देश की तमाम बड़ी
समस्याओं की सूची में ज़मीन भी शामिल है। उद्योग जगत का मानना है कि कारखाने लगाने
के लिए ज़मीन हासिल करना सबसे बड़ी समस्या है। मोटा अनुमान है कि 1951 से अब तक सरकार
ने तकरीबन पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया। इस अधिग्रहण के कारण तकरीबन पाँच
करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से तकरीबन 75 फीसदी लोगों का पुनर्वास अभी तक नहीं
हो पाया है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आबादी के काफी बड़े हिस्से को न तो वैकल्पिक
रोज़गार की जानकारी है, न रोज़गार का ढाँचा है और न आर्थिक निवेश है। जिन लोगों की
ज़मीन ली गई, उनमें ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें क पैसा मुआवज़ा नहीं मिला। ज़मीन की मिल्कियत
के दस्तावेज़ तक लोगों के पास नहीं हैं। हैं भी तो उनमें तमाम खामियाँ हैं। उद्योग
लगाने वाले इसलिए खुद ज़मीन हासिल करने के बजाय चाहते हैं कि सरकार अधिग्रहण करके हमें
सौंप दे।
सन 1894 का कानून
अंग्रेज सरकार ने बनाया था। उसका उद्देश्य सार्वजनिक उपयोग के लिए ज़मीन हासिल करना
था। आज़ादी के बाद की सरकारों ने भी अंग्रेज
सरकार के नक्शे-कदम पर अधिग्रहण किया। बाँधों, नहरों, सड़कों, बिजलीघरों, सरकारी उद्योगों,
खनन और परिवहन के लिए काफी ज़मीन पर कब्ज़ा किया गया। इससे भारी विस्थापन हुआ। जिनकी
ज़मीन गई उनके अलावा भूमि-हीन खेत मज़दूरों, मछुआरों और दस्तकारों के जीवन पर भी इसका
असर पड़ा। न तो सरकारों के पास विस्थापन और पुनर्वासन की नीतियाँ थीं, न शिक्षा और
प्रशिक्षण था। खेती की ज़मीन की कीमत भी काफी कम थी। खासतौर से छोटे किसानों पर यह
दोहरी मार थी। पिछले बीस साल में स्थितियाँ और बदल गईं। शहरीकरण में तेजी आई है। खेती
की ज़मीन आवासीय ज़मीन में बदली। निज़ी रूप से ज़मीन की खरीद-फरोख्त के मुकाबले सरकारों
ने आवास योजनाओं के लिए काफी ज़मीन का अर्जन किया। सेज़ के नाम से ज़मीन के बड़े स्तर
पर हुए अर्जन से समस्या ने वीभत्स रूप ले लिया। नंदीग्राम और सिंगुर में हुई हिंसा
के बाद यह बात कही गई कि सरकार का काम उद्योगों के लिए ज़मीन का इंतज़ाम करना नहीं
है। पर निवेशकों की ओर से दबाव है कि सरकार ज़मीन का इंतज़ाम कराए।
इस समस्या के आर्थिक
पहलुओं के साथ राजनीतिक पहलू भी हैं। बंगाल में वाममोर्चे की सरकार पर आर्थिक विकास
और औद्योगीकरण में तेजी लाने का दबाव था। वामपंथी दलों की अपनी नीतियों के कारण बंगाल
से कारोबारी दूर चले गए थे। जब सरकार ने अपनी नीतियाँ बदलीं तो ममता बनर्जी की पार्टी
ने लगभग वामपंथी तरीके से आंदोलन खड़ा किया और वाममोर्चे को सत्ताच्युत कर दिया। इस
वक्त भूमि अधिग्रहण कानून का सबसे बड़ा विरोध ममता बनर्जी ही कर रहीं हैं। वे किसी
भी कीमत पर उद्योगों के लिए किसानों की ज़मीन लेने के खिलाफ हैं। यूपीए अध्यक्ष सोनिया
गांधी ने सामाजिक सवालों को लेकर जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई थी, उसकी सलाह पर
ही यह कानूनी मसौदा तैयार किया गया है। इसमें एक महत्वपूर्ण व्यवस्था यह है कि जिन
लोगों की ज़मीन ली जा रही है, उनमें से 80 फीसदी लोग ज़मीन देने से मना कर दें तो अधिग्रहण
सम्भव नहीं होगा। यह काफी कड़ी शर्त नज़र आ रही थी। इसपर ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने सहमति
देने वालों का प्रतिशत 80 से घटाकर 67 फीसदी करने का सुझाव दिया था। पर सोनिया गांधी
ने इसे वीटो कर दिया है और कहा है कि 80 फीसदी की सहमति अनिवार्य होनी चाहिए। इस कानून
में ग्रामीण इलाकों में ज़मीन की कीमत बाज़ार भाव से चार गुना और शहरी इलाकों में बाज़ार
भाव से दोगुना रखी गई है। विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास और अधिग्रहीत भूमि के निरुपयोग
पर उसपर मिलने वाले लाभ में से 20 फीसदी मूल भूमि के स्वामी से साझा करने की शर्तें
भी हैं।
भूमि अधिग्रहण
के दो पहलू हैं। पहला उद्योग के लिए भूमि का सवाल है और दूसरा है छोटे भू-स्वामियों
और भूमिहीनों के हितों की रक्षा। उद्योग लगने पर आसपास को लोगों को रोज़गार में वरीयता
देने की शर्तें भी होनी चाहिए। क्या यह सम्भव होगा? कांग्रेस चाहती है कि इस कानून को किसानों की सफलता के रूप में
पेश किया जाए। शायद इसीलिए सोनिया गांधी के वीटो की खबर को प्रचारित किया गया है। राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद ने भूमि अधिग्रहण कानून को लागू करने के पहले सात शर्तें पूरी करने की
सलाह दी थी। इसमें मुआवज़े से ज्यादा मनुष्यों की सुरक्षा के अलावा खाद्य सुरक्षा,
पर्यावरण की रक्षा और मानवीय भागीदारी पर ज़ोर है। पर इसकी कीमत क्या हमारा उद्योग
जगत दे सकेगा?
भारत में इस समय
ज़मीन के दाम दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। शहरों में प्रॉपर्टी की कीमत असाधारण रूप
से बहुत ज्यादा है। ज़मीन के दाम बढ़ने से भूस्वामियों को तो लाभ होगा, पर गाँवों में
आधी से ज्यादा आबादी भूमिहीनों की है। उनके लिए रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे या घटेंगे,
यह समझने की बात है। ऐसे उद्योग लगें जिनमें स्थानीय मज़दूरों को काम मिले तो रोज़गार
बढ़ सकता है, पर यदि प्रशिक्षित और कुशल लोगों को ही काम मिलेगा तो इसके दुष्प्रभाव
भी सामने आएंगे। दरअसल अभी हमें उन उद्योगों की ज़रूरत है, जिनमें शारीरिक श्रम की
ज़रूरत होती है। इसके लिए मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा मिलना चाहिए।
विवाद का एक मुद्दा
यह भी है कि निजी उद्योगों के लिए किसानों की ज़मीन हासिल करने में सरकार को किस प्रकार
की भूमिका अदा करनी चाहिए। वाणिज्य, शहरी विकास, राजमार्ग, भूपरिवहन और नागरिक उड्डयन
मंत्री चाहते हैं कि सरकार इस मुद्दे पर निजी कंपनियों को मदद करे, लेकिन कुछ मंत्रियों
का विचार है कि सरकार को निजी कंपनियों की मदद नहीं करनी चाहिए। सरकार को निजी उद्योगपतियों
के एजेंट के तौर पर काम नहीं करना चाहिए। जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का
पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण के कानून में किसानों के पक्ष में पैरवी
की थी, पर अब उन्हें लगता है आर्थिक विकास की दर को तेज़ करने के लिए इसकी कड़ी शर्तें
कम करनी चाहिए। उनके अनुसार मौजूदा आर्थिक वातावरण को देखते हुए हमें निवेशकों को माफिक
आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा।
क्या सरकार इस
कानून को संसद में पास करा पाएगी?
यही सवाल बीमा
और पेंशन कानूनों को लेकर है। कोयला प्रसंग को उछालने वाली भाजपा का रुख क्या होगा? मुलायम सिंह क्या करेंगे? कांग्रेस के भीतर काफी लोगों को लगता है कि
यह बिल पास हो गया तो पार्टी की पकड़ ग्रामीण इलाकों में अच्छी हो जाएगी। जल, जंगल
और ज़मीन को लेकर कड़वाहट लगातार बढ़ रही है। इससे निपटना तलवार की धार पर चलने जैसा
है।
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
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