आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण और आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बगैर हमारे देश में गहराई तक बैठी गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने का तरीका नज़र नहीं आता। इसके साथ कुछ बातें जुड़ी हैं। जैसे ही ऊपर बताई गतिविधियँ शुरू होंगी सबसे पहले इससे वे लोग ही जुड़ेंगे जो शिक्षित, किसी खास धंधे में कुशल, स्वस्थ और सक्रिय हैं। दुनिया में इस समय जो व्यवस्था है वह पूँजीवादी है। इस दौरान सोवियत संघ और चीन जैसे कुछ देशों में पूँजीवाद का समाजवादी मॉडल आया था, जिसमें नियोजन और लगभग युद्ध की अर्थव्यवस्था के तर्ज पर पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश की गई थी। इस कोशिश में रूस के लाखों किसान मारे गए थे। चीन में ग्राम-केन्द्रित क्रांति हुई थी, जिसने तीन दशक पहले रास्ता बदल लिया। एक मानवीय और उच्चस्तरीय व्यवस्था के आने के पहले जिसे आप समाजवाद कह सकते हैं, पिछड़ेपन से छुटकारा ज़रूरी है। पिछड़ेपन के तमाम रूप हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक वगैरह। यूरोप और अमेरिका का समाज रूस और चीन के समाज से ऊँचे स्तर पर आ चुका था, पर वहाँ समाजवाद नहीं आया। इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ नहीं आ सकता या नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स आज प्रासंगिक हैं तो पूँजीवाद के विश्लेषण के कारण। पर उन्होंने अपने समाजवाद की कोई रूपरेखा नहीं दी थी। लेनिन ने अपने तरीके से उसे परिभाषित किया और रूस में एक शुरूआत की। मार्क्सवाद के कुछ प्रवर्तकों को संशोधनवादी कहा जाता है। इनमें बंर्सटीन और कौटस्की भी हैं। इनका विचार है कि पूँजीवादी व्यवस्था का समाजवाद में रूपांतरण होना चाहिए। इस लिहाज से समाजवाद भी पूँजीवाद की तरह वैश्विक विचार है। इस अवधारणा पर जब आगे बढ़ते हैं तब कई प्रकार के विचार एक साथ सामने आते हैं। सोवियत संघ में आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह राज्य केन्द्रित थीं। वॉशिंगटन कंसेंसस पूरी तरह से निजी हाथों में और समृद्ध होने को आतुर व्यक्तियों के हाथों में सत्ता देने को आतुर है। रूसी साम्यवाद परास्त हुआ और वॉशिंगटन कंसेंसस भी विफल है। पर हम अभी मँझधार में हैं। हमें वैश्विक आर्थिक और तकनीकी प्रतियोगिता में बने रहने के लिए विशाल ताने-बाने की ज़रूरत है। इस प्रयास में टू-जी और कोल-गेट वगैरह होते हैं। ज़रूरत इनके नियमन और जनता के दबाव की है। इसके लिए जनता का स्वस्थ, शिक्षित और जागरूक होना ज़रूरी है। बेहतर हो हम तरीके बताएं कि यह काम कैसे होगा। मेरे विचार से हम लोग मध्य वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। यह वर्ग पढ़ा-लिखा और अपेक्षाकृत जागरूक और व्यवस्था को समझने वाला होता है। अभी मैं हस्तक्षेप में अरुण महेश्वरी का लेख पढ़ रहा था। उन्हें ममता बनर्जी के राज में निराशा मिली है। दरअसल वाम मोर्चा को लम्बे समय बाद यह समझ में आया कि रास्ता कहाँ है। तब तक राजनीतिक रूप से वे गलतियाँ कर चुके थे। वामपंथी पार्टियों को वैश्विक गतिविधियों के बरक्स अपने विचार बनाने चाहिए। रूसी म़डल फेल हो चुका है। चीन में अभी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है। यह शासन दो-चार लोगों की साज़िश का परिणाम नहीं है। उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। हमें पहले तय करना चाहिए कि हम तेज आधुनिकीकरण चाहते हैं या नहीं। बेशक क्रोनी कैपिटलिज़्म, कॉरपोरेट क्राइम और पूँजी के नाम पर प्राकृतिक सम्पदा का ध्वंस गलत है, पर निजी पूँजी, विदेशी पूँजी और शहरीकरण में चाहिए। यदि आप समझते हैं कि नहीं चाहिए, तब फिर अपनी पूरी बात को बताएं कि आपका रास्ता क्या है। नीचे सी एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख है, पर यह संदर्भ इसलिए ज़रूरी है कि हम सारी चीजों को एक साथ देख रहे हैं। समस्या उदारीकरण है तो उसे खत्म कीजिए। उपयोगी है तो पूरी ताकत से लागू कीजिए।
पिछले दो-तीन हफ्तों में आर्थिक उदारीकरण से जुड़े बड़े फैसले होने से अर्थव्यवस्था में गिरावट का माहौल रुका है। सेंसेक्स 19000 पार कर गया है। उम्मीद है मुद्रास्फीति में कमी आएगी। ब्याज की दरें घटने से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी। डॉलर की कीमत 57 रु तक पहुँच गई थी जो अब 48-49.50 के स्तर पर आ गई है। इसका असर पेट्रोलियम की कीमतों पर दिखाई पड़ेगा। जिसका दूरगामी परिणाम महंगाई पर होगा। बेशक इसे शहरों में रहने वाले और पूँजी निवेश करने वाले मध्य वर्ग को मिली राहत कह सकते हैं, पर क्या इस वर्ग को राहत देना पाप है? यही मध्य वर्ग अपने से नीचे वाले वर्ग के उत्थान का कारण बनता है। बेशक हमारे मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा गैर-जिम्मेदार और मौज-मस्ती में डूबा है। पर यही वर्ग राजनीतिक दृष्टि से जागरूक भी है।
गुजरात के चुनाव के ठीक पहले नरेन्द्र मोदी और सोनिया गांधी के बीच की तकरार सार्थक हो सकती है, यदि दोनों पक्ष वैचारिक आधार पर सामने आएं। अरविन्द केजरीवाल ने रॉबर्ट वड्रा को लेकर जो आरोप लगाए हैं, उनकी सफाई कांग्रेस को देनी है। सरकार की ज़िम्मेदारी है कि कम्पनियों को पारदर्शी बनाए। वस्तुतः कम्पनियों को किन्हीं परिवारों की ज़ागीर नहीं होना चाहिए। कोई कम्पनी कैसे किसी व्यक्ति को मुफ्त में सुविधाएं दे सकती हैं? उसमें जनता का पैसा लगा है तो प्रबंधन की जवाबदेही जनता के प्रति है। पिछले गुरुवार को सरकार ने जो फैसले किए हैं उनमें कम्पनी कानूनों में बदलाव का फैसला भी है। पिछले 13 साल में तीसरी बार कैबिनेट ने इन संशोधनों को मंज़ूरी दी है। ऐसे तमाम कानून संसद की स्वीकृति के लिए पड़े हैं और राजनीतिक दल अपने नम्बर बढ़ाने में लगे हैं। एकबारगी कानून और प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार हो जाए और जनता पर्याप्त जागरूक हो तो बहुत सी खराबियाँ न होने पाएं।
पिछले गुरुवार को पेंशन और बीमा में एफडीआई की सीमा 26 फीसदी से बढ़कर 49 फीसदी करने का फैसला किया गया। खुदरा कारोबार, उड्डयन और प्रसारण में विदेशी निवेश की अनुमति के लिए संसद सरकारी फैसला काफी था। ससंद से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं थी, पर पेंशन और इंश्योरेंस के लिए कानून में बदलाव ज़रूरी है। लगता है भरतीय जनता पार्टी इस कानून को पास करने में अड़चन नहीं डालेगी, क्योंकि स्थायी समिति की बैठक में पार्टी द्वारा सुझाए गए संशोधन इस बिल में शामिल कर लिए गए हैं। लोकसभा से पास होने के बाद इन विधेयकों को राज्यसभा से पास कराने में भी तब तक दिक्कत नहीं होगी, जब तक बीजेपी का समर्थन इसे हासिल है। इसी तरह के बदलाव कम्पनी कानून में भी होने हैं। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में मंत्रिमंडल ने कम्पनी कानून में भी कुछ महत्वपूर्ण बदलाव के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। कम्पनी कानून में बदलाव को भी शायद भाजपा का सर्थन मिल जाएगा। पिछले 13 साल से यह बदलाव भारतीय राजनीति की बाट जोह रहा है। कानून में बदलाव न हो पाने के कारण ज्यादातर फैसले मनमर्जी से हो रहे हैं। इसमें तमाम आपराधिक या गैर-कानूनी काम भी होते हैं। चूंकि निर्देश स्पष्ट नहीं होते इसलिए कम्पनियाँ इस स्थिति का लाभ उठाती हैं। पिछले आठ महीनों में 1500 कम्पनियों ने अंदरूनी रास्ते से तकरीबन 2.39 लाख करोड़ रुपए जुटाए जबकि वास्तविक खुला निवेश केवल 1217 करोड़ रु का ही हुआ। यह कॉरपोरेट लोकतंत्र पर सीधा प्रहार है। कॉरपोरेट मामलों के मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने हाल में कहा था कि भारत में 1991 में उदारीकरण के साथ साथ यदि ठोस विनियमन व्यवस्था भी कर दी गई होती तो कम्पनी जगत में बड़े घपले-घोटालों से बचा जा सकता था।
गुरुवार को मंत्रमंडल ने 21 प्रस्तावों को मंजूरी दी, जो शायद उदारीकरण की दिशा में अब तक के सबसे बड़े फैसले थे। इनमें अंतरराष्ट्रीय संचालन के लिए पांच हवाई अड्डों की पहचान, सभी वित्तीय सेवाओं को प्रतिस्पर्धा आयेाग के दायरे में लाना और रोजगार नियोजनालय में सुधार लाना।
आर्थिक उदारीकऱण और सुधार का मतलब व्यवस्था को पारदर्शी और कार्य-कुशल बनाना है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों के राज-काज में यह काम आगे बढ़ा है। गुजरात के चुनाव में इसे मुद्दा बनाना चाहिए। ये फैसले दो साल पहले ही हो जाने चाहिए थे। कांग्रेस पार्टी ने 2009 का चुनाव न्यूक्लियर डील और आर्थिक उदारीकरण के नाम पर ही जीता था। पर कांग्रेस पार्टी लोक-लुभावन नारों के सहारे अपनी नैया पार कराने लगी और कॉमनवैल्थ गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी ऐसे लोगों के हाथ में दे दी, जो कुशलता और पारदर्शिता के लिए नहीं जाने जाते थे। दिल्ली शहर में मेट्रो का काम समय से पहले और कुशलता के साथ करने वाले लोग भी इसी देश ने दिए थे। क्या वजह है कि राजव्यवस्था को तिकड़मी लोग ही पसंद आते हैं? उदारीकरण का मतलब यह भी नहीं है कॉरपोरेट जगत को छुट्टा छोड़ दिया जाए। उसका मतलब सिर्फ इतना है कि कुशल लोग आर्थिक गतिविधियों को चलाएं और उनके रास्ते में सरकारी अड़ंगे न हों। टू-जी, आदर्श घोटाला और कोयला घोटाला सब उस गलीज़ व्यवस्था की देन है, जिसमें परादर्शिता नहीं होती। इसका सूत्र-वाक्य है, रेग्युलेशन और ट्रांसपरेंसी।
देश की बीमा कम्पनियां काफी समय से विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाने का आग्रह कर रही हैं। इस कारोबार को बहुत बड़ी पूँजी की आवश्यकता होती है जिसके लिए विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाना ही होगा। देश का बहुत बड़ा वर्ग निजी क्षेत्र में काम करता है। निजी क्षेत्र में काम करने वाली ज़्यादातर कंपनियों को पेंशन की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं होती। इसलिए पेंशन की व्यवस्था चाहिए।दूसरे इससे देश के गरीबों के रास्ते में कोई दिक्कत नहीं आएगी और न स्वदेशी बीमा उद्योग पर कोई संकट आएगा। अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के इस क्षेत्र में आने से कार्य-कुशलता भी आएगी। अभी निजी क्षेत्र में काम करने वाले अपने आने वाले कल के लिए पैसे बचने के लिए ज़्यादातर पीपीएफ़ या बैंक बचत का सहारा ही लेते हैं। वायदा बाजार को लेकर विवाद है। 1952 में बने इस कानून में समय के साथ बदलाव की ज़रूरत है। यह कानून उपभोक्ता जिंसों के भविष्य के दामों पर वायदे के कारोबार को संचालित करता है। कानून के विरोधी कहते हैं कि सरकार व्यापारियों पर लगाम नहीं लगा पाएगी, इसलिए इसमें संशोधन नहीं करना चाहिए और इन्हें अधिक व्यवसाय की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने 2012-13 के लिए एशिया की विकास दर घटने का अनुमान लगाया है। वजह है एशिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं भारत और चीन के विकास में आ रही सुस्ती। यूरोप और अमेरिका में छाई मंदी का असर भी एशिया पर पड़ रहा है। एडीबी के अनुसार एशियाई देशों को अपनी स्थिति सुधारने के लिए निर्यात पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहिए। चीन में लगातार दूसरे महीने उत्पादन के आंकड़े भी खराब रहे हैं। जापान का उत्पादन उद्योग भी निर्यात में कमी के कारण मंदी झेल रहा है। हालांकि भारत का निर्यात भी लगातार चौथे महीने कम रहा है, पर हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात के भरोसे नहीं है। इस साल जनवरी से मार्च के हमारी अर्थव्यवस्था 5.3 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी जो कि पिछले नौ सालों में सबसे धीमी बढ़ोत्तरी थी। पिछले दो सालों में बढ़ती महंगाई भारतीय नीति-निर्धारकों की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक रही है। बढ़ती कीमतों से निपटने के लिए रिज़र्व बैंक ने कई कदम भी उठाए। मार्च 2010 के बाद से 13 बार ब्याज दरें बढ़ाई गई हैं। इससे हाल के महीनों में मंहगाई दर कुछ कम तो हुई है लेकिन सामान्य व्यक्ति को राहत नहीं है। वह राहत तभी मिलेगी, जब विकास दर पुरानी गति पर आए। सन 2008-09 की वैश्विक मंदी को अच्छी तरह झेल जाने के बाद हमें अपने हाथ खींचने नहीं चाहिए थे। मौका आज भी है। फर्क आप खुद महसूस करेंगे। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
पिछले गुरुवार को पेंशन और बीमा में एफडीआई की सीमा 26 फीसदी से बढ़कर 49 फीसदी करने का फैसला किया गया। खुदरा कारोबार, उड्डयन और प्रसारण में विदेशी निवेश की अनुमति के लिए संसद सरकारी फैसला काफी था। ससंद से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं थी, पर पेंशन और इंश्योरेंस के लिए कानून में बदलाव ज़रूरी है। लगता है भरतीय जनता पार्टी इस कानून को पास करने में अड़चन नहीं डालेगी, क्योंकि स्थायी समिति की बैठक में पार्टी द्वारा सुझाए गए संशोधन इस बिल में शामिल कर लिए गए हैं। लोकसभा से पास होने के बाद इन विधेयकों को राज्यसभा से पास कराने में भी तब तक दिक्कत नहीं होगी, जब तक बीजेपी का समर्थन इसे हासिल है। इसी तरह के बदलाव कम्पनी कानून में भी होने हैं। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में मंत्रिमंडल ने कम्पनी कानून में भी कुछ महत्वपूर्ण बदलाव के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। कम्पनी कानून में बदलाव को भी शायद भाजपा का सर्थन मिल जाएगा। पिछले 13 साल से यह बदलाव भारतीय राजनीति की बाट जोह रहा है। कानून में बदलाव न हो पाने के कारण ज्यादातर फैसले मनमर्जी से हो रहे हैं। इसमें तमाम आपराधिक या गैर-कानूनी काम भी होते हैं। चूंकि निर्देश स्पष्ट नहीं होते इसलिए कम्पनियाँ इस स्थिति का लाभ उठाती हैं। पिछले आठ महीनों में 1500 कम्पनियों ने अंदरूनी रास्ते से तकरीबन 2.39 लाख करोड़ रुपए जुटाए जबकि वास्तविक खुला निवेश केवल 1217 करोड़ रु का ही हुआ। यह कॉरपोरेट लोकतंत्र पर सीधा प्रहार है। कॉरपोरेट मामलों के मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने हाल में कहा था कि भारत में 1991 में उदारीकरण के साथ साथ यदि ठोस विनियमन व्यवस्था भी कर दी गई होती तो कम्पनी जगत में बड़े घपले-घोटालों से बचा जा सकता था।
गुरुवार को मंत्रमंडल ने 21 प्रस्तावों को मंजूरी दी, जो शायद उदारीकरण की दिशा में अब तक के सबसे बड़े फैसले थे। इनमें अंतरराष्ट्रीय संचालन के लिए पांच हवाई अड्डों की पहचान, सभी वित्तीय सेवाओं को प्रतिस्पर्धा आयेाग के दायरे में लाना और रोजगार नियोजनालय में सुधार लाना।
आर्थिक उदारीकऱण और सुधार का मतलब व्यवस्था को पारदर्शी और कार्य-कुशल बनाना है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों के राज-काज में यह काम आगे बढ़ा है। गुजरात के चुनाव में इसे मुद्दा बनाना चाहिए। ये फैसले दो साल पहले ही हो जाने चाहिए थे। कांग्रेस पार्टी ने 2009 का चुनाव न्यूक्लियर डील और आर्थिक उदारीकरण के नाम पर ही जीता था। पर कांग्रेस पार्टी लोक-लुभावन नारों के सहारे अपनी नैया पार कराने लगी और कॉमनवैल्थ गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी ऐसे लोगों के हाथ में दे दी, जो कुशलता और पारदर्शिता के लिए नहीं जाने जाते थे। दिल्ली शहर में मेट्रो का काम समय से पहले और कुशलता के साथ करने वाले लोग भी इसी देश ने दिए थे। क्या वजह है कि राजव्यवस्था को तिकड़मी लोग ही पसंद आते हैं? उदारीकरण का मतलब यह भी नहीं है कॉरपोरेट जगत को छुट्टा छोड़ दिया जाए। उसका मतलब सिर्फ इतना है कि कुशल लोग आर्थिक गतिविधियों को चलाएं और उनके रास्ते में सरकारी अड़ंगे न हों। टू-जी, आदर्श घोटाला और कोयला घोटाला सब उस गलीज़ व्यवस्था की देन है, जिसमें परादर्शिता नहीं होती। इसका सूत्र-वाक्य है, रेग्युलेशन और ट्रांसपरेंसी।
देश की बीमा कम्पनियां काफी समय से विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाने का आग्रह कर रही हैं। इस कारोबार को बहुत बड़ी पूँजी की आवश्यकता होती है जिसके लिए विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाना ही होगा। देश का बहुत बड़ा वर्ग निजी क्षेत्र में काम करता है। निजी क्षेत्र में काम करने वाली ज़्यादातर कंपनियों को पेंशन की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं होती। इसलिए पेंशन की व्यवस्था चाहिए।दूसरे इससे देश के गरीबों के रास्ते में कोई दिक्कत नहीं आएगी और न स्वदेशी बीमा उद्योग पर कोई संकट आएगा। अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के इस क्षेत्र में आने से कार्य-कुशलता भी आएगी। अभी निजी क्षेत्र में काम करने वाले अपने आने वाले कल के लिए पैसे बचने के लिए ज़्यादातर पीपीएफ़ या बैंक बचत का सहारा ही लेते हैं। वायदा बाजार को लेकर विवाद है। 1952 में बने इस कानून में समय के साथ बदलाव की ज़रूरत है। यह कानून उपभोक्ता जिंसों के भविष्य के दामों पर वायदे के कारोबार को संचालित करता है। कानून के विरोधी कहते हैं कि सरकार व्यापारियों पर लगाम नहीं लगा पाएगी, इसलिए इसमें संशोधन नहीं करना चाहिए और इन्हें अधिक व्यवसाय की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने 2012-13 के लिए एशिया की विकास दर घटने का अनुमान लगाया है। वजह है एशिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं भारत और चीन के विकास में आ रही सुस्ती। यूरोप और अमेरिका में छाई मंदी का असर भी एशिया पर पड़ रहा है। एडीबी के अनुसार एशियाई देशों को अपनी स्थिति सुधारने के लिए निर्यात पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहिए। चीन में लगातार दूसरे महीने उत्पादन के आंकड़े भी खराब रहे हैं। जापान का उत्पादन उद्योग भी निर्यात में कमी के कारण मंदी झेल रहा है। हालांकि भारत का निर्यात भी लगातार चौथे महीने कम रहा है, पर हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात के भरोसे नहीं है। इस साल जनवरी से मार्च के हमारी अर्थव्यवस्था 5.3 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी जो कि पिछले नौ सालों में सबसे धीमी बढ़ोत्तरी थी। पिछले दो सालों में बढ़ती महंगाई भारतीय नीति-निर्धारकों की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक रही है। बढ़ती कीमतों से निपटने के लिए रिज़र्व बैंक ने कई कदम भी उठाए। मार्च 2010 के बाद से 13 बार ब्याज दरें बढ़ाई गई हैं। इससे हाल के महीनों में मंहगाई दर कुछ कम तो हुई है लेकिन सामान्य व्यक्ति को राहत नहीं है। वह राहत तभी मिलेगी, जब विकास दर पुरानी गति पर आए। सन 2008-09 की वैश्विक मंदी को अच्छी तरह झेल जाने के बाद हमें अपने हाथ खींचने नहीं चाहिए थे। मौका आज भी है। फर्क आप खुद महसूस करेंगे। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
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ReplyDeletedetails.
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समस्या स्वयं को सशक्त न बना पाने की है, बाजारवाद तो किसी न किसी रूप में घुस ही जायेगा।
ReplyDeleteपरन्तु फिलहाल जैसा कुप्रशाषन है इसमें अधिक पारदर्शिता और लोगों की जागरूकता के बिना, नए सुधारों की शुरुआत भ्रष्टाचार को और ज्यादा बढ़ावा देगी. और उसका लाभ भी सिर्फ चंद नेता और अफसर ही उठाएंगे...
ReplyDeleteरविंदर सिह मान
बाज़ारवाद से लोगों का अपना-अपना आशय होता है। सच यह है कि बाज़ार हमारी आर्थिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है। उसके बगैर काम नहीं होता।
ReplyDeleteबिना बाजार के जीवन आगे नहीँ बढ़ सकता.??
ReplyDelete"ट्रिकिल डाउन थ्योरी" की सफलता के लिये कई और प्रथ्वियोँ की जरुरत पड़ेगी।
हमने ऐसी संस्क्रति ही बना ली है कि अधिकाधिक वस्तुयेँ ही सभ्यता का पर्याय बन गई है। क्योँ न इसी पर चोट की जाये। साम्यवाद और पूँजीवाद के बीच का रास्ता है -गाँधीवाद, सर्वोदय। जहाँ दोनोँ पर निँयत्रण भी है और समन्वय भी।