लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में 15 सितम्बर को फ्रांसिस फुकुयामा की इतिहास का अंत अवधारणा का हवाला देते हुए भारतीय राजनीति के युगांतरकारी मोड़ का ज़िक्र किया है। उनके अनुसार 1989 भारत के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ रहा। इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक लम्बी छलांग लगाते हुए 1984 की दयनीय दो सीटों के मुकाबले 86 सीटों का सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। भाजपा राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को चुनौती देने वाले मुख्य दल के रुप में उभरी। अगले दशक में भाजपा 1996 तक, तेजी से बढ़ती रही और कांग्रेस पार्टी सिकुड़ती गई, जब भाजपा लोक सभा में सर्वाधिक बड़े दल के रुप में उभरी, और 1998-1999 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण संभाल लिया। आडवाणी जी ने लिखा, तब से, जब भी कोई मुझसे पूछता है: राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुख्य योगदान को आप कैसे निरूपित करेंगें; तो सदैव मेरा उत्तर रहता है: भारत की एकदलीय प्रभुत्व वाली राजनीति को द्विध्रुवीय राजनीति में परिवर्तित करना। यह उपलब्धि न केवल भाजपा अपितु कांग्रेस और निस्संदेह देश तथा इसके लोकतंत्र के लिए वरदान सिध्द हुई है। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी इसे इस रुप में नहीं लेती, भाजपा को एक मुख्य विपक्ष मानकर जिसके साथ सतत् सवांद करना शासन के लिए लाभकारी हो सकता है के बजाय इसे एक शत्रु के रुप में मानती है जिसे हटाना और किसी भी कीमत पर मिटाना उसका लक्ष्य है। प्रणव मुखर्जी अपवाद थे। नेता लोकसभा के रुप में यूपीए के अधिकांश कार्यकाल में उन्होंने मुख्य विपक्ष के नेतृत्व से निरंतर संवाद बनाए रखा। सूरजकुंड में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों का संदेश यदि यह है कि चुनाव आ गए हैं तैयार रहो, तो इसमें कोई नई या बड़ी बात नहीं। चुनाव 2013 में हों या 2014 में अब ज़्यादा समय नहीं बचा। क्या बीजेपी उसके लिए तैयार है? फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि हिमाचल, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड और मिजोरम विधान सभाओं के चुनाव के पहले या उनके साथ लोक सभा चुनाव होंगे। यूपीए का गणित इतना बिगड़ा नहीं है कि सरकार फौरन गिर जाए। अलबत्ता भाजपा ने रिटेल में एफडीआई के विरोध को मुख्य मुद्दा बनाने का फैसला किया है। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा ने मान लिया था कि न्यूक्लियर डील के कारण कांग्रेस अलोकप्रिय होगी, पर ऐसा नहीं हुआ। खुदरा बाज़ार में विदेशी पूँजी निवेश के कारण कांग्रेस अलोकप्रिय होगी या नहीं अभी यह कहना मुश्किल है। छोटे व्यापारी इसके खिलाफ हैं और परम्परा से उनका बड़ा हिस्सा भाजपा समर्थक है, जिसका लाभ पार्टी को मिलेगा। बावज़ूद इसके उदारीकरण के बारे में बीजेपी एक स्थिर नीति पर नहीं है। पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद का कहना है कि पार्टी जीत कर आई तो उसके परिणाम सामने आएंगे। कैसी बात करते हैं? यूपीए सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार है। बीजेपी ने न्यूक्लियर डील के वक्त कहा था कि हमारी सरकार आई तब भी हम अंतरराष्ट्रीय समझौते का पालन करेंगे। रिटेल में एफडीआई की शुरूआत एनडीए के शासनकाल से हुई है और यह पार्टी 100 फीसदी निवेश की समर्थक थी। पार्टी को कांग्रेस की अलोकप्रियता के नकारात्मक फॉर्मूले के बजाय राज्यों में अपनी सरकारों की उपलब्धियों का सकारात्मक सहारा लेना चाहिए। उसकी उपलब्धियाँ क्या हैं? कर्नाटक में यदुरप्पा और उत्तर प्रदेश में बाबू सिंह कुशवाहा। इस पार्टी का हाजमा खराब है, उसे हाजमोला चाहिए।
उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के पहले पार्टी ने एक ओर बाबूराम कुशवाहा को साथ लेकर सोशल इंजीनियरी के रास्ते पर चलने की कोशिश की, वहीं राम मंदिर का सवाल भी उठाया। दूसरी ओर स्थानीय नेताओं ने नरेन्द्र मोदी को प्रचार के लिए आने नहीं दिया। टू-जी से कोल-गेट तक घोटालों की झड़ी लग जाने के बाद पार्टी ने घोटालों को मुद्दा बनाने का फैसला किया, अन्यथा शहरी मध्य वर्ग को टार्गेट करने की कोशिश हो रही थी। पार्टी अभी तक अपनी ब्रांड वैल्यू तय नहीं कर पाई है। कांग्रेस भी भ्रमित पार्टी है, पर कम से कम उसके ब्रांड के साथ सेक्युलर इमेज चिपकी है। बीजेपी का हिन्दुत्व अब वोट दिलाऊ अवधारणा नहीं है। शुरू में उसकी छवि साफ-सुथरी पार्टी की थी, पर अब वह छवि नहीं है। टू-जी को पीछे ले जाएं तब और कोल-गेट को पूरा खोलें तब भी भाजपा के चेहरे भी नज़र आएंगे। नरेन्द्र मोदी ने अपनी छवि कारोबार-मित्र की बनाई है। उन्हें देश के कॉरपोरेट सेक्टर से समर्थन मिलता है, पर पूरी पार्टी की छवि ऐसी नहीं है। आर्थिक उदारीकरण को लेकर नम्बर मिलेंगे तो कांग्रेस को ही मिलेंगे। पार्टी-नेतृत्व की खींचतान अभी खत्म नहीं हुई है। सूरजकुंड में श्रीमती सुषमा स्वराज स्वास्थ्य के कारण भाग नहीं ले पाईं, पर इसमें दो राय नहीं कि नरेन्द्र मोदी फैक्टर उन्हें पसंद नहीं होगा। बीजेपी ने अपने अन्य नेताओं को प्रोजेक्ट नहीं किया। इस बार मोदी के बरक्स शिवराज सिंह चौहान को भी आगे किया गया। प्रेम कुमार धूमल, रमन सिंह, वसुंधरा राजे और सुशील मोदी को आगे क्यों नहीं लाते? पार्टी के पास केन्द्र सरकार की अनुपलब्धियों के मुकाबले अपनी सरकारों की उपलब्धियाँ नहीं हैं क्या? राष्ट्रीय परिषद के खुले सत्र में कोई मुख्यमंत्री नहीं बोला। पार्टी को वोटर के पहले क्या अपने कार्यकर्ता को आश्वस्त करना नहीं चाहिए?
आडवाणी जी विपक्ष और सत्ता-पक्ष के जिस रिश्ते का उल्लेख कर रहे हैं, वह वास्तव में लोकतंत्र की बुनियाद है। और कोई वजह नहीं लगती कि लोकसभा के अगले चुनाव के बाद भी भारतीय राजनीति दो ध्रुवों के बजाय तीन ध्रुवीय हो जाएगी। हालांकि आडवाणी जी ने कुछ महीने पहले अपनी एक पोस्ट में इस बात को स्वीकार किया था कि ऐसी स्थिति आ सकती है कि कांग्रेस या बीजेपी के समर्थन से कोई सरकार बने। पर वे कई बार अपनी पार्टी को आत्मनिरीक्षण की सलाह भी देते हैं। जून की एक पोस्ट में उन्होंने लिखा, हालांकि, जब इन दिनों पत्रकार यूपीए सरकार के घोटालों की श्रृंखला के बारे में हमला करते हैं लेकिन साथ ही भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए द्वारा इस स्थिति का लाभ न उठा पाने पर खेद प्रकट करते हैं- तो एक पूर्व पत्रकार होने के नाते मैं महसूस करता हूं कि वे जनमत को सही ढंग से अभिव्यक्त कर रहे हैं।...उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे, मायावतीजी द्वारा भ्रष्टाचार के आरोपों में हटाए गए बसपा के मंत्रियों का पार्टी द्वारा स्वागत, झारखण्ड और कर्नाटक में पार्टी मामलों का संचालन - इन सभी घटनाओं ने भ्रष्टाचार के विरुध्द पार्टी के अभियान को कमजोर कर दिया है।...कोर कमेटी की बैठक में मैंने कहा कि यदि लोग आज यूपीए सरकार से गुस्सा हैं तो वे हमसे भी निराश हैं।
सन 2004 के चुनाव के पहले अरुण जेटली मे कहीं कहा था कि कांग्रेस अब खत्म हो चुकी है, वामपंथी सिर्फ बंगाल और केरल तक सीमित हैं। सिर्फ भाजपा है जो कांग्रेस की जगह ले रही है। वह चुनाव जीत लिया होता तब शायद बात कुछ और होती। भाजपा की सबसे बड़ी अभिलाषा कांग्रेस का स्थानापन्न बनने की होनी चाहिए, क्योंकि अच्छी या खराब कांग्रेस ही पूरे देश में व्याप्त अकेली पार्टी है। आडवाणी जी ने सूरजकुंड में कहा कि हमें कट्टर हिन्दुत्ववादी पार्टी की छवि को दूर करके सेक्युलर पार्टी की छवि को अपनाना चाहिए। वस्तुतः अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चली ही इस बात पर थी कि उसने पूरे देश की सरकार बनने की कोशिश की। कांग्रेस की खासियत है कि वह एक पार्टी नहीं अनेक विचारों, समूहों, संस्कृतियों के संगठन के रूप में विकसित हुई है। देश में जो भी पार्टी राज करने आएगी उसे बहुलता के साथ-साथ उभरते मध्य वर्ग और शहर को भी ध्यान में रखना होगा, क्योंकि छवि यहीं से बनती है। यह बात सपा, बसपा, डीएमके, एआईडीएमके और तृणमूल जैसे क्षेत्रीय दलों पर भी लागू होती है।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के पहले पार्टी ने एक ओर बाबूराम कुशवाहा को साथ लेकर सोशल इंजीनियरी के रास्ते पर चलने की कोशिश की, वहीं राम मंदिर का सवाल भी उठाया। दूसरी ओर स्थानीय नेताओं ने नरेन्द्र मोदी को प्रचार के लिए आने नहीं दिया। टू-जी से कोल-गेट तक घोटालों की झड़ी लग जाने के बाद पार्टी ने घोटालों को मुद्दा बनाने का फैसला किया, अन्यथा शहरी मध्य वर्ग को टार्गेट करने की कोशिश हो रही थी। पार्टी अभी तक अपनी ब्रांड वैल्यू तय नहीं कर पाई है। कांग्रेस भी भ्रमित पार्टी है, पर कम से कम उसके ब्रांड के साथ सेक्युलर इमेज चिपकी है। बीजेपी का हिन्दुत्व अब वोट दिलाऊ अवधारणा नहीं है। शुरू में उसकी छवि साफ-सुथरी पार्टी की थी, पर अब वह छवि नहीं है। टू-जी को पीछे ले जाएं तब और कोल-गेट को पूरा खोलें तब भी भाजपा के चेहरे भी नज़र आएंगे। नरेन्द्र मोदी ने अपनी छवि कारोबार-मित्र की बनाई है। उन्हें देश के कॉरपोरेट सेक्टर से समर्थन मिलता है, पर पूरी पार्टी की छवि ऐसी नहीं है। आर्थिक उदारीकरण को लेकर नम्बर मिलेंगे तो कांग्रेस को ही मिलेंगे। पार्टी-नेतृत्व की खींचतान अभी खत्म नहीं हुई है। सूरजकुंड में श्रीमती सुषमा स्वराज स्वास्थ्य के कारण भाग नहीं ले पाईं, पर इसमें दो राय नहीं कि नरेन्द्र मोदी फैक्टर उन्हें पसंद नहीं होगा। बीजेपी ने अपने अन्य नेताओं को प्रोजेक्ट नहीं किया। इस बार मोदी के बरक्स शिवराज सिंह चौहान को भी आगे किया गया। प्रेम कुमार धूमल, रमन सिंह, वसुंधरा राजे और सुशील मोदी को आगे क्यों नहीं लाते? पार्टी के पास केन्द्र सरकार की अनुपलब्धियों के मुकाबले अपनी सरकारों की उपलब्धियाँ नहीं हैं क्या? राष्ट्रीय परिषद के खुले सत्र में कोई मुख्यमंत्री नहीं बोला। पार्टी को वोटर के पहले क्या अपने कार्यकर्ता को आश्वस्त करना नहीं चाहिए?
आडवाणी जी विपक्ष और सत्ता-पक्ष के जिस रिश्ते का उल्लेख कर रहे हैं, वह वास्तव में लोकतंत्र की बुनियाद है। और कोई वजह नहीं लगती कि लोकसभा के अगले चुनाव के बाद भी भारतीय राजनीति दो ध्रुवों के बजाय तीन ध्रुवीय हो जाएगी। हालांकि आडवाणी जी ने कुछ महीने पहले अपनी एक पोस्ट में इस बात को स्वीकार किया था कि ऐसी स्थिति आ सकती है कि कांग्रेस या बीजेपी के समर्थन से कोई सरकार बने। पर वे कई बार अपनी पार्टी को आत्मनिरीक्षण की सलाह भी देते हैं। जून की एक पोस्ट में उन्होंने लिखा, हालांकि, जब इन दिनों पत्रकार यूपीए सरकार के घोटालों की श्रृंखला के बारे में हमला करते हैं लेकिन साथ ही भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए द्वारा इस स्थिति का लाभ न उठा पाने पर खेद प्रकट करते हैं- तो एक पूर्व पत्रकार होने के नाते मैं महसूस करता हूं कि वे जनमत को सही ढंग से अभिव्यक्त कर रहे हैं।...उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे, मायावतीजी द्वारा भ्रष्टाचार के आरोपों में हटाए गए बसपा के मंत्रियों का पार्टी द्वारा स्वागत, झारखण्ड और कर्नाटक में पार्टी मामलों का संचालन - इन सभी घटनाओं ने भ्रष्टाचार के विरुध्द पार्टी के अभियान को कमजोर कर दिया है।...कोर कमेटी की बैठक में मैंने कहा कि यदि लोग आज यूपीए सरकार से गुस्सा हैं तो वे हमसे भी निराश हैं।
सन 2004 के चुनाव के पहले अरुण जेटली मे कहीं कहा था कि कांग्रेस अब खत्म हो चुकी है, वामपंथी सिर्फ बंगाल और केरल तक सीमित हैं। सिर्फ भाजपा है जो कांग्रेस की जगह ले रही है। वह चुनाव जीत लिया होता तब शायद बात कुछ और होती। भाजपा की सबसे बड़ी अभिलाषा कांग्रेस का स्थानापन्न बनने की होनी चाहिए, क्योंकि अच्छी या खराब कांग्रेस ही पूरे देश में व्याप्त अकेली पार्टी है। आडवाणी जी ने सूरजकुंड में कहा कि हमें कट्टर हिन्दुत्ववादी पार्टी की छवि को दूर करके सेक्युलर पार्टी की छवि को अपनाना चाहिए। वस्तुतः अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चली ही इस बात पर थी कि उसने पूरे देश की सरकार बनने की कोशिश की। कांग्रेस की खासियत है कि वह एक पार्टी नहीं अनेक विचारों, समूहों, संस्कृतियों के संगठन के रूप में विकसित हुई है। देश में जो भी पार्टी राज करने आएगी उसे बहुलता के साथ-साथ उभरते मध्य वर्ग और शहर को भी ध्यान में रखना होगा, क्योंकि छवि यहीं से बनती है। यह बात सपा, बसपा, डीएमके, एआईडीएमके और तृणमूल जैसे क्षेत्रीय दलों पर भी लागू होती है।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून |
No comments:
Post a Comment