Sunday, October 28, 2012

भ्रष्टाचार मूल रोग नहीं, रोग का लक्षण है


यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाए का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!

अली सरदार ज़ाफरी की ये पंक्तियाँ यों ही याद आती हैं। पिछले कुछ साल से देश में आग जैसी लगी है। लगता है सब कुछ तबाह हुआ जा रहा है। घोटालों पर घोटाले सामने आ रहे हैं। हमें लगता है ये घोटाले ही सबसे बड़ा रोग है। गहराई से सोचें तो पता लगता है कि ये घोटाले रोग नहीं रोग का एक लक्षण है। रोग तो कहीं और है।

तीन-चार महीने पहले हरियाणा और पंजाब की यात्रा के दौरान सड़क के दोनों ओर खेतों लगी आग की ओर ध्यान गया। यह आग किसानों ने खुद अपने खेतों में लगाई थी। हमारे साथ एक कृषि विज्ञानी भी थे। उनका कहना था कि पुरानी फसल को साफ करने के इस तरीके के खिलाफ सरकार तमाम प्रयास करके हार गई है। इसे अपराध घोषित किया जा चुका है, अक्सर किसानों के खिलाफ रपट दर्ज होती रहती हैं, पर किसान प्रतिबंध के बावजूद धान के अवशेष जलाकर न सिर्फ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, बल्कि अपने खेत की उर्वरा शक्ति को कम करते हैं। कृषि विभाग खेत में फसलों के अवशेष को आग लगाने के खिलाफ जागरूकता अभियान भी चलाता है लेकिन इसके किसानों को बात समझ में नहीं आती। हमारे साथ वाले कृषि वैज्ञानिकों का कहना था कि पुआल जैविक खाद के रूप में भी तब्दील की जा सकती है जिससे जमीन की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है। लेकिन जागरूकता के अभाव में किसान अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। किसानों का कहना है कि धान की कटाई के बाद किसान गेहूं, सरसों, बरसीम लहसुन, टमाटर, गोभी आदि फसलों की बुआई करनी है। कंबाईन से धान कटाई के बाद काफी पुआल खेत में रह जाते हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि इन अवशेषों में ऐसे जैविक पदार्थ होते हैं, जो खाद का काम करते हैं। इस पर कुछ किसान कहते हैं कि धान के अवशेष रहने पर गेहूं की फसल तो उगाई जा सकती है, लेकिन सब्जियाँ नहीं उगाई जा सकतीं।

कृषि वैज्ञानिकों का यह भी कहना था कि अब धान की फसल खेत में पानी भरे बगैर लेना सम्भव है। नई तकनीक से धान की फसल के लिए पानी की जरूरत में 40 से 50 फीसदी तक कम करने में मदद मिलेगी। खेत में सीधी बिजाई करने वाली मशीनों की मदद से यह काम आसानी से हो सकता है। इसे डीएसआर पद्धति कहते हैं। इन दिनों पंजाब और हरियाणा में खेत मज़दूरों की जबर्दस्त कमी है। वैकल्पिक तकनीक और साधन उपलब्ध हैं। ज़रूरत है जागरूकता की। हाल में राजस्थान के उदयपुर और गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं से बात करने का मौका मिला। उन्हें लगता है कि प्राथमिक और व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रम ठीक तरीके से लागू हो जाएं तो न सिर्फ बाल-मज़दूरी की समस्या का समाधान होगा, बल्कि ग्रामीण स्तर पर आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी, शहरों की ओर पलायन कम होगा। छत्तीसगढ़ के नक्सल-प्रभावित इलाकों में काम करने वालों की शिकायत है कि पुलिस हमें नक्सली मानती है और नक्सली मानते हैं कि हम पुलिस के मुखबिर हैं। इस क्रॉसफायर में नुकसान गरीबों का हो रहा है, जिन्हें न तो स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पा रहीं है और न शिक्षा। देश की कुल आबादी में से 21 करोड़ की उम्र 10 से 19 साल के बीच है। यह आबादी शिक्षित, स्वस्थ और जागरूक हो तो देश का नक्शा बदल जाए। पर हम इसका फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। हमारी विफलता का मतलब न सिर्फ इस पीढ़ी का बल्कि इसके बाद आने वाली पीढ़ी का अवसाद से घिर जाना। कौन है इसका ज़िम्मेदार?
पिछले दो दशक का इतिहास घोटालों का इतिहास है। सूची बनाई जाए तो अकारादिक्रम से सैकड़ों ऐसे घोटालों की सूची बनती है, जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए। रॉबर्ट वड्रा, नितिन गडकरी, सलमान खुर्शीद, जिन्दल स्टील और ज़ी-न्यूज़ विवाद, रक्षा सामग्री की खरीद, टैट्रा ट्रक, महाराष्ट्र की सिंचाई परियोजनाएं, सहकारी बैंक, उत्तर प्रदेश के ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम, बिहार के बाढ़ राहत कार्यक्रम, कर्नाटक के माइनिंग, कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज, सीमेंट से लेकर कोयला खानों तक कई किस्म की अनियमितताओं ने हमें घेर लिया है। पिछले दो साल से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने हमें घेर रखा है। एक लिहाज से हमारे जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण है। आखिरकार जनता सामने आकर अपना विरोध व्यक्त कर रही है। पर क्या भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या है?

पिछले दिनों एक सर्वेक्षण में पता लगा कि मातृ स्वास्थ्य के मामले में भारत का प्रदर्शन बेहद खराब है। दुनिया के 80 विकासशील देशों में हमारा 76वां स्थान है। यह रैंकिंग 'सेव द चिल्ड्रेन' की रिपोर्ट में दी गई है। भारत में कुपोषण भी सबसे अधिक दर्ज किया गया। यहां पांच वर्ष से कम उम्र के करीब 43 प्रतिशत बच्चों में कुपोषण की स्थिति दर्ज की गई। बच्चों के भोजन के मामले में हम बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल से भी पीछे हैं। हालांकि हमने बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने का दावा किया है, पर यह दावा अभी निकट भविष्य में पूरा होता दिखाई नहीं पड़ता है। और जिसे हम शिक्षा कह रहे हैं, वह गुणात्मक रूप से बेहद घटिया है और खुल्लम-खुल्ला गरीबों और अमीरों की शिक्षा में भेद करती है। यूएनडीपी की पिछले साल की मानव विकास रिपोर्ट में असमानता को एक कारक के रूप शामिल किया गया था। इस रपट के अनुसार यदि वैश्विक मानव विकास में से असमानता को घटाएं तो मानव विकास 22 फीसदी पीछे चला जाएगा। पर भारत में असमानता का स्तर वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है। दुनिया के 169 देशों में यों तो भारत का स्थान 119 वाँ है। पर यदि असमानता का गणना करके भारत की मानव विकास दर निकालें तो उसमें 32 फीसदी की गिरावट हो जाएगी। इसका अर्थ यह कि आर्थिक विकास के साथ हमारा सामाजिक विकास नहीं हो रहा है। हमारी आर्थिक नीतियाँ समग्र विकास के बजाय एक तबके के विकास तक सीमित हो गईं हैं। तो रोग यहाँ है और हम इलाज किसी और चीज़ का कर रहे हैं। देश का बड़ा जन-समुदाय कुपोषण, अशिक्षा और असहायता का शिकार है। वह सबल होता तो तमाम खराबियाँ नहीं हो पातीं। इलाज इस रोग का होना चाहिए। 

2 comments:

  1. संस्कृति का अपक्षय ही मूल कारण है..

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  2. जागरूकता की कमी है हमारे यहां ..

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