। इसके बाद 28-29 मार्च 2003 को पार्टी ने ब्लॉक स्तर के
कांग्रेस अध्यक्षों की बैठक दिल्ली में बुलाई, जिसमें अपने एजेंडा के बारे में विचार
किया गया। उस समय यह बात सामने आई कि गरीबी के एजेंडा को बढ़ाना चाहिए। तब तक कांग्रेस
का नारा था ‘कांग्रेस का हाथ, गरीब के साथ’। पर 7 से 9 जुलाई को हुए शिमला विचार मंथन शिविर ने प्रस्ताव पास किया ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’। कांग्रेस ने देश के
उभरते मध्य वर्ग की ताकत को पहचाना। इसके पीछे जयराम रमेश का योगदान था। और उन्हीं
जयराम रमेश को अब पार्टी चुनाव रणनीति से जुड़े वॉर रूम का जिम्मा देने वाली है। उनके
साथ सीपी जोशी भी होंगे। खबरें हैं कि इसी महीने वे अपने सरकारी पद छोड़कर पार्टी का
काम शुरू करेंगे। जयराम रमेश ने कांग्रेस को नया नारा दिया है ‘आपका पैसा, आपके हाथ’। दिसम्बर में कांग्रेस अध्यक्षों
की बैठक में राहुल गांधी ने कहा था कि कैश ट्रांस्फर योजना गेम चेंजर साबित होगा। यह
योजना 1 जनवरी से शुरू हो चुकी है, पर कुछ व्यावहारिक दिक्कतों के कारण इसमें विलम्ब
हो रहा है।
राहुल गांधी ने सीआईआई की बैठक में कहा कि मनमोहन सिंह अकेले
बदलाव लाकर दिखा देंगे तो यह सम्भव नहीं। यानी अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर प्रकारांतर
से यह अपनी जिम्मेदारी को नकारना भी है। उन्हें न केवल रास्ता बताना होगा, बल्कि उसका
नेतृत्व भी करना होगा। जबकि नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि मैं यह काम करके दिखा दूँगा।
इसलिए वे प्रभावित करते हैं। पर उनके व्यक्तित्व में अहंकार है और उदारता का अभाव है।
वे इस कमी को पूरा कर पाएंगे या नहीं यह समय बताएगा। राहुल के सीआईआई के भाषण के जवाब
में वे फिक्की में भाषण देने वाले हैं। गौर से सुनिए।
इंडिया टाइम्स से साभार
Cartoon corner India Today
सतीश आचार्य के कार्टून साभार
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