Monday, July 25, 2011

फई के अबोध या सुबोध भारतीय भाई


नार्वे में आतंकवादी कार्रवाई के बाद अंदेशा इस बात का था कि इसका रिश्ता कहीं न कहीं अल कायदा या उसकी किसी शाखा से होगा। अंसार-अल-इस्लाम नाम के किसी संगठन ने इसकी ज़िम्मेदारी भी ले ली। और इंटरनेट पर विश्लेषण भी शुरू हो गए कि अल ज़वाहीरी ने हाल में नॉर्वे का नाम भी हमलों के लिए लिया था। बहरहाल बम धमाके और उसके बाद एक सैरगाह पर धुआंधार गोलीबारी करने वाला व्यक्ति इस्लाम-विरोधी आतंकवादी लगता है। क्या ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं? क्या नव-नाज़ी कोई बड़ी कार्रवाई करना चाहते हैं? क्या आतंकवादियों का संसार अलग है? ऐसे सवालों पर निगाह जाती है, पर हमारे दिमाग पर मुम्बई धमाके हावी थे, सो हमारा निगाहें भारत-पाकिस्तान रिश्तों की ओर जाती है। बहरहाल अभी हमारे इलाके में गतिविधियों का मौसम है। और इसी बुधवार को होने वाली भारत-पाक वार्ता विचार के केन्द्र में रहेगी।


भारत-पाक वार्ता के एजेंडा से हटकर देखें तो सैयद गुलाम नबी फई के प्रकरण ने कुछ दूसरे कारणों से भारत के लोगों का ध्यान खींचा है। पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका उद्देश्य कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी सरकारें अमेरिकी नीतियों को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं। पर वस्तुतः केएसी लॉबीइंग कर रही थी। अमेरिका में लॉबीइंग वैध है और तमाम कम्पनियाँ, नेता और अधिकारी इस काम में जुड़े हैं। बाहरी तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी रंगत बदल गई है। फाई की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान सरकार बजाय दबाव में आने के और उग्र होकर अमेरिका के खिलाफ बोल रही है। बहरहाल वे अपनी जानें।


पत्रकार के रूप में काम करने वाले व्यक्ति को अक्सर अपनी देशभक्ति की परिभाषा को व्यापक बनाना होता है। और उन तर्कों को सुनना और पेश करना होता है जो हमारे देश के औपचारिक रुख के अनुरूप नहीं होते। क्या इस खाँचे में दिलीप पडगाँवकर, गौतम नवलखा और अरुंधती रॉय को रखकर देखें तो बात सामान्य सी नहीं लगती? सामान्य सी लगती है। और हम मानते हैं कि भारत एक खुला लोकतंत्र है। हम बड़ी हद तक खुले बहस को स्वीकार करते हैं। पिछले दिनों अरुंधती रॉय के मामले में हमने माना भी। पर इस मामले को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बाहर लेकर जाएं तो कुछ और बातें नज़र आती हैं।

हमारे यहाँ फई प्रकरण का दूसरा पहलू चर्चा का विषय है। गुलाम नबी फई ने भारत के अनेक उदारवादी लेखकों, पत्रकारों और नेताओं से रिश्ते बना रखे थे। वे उन्हें अमेरिका में कश्मीर के बाबत सम्मेलनों और सेमिनारों में बुलाते भी थे। खर्चे-पानी के साथ। इनमें तमाम बड़े नाम हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण नाम दिलीप पडगाँवकर का है, जो इन दिनों भारत सरकार की ओर से कश्मीर लोगों से संवाद स्थापित कर रहे हैं। क्या दिलीप पडगाँवकर का फाई के निमंत्रण पर जाना गलत था? गलत नहीं भी था तो क्या भारत सरकार की ओर से कश्मीरियों से उनके संवाद में कोई अड़चन है? साथ ही क्या भारत के उदारवादी जाने-अनजाने फई के जाल में फँस गए थे? या फाई पूर्णतः निर्दोष हैं और वे भारत की राजनयिक साजिश के शिकार हुए हैं, जैसाकि सैयद अली शाह गिलानी कह रहे हैं?


फई के मामले पर वर्जीनिया की अदालत में कार्यवाही कुछ दिन के लिए टल गई है। यों भी उसके कानूनी पहलू पर गहराई से जाने पर हमें कुछ नहीं मिलेगा। इतना साफ है कि गुलाम नबी फई को भारतीय कश्मीर छोड़े तीन दशक हो गए हैं। कश्मीर के बारे में उनका दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण के विपरीत है। कश्मीर के बाबत अलगाववादी दृष्टिकोण में भी दो धाराएं हैं। एक धारा चाहती है कि कश्मीर पाकिस्तानी कब्ज़े में रहे। और दूसरी चाहती है कि कश्मीर स्वायत्त और स्वतंत्र हो। सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों और इंडिपेंडेंस ऑफ इंडिया एक्ट के तहत कश्मीर के स्वतंत्र देश बनने की संभावना नहीं हो सकती। बहरहाल प्रकट रूप में फई एक खुले संवाद की अवधारणा के साथ भारतीय उदारवादियों को ले जाते थे। पर उनका मंच तटस्थ या निष्पक्ष नहीं है। उनका साफ उद्देश्य पाकिस्तानी एजेंडा को पूरा करना है। और अब यह बात भी सामने आ गई है कि इसके लिए वे पाकिस्तान सरकार और आईएसआई से पैसा ले रहे थे। पैसा जमा करने का उनका बेहतरीन तरीका यह था कि वे अमेरिका में पाकिस्तानी कारोबारियों से दान लेते थे। जिसके बदले में उन्हें टैक्स में छूट मिलती थी। ऊपर से पाकिस्तान सरकार उस रकम की भरपाई उन्हें या उनके परिवार को पाकिस्तान में कर देती थी।

यह बात समझ में नहीं आती कि अबोध भारतीय बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों को फई के एजेंडा का अनुमान नहीं रहा होगा। रिपोर्ट बताती हैं कि फई के सम्पर्कों से यह साफ था कि वे पाकिस्तान सरकार के लिए काम कर रहे थे। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि अमेरिका में लोकतांत्रिक पद्धति से लॉबीइंग करना कानूनन सही है। पर कानून के निहितार्थ कुछ और भी हैं। दो दशक से चल रही फई की गतिविधियों की जानकारी अमेरिकी प्रशासन को नहीं थी, यह भी नही माना जा सकता। पर भारतीय बुद्धिजीवियों की समझ एक पहेली है। 


Saturday, July 23, 2011

नॉर्वे में गोलीबारी जेहादी कार्रवाई नहीं?



नॉर्वे के इस 32 वर्षीय नौजवान का नाम है एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक। इसने उटोया के पास एक द्वीप पर बने सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली।

शुरूआती खबरों से पता लगा है कि इसने पुलिस की वर्दी पहन रखी थी। और इसके पास एक से ज्यादा बंदूकें थीं। इस घटना के ङीक पहले ओस्लो में प्रधानमंत्री निवास के पास एक इमारत में हुए विस्फोट में 7 लोगों की मौत हे गई। अभी तक की जानकारी यह है कि यह आदमी दक्षिणपंथी विचार का है और इस्लाम के खिलाफ लिखता रहा है। यह अपने आप को राष्ट्रवादी और कंजर्वेटिव ईसाई कहता है।

सवाल है ये दोनों घटनाएं क्या एक-दूसरे से जुड़ी हैं? ब्रीविक ने ट्विटर पर सिर्फ एक बार ट्वीट किया है। 17 जुलाई के उसके ट्वीट में जो कहा है वह अंग्रेज दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का एक उद्धरण है,  "One person with a belief is equal to the force of 100 000 who have only interests."

उसका फेस बुक अकाउंट कहता है कि वह शिकार, वर्ल्ड ऑफ वॉरक्राफ्ट तथा मॉडर्न वॉरफेयर जैसे खेल पसंद करता है और राजनैतिक विश्लेषण तथा स्टॉक एनलिसिस भी उसके शौक हैं।

 शुरू में ऐसी खबरें थीं कि बम धमाकों की जिम्मेदारी अल कायदा से जुड़े किसी ग्रुप ने ली है। सवाल है कि क्या दोनों घटनाओं के अलग-अलग कारण हैं?


बीबीसी की रपट


गार्डियन की खबर


Not a Jehadi operation

Friday, July 22, 2011

भारत-पाकिस्तान-बर्फ पिघलानी होगी


इसी मंगलवार को पाकिस्तान के कार्यवाहक राष्ट्रपति फारुक एच नाइक ने 34 वर्षीय हिना रब्बानी खार को देश के विदेश मंत्री पद की शपथ दिलाई। संयोग से जिस वक्त उन्होंने शपथ ली उस वक्त राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों देश के बाहर थे। हिना पिछले पाँच महीने से विदेश राज्यमंत्री के स्वतंत्र प्रभार के साथ काम कर रहीं थीं। उन्हें अचानक इसी वक्त शपथ दिलाकर मंत्री बनाने की ज़रूरत दो वजह से समझ में आती है। एक तो वे 22-23 जुलाई को बाली में हो रहे आसियान फोरम में पाकिस्तानी दल का नेतृत्व करेंगी। और शायद उससे बड़ी वजह यह है कि वे 27 जुलाई को भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्ण से बातचीत के लिए दिल्ली आ रहीं हैं। 13 जुलाई के मुम्बई धमाकों के फौरन बाद हो रही भारत-पाकिस्तान वार्ता कई मायनों में महत्वपूर्ण है। 26 नवम्बर 2008 को हुए मुम्बई हमले के बाद से रुकी पड़ी बातचीत फिर से शुरू होने जा रही है। और उन धमाकों के ठीक दो हफ्ते बाद जिन्होंने 26/11 की याद ताज़ा कर दी। पाकिस्तान चाहता तो हिना रब्बानी खार राज्यमंत्री के रूप में भी बातचीत के लिए आ सकतीं थीं। या मुम्बई धमाकों का नाम लेकर बातचीत को कुछ दिन के लिए टाला जा सकता था। पर ऐसा नहीं हुआ। इसका मतलब है कि दोनों देशों ने परिस्थितियों को समझा है।

19 जुलाई को जिस रोज़ हिना शपथ ले रहीं थीं उस रोज दो घटनाएं और हो रहीं थीं, जिनका भारत-पाकिस्तान वार्ता से सीधा रिश्ता न सही, पर पृष्ठभूमि से रिश्ता है। 19 को दिल्ली में भारत-अमेरिका सामरिक वार्ता चल रही थी, जिसके लिए विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन दिल्ली आईं थीं। उसी रोज़ अमेरिका के वर्जीनिया की एक अदालत में अमेरिकी जाँच एजेंसी एफबीआई ने 45 पेज का हलफनामा दाखिल किया, जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका उद्देश्य कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी सरकारें अमेरिकी नीतियों को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं। एफबीआई ने सैयद गुलाम नबी फाई नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है, जो यह कश्मीर सेंटर चलाते थे। एक और पाकिस्तानी का नाम इसमें है, जिसे पकड़ा नहीं जा सका है। बाहरी तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी रंगत बदल गई है।  

भारत-पाकिस्तान रिश्ते दो दिन में नहीं बदल सकते। लाहौर बस यात्रा से आगरा सम्मेलन तक का हमारा अनुभव यही है। पर वे लगातार खराब भी नहीं रह सकते। मुम्बई धमाकों से मुम्बई धमाकों तक का संदेश भी यही है। रिश्तों को बिगाड़े रखने वाली ताकतें दोनों देशों के भीतर मौजूद हैं, जो एक-दूसरे को प्राण वायु प्रदान करतीं हैं। पर पाकिस्तान में एक पूरा प्रतिष्ठान भारत-विरोध के नाम पर खड़ा है। उसका मूल स्वर है कश्मीर बनेगा पाकिस्तान। पाकिस्तानी राजनीति और सेना ने कश्मीर के मामले को बेहद ऊँचे तापमान पर गर्मा कर रखा है। पाकिस्तान को हर तरह के भारतीय संदर्भों से काट कर एक कृत्रिम देश बसाने की कामना उसे धीरे-धीरे तबाही की ओर ले जा रही है। इस प्रयास में इस देश ने अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान तक को मिटाना शुरू कर दिया है। इसी पाकिस्तान के भीतर दो धारणाएं और काम करतीं हैं। एक है वहाँ उभरती सिविल सोसायटी की, जिसके मन में देश को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने की इच्छा है। दूसरी है भारत के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक रिश्ते बनाए रखने की कामना। ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि पूरा पाकिस्तान जेहादी मानसिकता का शिकार है। हाँ ऐसी कामना जरूर कुछ लोगों के मन में है कि इस देश को जल्द से जल्द जेहादिस्तान बना दिया जाए। देश की गरीबी और अशिक्षा इस मानसिकता की पैठ बनाए रखने में मददगार है।  

बहरहाल, भारत के साथ रिश्तों का बनना-बिगड़ना पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पर भी निर्भर करेगा। यह पहला मौका है जब पाकिस्तान में जम्हूरी सरकार इतने लम्बे दौर तक चली है। यदि यह अपना कार्यकाल पूरा कर लेती है तो एक बड़ी उपलब्धि होगी। देश की राजनैतिक केमिस्ट्री को इसके साथ ही बदलना होगा। इसके आर्थिक बदलाव से भी राजनैतिक अवधारणाओं में बदलाव आएगा। सतत जेहादी माहौल में रहकर आधुनिक किस्म का आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। एकबारगी पाकिस्तानी मध्य वर्ग की जड़ें जम जाएंगी तो फैसले बदल जाएंगे। पर इस काम में तकरीबन दस साल और लगेंगे। तब तक कई किस्म के ऊँच-नीच से हमारा सामना होगा। धमाकों के गर्दो-गुबार भी हो सकते हैं और बातचीत के खुशनुमा मौके भी।

पाकिस्तान अपने जन्म के बाद से भारत-विरोध की जिस ग्रंथि से पीड़ित है वह उसे पहले पश्चिमी देशों की ओर ले गई। और अब उसे चीन की ओर ले जा रही है। इस दौरान उसने विदेशी सहायता के सहारे जीना सीख लिया है। पश्चिमी देश तो मुफ्त की मदद दे सकते थे, पर चीन से ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दूसरे पाकिस्तान को अपनी असुरक्षा ग्रंथि से बाहर आना चाहिए। इस असुरक्षा ने उसे अफगानिस्तान की ओर धकेल दिया है। अफगानिस्तान में विकास के खासे लम्बे दौर की ज़रूरत है। उसके पहले वहाँ राजनैतिक शांति चाहिए। पाकिस्तान वहाँ भारत की उपस्थिति नहीं चाहता। यह नासमझी और इतिहास-विरोधी बात है।

भारत-पाकिस्तान बातचीत में सबसे ज्यादा जिन लफ्ज़ो का इस्तेमाल होता है वे हैं कांफिडेंस बिल्डिंग मैज़र्स(सीबीएम)। इस सीबीएम का रास्ता आर्थिक है। दोनों देशों के बीच आर्थिक मामलों में सहयोग की जबर्दस्त सम्भावनाएं मौजूद हैं, पर पाकिस्तान का कश्मीर कॉज़ व्यापारिक सहयोग में आड़े आता है। हम अक्सर चीनी या प्याज लेते-देते रहते हैं, पर इससे आगे नहीं जाते। दोनों देशों के बीच इस वक्त करीब दो अरब डॉलर का सालाना व्यापार है। इसके मुकाबले दुबई और सिंगापुर वगैरह के रास्ते होने वाला छद्म-व्यापार कम से कम चार अरब का है। भारत-पाकिस्तान वार्ता की सुगबुगाहट पिछले कई महीनों से चल रही है। पिछले अप्रेल में दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक में कुछ फैसले हुए। दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के वास्ते पाकिस्तान की ओर से भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने में देर हो रही है। हालांकि अब संकेत हैं कि यह काम हो जाएगा।

दोनों देशों के बीच राजनैतिक धरातल पर रिश्ते कितने ही खराब रहे हों, दोनों देशों के व्यापारियों के रिश्ते बहुत अच्छे हैं। 26/11 के बाद से तमाम वार्ताएं रुक गईं, पर व्यापार किसी न किसी शक्ल में चलता रहा। वह तब जबकि औपचारिक रूप से अड़ंगे लगते रहे। कश्मीर में हालात सामान्य करने में नियंत्रण रेखा पर व्यापार की अनुमति मिली है। अभी हफ्ते में दो दिन व्यापार होता है। दोनों ओर के व्यापारी चाहते हैं कि इसके दिन बढ़ाए जाएं। दोनों के बीच किसी किस्म की बैंकिंग व्यवस्था नहीं है, इसलिए पूरा व्यापार बार्टर के आधार पर होता है। दोनों ओर के व्यापारी इस मामले को राजनैतिक बनने नहीं देते। इसी सोमवार को दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा के व्यापार को लेकर भी बातचीत हुई है। कश्मीर की समस्या के समाधान का एक व्यावहारिक रास्ता यह है कि धीरे-धीरे नियंत्रण रेखा को पारदर्शी बना दिया जाय। यानी आवागमन में पाबंदिया न रहें। यह काम व्यापार के मार्फत अच्छी तरह से हो सकता है। एकबारगी लोगों के आर्थिक हित जुड़ेंगे तो हिंसा के बादल छँटेंगे।

संयोग है कि पिछले साल जुलाई में भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी के कड़वे वक्तव्य के कारण माहौल खराब हो गया था। दोनों देशों के राजनयिकों ने हालात को सम्हाला। शाह महमूद कुरैशी को इस साल फरवरी में अमेरिका विरोधी वक्तव्यों के कारण हटा दिया गया। उनकी जगह आईं नई विदेश मंत्री शायद रिश्तों में हिना की खुशबू बिखेरने में कामयाब हों। आमीन। 

जनवाणी में प्रकाशित

Monday, July 18, 2011

धमाके दैवीय आपदा नहीं


हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में छिपे हैं सुरक्षा के खोट
धमाके दैवीय आपदा नहीं

पिछले हफ्ते भारतीय मीडिया पर तीन विषय छाए थे। स्वाभाविक रूप से पहला विषय था भ्रष्टाचार और दूसरा था केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार। और तीसरा विषय था या अभी है-आतंकवाद। इन तीनों में क्या कोई आपसी रिश्ता भी है? आप चाहें तो इनमें कुछ विषय और जोड़ लें जो अक्सर चर्चा में होते हैं। भारत-पाक समस्या, कश्मीर, माओवादी हिंसा, जातीय और साम्प्रदायिक सवाल, बॉलीवुड और मीडिया। मुम्बई धमाकों का इन सब के साथ रिश्ता जोड़ा जा सकता है।

मुम्बई धमाके हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। इनके पीछे कौन है, इसका पता लग भी जाए, पर ऐसा फिर से न होने पाए इसे सुनिश्चित करने वाली मशीनरी बननी चाहिए। पिछले धमाकों की फाइलें ही अधूरी पड़ीं हैं। कोई घटना होते ही हम सबसे पहले अपनी पेशबंदी करते हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री ने पहले दिन ही कह दिया कि यह इंटेलिजेंस फेल्यर नहीं था। तब यह क्या था? धमाके कहीं भी हो सकते हैं। आतंकियों ने अमेरिका जैसे देश की सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर दिखा दिया। उन्होंने लंदन, मैड्रिड और मॉस्को तक में धमाके किए। पिछले साल मई में न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में एक कार में बम रखा मिला। कार ही नहीं पकड़ी गई, बम रखने वाला भी पकड़ा गया।  यह कैसे सम्भव हुआ? इसकी वजह यह है कि उन्होंने एकबार किसी संगठन या समूह को पहचान लिया तो उसकी धमनियों, शिराओं और नाड़ियों तक पर नज़र रखना शुरू कर दिया। वे अपनी सुरक्षा के लिए चौकस हैं। अक्सर अमेरिकी सुरक्षा कर्मी अभद्रता करते हैं, पर सुरक्षा चूक नहीं करते।

क्या हमारी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में कोई खोट है जो हमें सख्ती के साथ निपटने से रोकती है? गृहमंत्री चिदम्बरम ने सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों का समर्थन किया है। पर सवाल है कि धमाकों के लिए जिम्मेदार कौन है? कहीं न कहीं किसी किस्म की विफलता है। यह राजनैतिक प्रश्न नहीं प्रशासनिक सवाल है। आमतौर पर होने वाली आतंकी घटनाओं की जाँच होती है और हम कुछ लोगों की पकड़-धकड़ भी करते हैं, पर इस बात की जाँच नहीं होती कि किस खुफिया एजेंसी या सुरक्षा एजेंसी की चूक से ऐसा हुआ। आमतौर पर सरकार ऐसी जाँच कराने से बचती है। जब गृहमंत्री ही एजेंसियों का बचाव कर रहे हैं, तब जाँच की ज़रूर क्या है? 26/11 के बाद महाराष्ट्र सरकार ने अपनी पुलिस व्यवस्था की त्रुटियों की जाँच के आदेश दिए थे, पर केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय एजेंसियों की जाँच नहीं कराई। इस किस्म की गफलत अमेरिका या इंग्लैंड की सुरक्षा एजेंसियां नहीं कर सकतीं। और हम हर बार धमाकों के बाद इसे दैवीय आपदा मान लेते हैं।   

आतंकवादियों पर उनके अड़्डे से नज़र रखी जाती है। अनेक संगठन और उनके प्रमुख कार्यकर्ता जाने-पहचाने हैं। वे किस से मिलते हैं, क्यों मिलते हैं वगैरह की नियमित रूप से जानकारी रखनी होती है। इंटेलिजेंस का काम धीमा और सुस्थिर होता है। उसे जनता के बीच अच्छा सम्पर्क रखना होता है। पर हमारे यहाँ पुलिस की छवि दोस्त की नहीं दुश्मन की है। छवि को बदले बगैर बेहतर इंटेलिजेंस सम्भव नहीं। दूसरे हमारे यहाँ इंटेलिजेंस के तमाम संगठन हैं, जिनके बीच तालमेल लगभग शून्य है। पाकिस्तान को सौंपी गई आतंकियों की सूची का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं है।

मुम्बई हादसे में अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल हुआ। इसके पहले के धमाकों में भी हुआ। अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल खेती में होता है। अमेरिका में फरबरी 1993 में न्यूयॉर्के के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाने की कोशिश करने वालों ने अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किया था। उसके बाद से अमेरिका, कनाडा और अन्य पश्चिमी देशों ने ऐसा नेटवर्क बनाया है कि कहीं भी अमोनियम नाइट्रेट की अस्वाभाविक खरीद-फरोख्त होती है तो अलर्ट मिल जाती है। यों भी उसकी खरीद के नियम बदल गए हैं। क्या हमने खाद विक्रेताओं को आगाह किया है कि कोई गैर-किसान नज़र आने वाला व्यक्ति अमोनियम नाइट्रेट खरीदे तो पुलिस को बताए? क्या पुलिस वालों की ट्रेनिंग इस किस्म की है कि वे खतरे को समझें?

हम जब भ्रष्टाचार की बात करते हैं, तब ऊपरी  सतह से ज्यादा वह निचली सतह पर होता है। जनता जब सबको चोर कहती है तब उसका अपना अनुभव बोलता है। आतंकी खतरों को टालने में इसी जनता के सहयोग की ज़रूरत होती है। पर वह किसे सहयोग दे? जिन्हें सहयोग देना है उनसे वह डरती है। नब्बे के दशक में जब सबसे पहले जैन हवाला मामला सामने आया तब मसला राजनैतिक नेताओं का नहीं सुरक्षा व्यवस्था का था। कश्मीर के आतंकवादियों के लिए हवाला के मार्फत पैसा आ रहा था। आतंकवादियों और राजनेताओं के शक्तिस्रोत जब इतने करीब होंगे तब क्या होगा, यह आप समझ सकते हैं। 1993 की वोहरा कमेटी की रपट हमारे यहाँ लम्बे अर्से तक धूल खाने के बाद सामने भी आई तो क्या हो गया? यह बात तब से कही जा रही है कि हमारी सुरक्षा का वास्ता हमारी व्यवस्था से भी है।   

फिलहाल खबर यह है कि जाँच एजेंसियों ने कुछ व्यक्तियों पर ज़ीरो-इन किया है। शायद किसी का स्केच भी बनाया गया है। अच्छी बात यह है कि यह स्केच अभी सिर्फ जाँचकर्ताओं को दिया गया है। वर्ना तमाम चैनल उसे अपना एक्सक्ल्यूसिव बता कर चला चुके होते। 26/11 के मौके पर चैनलों के धारावाहिक प्रसारण से पाकिस्तान में बैठे लश्करियों को बड़ी मदद मिली थी। हम धीरे-धीरे समझदार हो रहे हैं। हमारे पास बेहतरीन जाँचकर्ता हैं। वे अपराधियों को खोज निकालेंगे। पर वक्त है कि हम सुरक्षा को व्यापक संदर्भों में देखें। 

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


Friday, July 15, 2011

मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों होता है?


संसदीय लोकतंत्र के विशेषज्ञों के लिए यह शोध का विषय है कि प्रधानमंत्री बीच-बीच में अपने मंत्रिमंडल में फेर-बदल क्यों करते हैं। और यह भी कि फेर-बदल कब करते हैं। किसी भी बदलाव का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि पूरी टीम के बीच काम का नया माहौल बनता है, चुस्ती आती है। नए लोग सामने आते हैं और ढीला काम करने वाले बाहर होते जाते हैं। इस फेर-बदल के पीछे सप्लाई और डिमांड का मार्केट गणित भी होता है। यानी कुछ लोग सरकार में शामिल होने के लिए दबाव बनाते हैं और कुछ खास तरह के लोगों की ज़रूरत बनती जाती है। साथ ही मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा भी हो जाती है। इन सब बातों के अलावा राजनैतिक माहौल, विभिन्न शक्तियों के बीच संतुलन बैठाने और यदि गठबंधन सरकार है तो सहयोगी दलों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी बदलाव होते हैं। इतनी लम्बी कथा बाँचने की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि हम केन्द्रीय मंत्रिमंडल के ताजा फेर-बदल का निहितार्थ समझ सकें।

न्यूयॉर्क, लंदन और मैड्रिड सुरक्षित हैं तो मुम्बई क्यों नहीं


मुम्बई में एक बार फिर से हुए धमाकों से घबराने या परेशान होकर बिफरने की ज़रूरत नहीं है। यह स्पष्ट भले न हो कि इसके पीछे किसका हाथ है, पर यह स्पष्ट है कि वह हाथ किधर से आता है। पहला शक इंडियन मुजाहिदीन पर है। सन 2007 में लखनऊ और वाराणसी में हुए धमाकों और 2008 में जयपुर और अहमदाबाद के धमाकों की शैली से ये धमाके मिलते-जुलते हैं। पर इन मुजाहिदीन की मुम्बई के निर्दोष लोगों से क्या दुश्मनी? दहशत के जिन थोक-व्यापारियों की यह शाखा है, उन तक हम नहीं पहुँच पाते हैं।

घूम-फिरकर संदेह का घेरा लश्करे तैयबा और तहरीके तालिबान पाकिस्तान वगैरह पर जाता है। अब यह जानना बहुत महत्वपूर्ण नहीं कि उनके पीछे कौन है। वे जो भी हैं पहचाने हुए हैं। और उनके इरादे साफ हैं। महत्वपूर्ण है उनका धमाके कराने में कामयाब होना। और धमाके रोक पाने में हमारी सुरक्षा व्यवस्था का विफल होना। यह भी सच है कि सुरक्षा एजेंसियाँ अक्सर धमाकों की योजना बनाने वालों की पकड़-धकड़ करती रहतीं है। ऐसा न होता तो न जाने कितने धमाके हो रहे होते। देखना यह भी चाहिए कि मुम्बई में ऐसा क्या खास है कि वह हर दूसरे तीसरे बरस ऐसी खूंरेजी का शिकार होता रहता है। क्या वजह है कि वहाँ का अपराध माफिया इतना पावरफुल है?

Monday, July 11, 2011

लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है



सवालों के ढेर में जवाब खोजिए

पिछले कुछ समय से लगता है कि देश में सरकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट काम कर रही है। ज्यादातर घोटालों की बखिया अदालतों में ही उधड़ी है। अक्सर सरकारी वकील अदालतों में डाँट खाते देखे जाते हैं। परिस्थितियों के दबाव में सरकार की दशा सर्कस के जोकर जैसी हो गई है जो बात-बात में खपच्ची से पीटा जाता है। इसके लिए सरकार भी जिम्मेदार है और कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि सरकार का बचाव करना मुश्किल है। पर शासन की यह दुर्दशा शुभ लक्षण नहीं है। हमारी व्यवस्था में सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के काम बँटे हुए हैं। जिसका जो काम है उसे वही सुहाता है। पर ऐसा नहीं हो रहा है तो क्यों? और कौन जिम्मेदार है इस दशा के लिए?

Saturday, July 9, 2011

NoW का अंत

न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड यानी Now ऐसा कोई बड़ा सम्मानित अखबार नहीं था। पर 168 साल पुराने इस अखबार को एक झटके में बन्द करने की ऐसी मिसाल नहीं मिलेंगी। रूपर्ट मर्डोक ने युनाइटेड किंगडम की पत्रकारिता को लगभग बदल कर रख दिया। अखबारों की व्यावसायिकता को इस हद तक सम्माननीय बना दिया कि कमाई के नाम पर कुछ भी करने का उनका हौसला बढ़ा। तुर्रा यह कि पत्रकारिता के प्रवचन भी वह लपेट कर देते थे। बहरहाल इंग्लैंड में पत्रकारिता, अपराध और सरकार के रिश्तों पर नई रोशनी पड़ने वाली है। हमारे देश के लिए भी इसमें कुछ संकेत छिपे हैं बशर्ते उन्हें समझा जाए।

Friday, July 8, 2011

इधर कुआं उधर खाई



अगले तीन-चार दिन राष्ट्रीय राजनीति के लिए बड़े महत्वपूर्ण साहित होने वाले हैं। दिल्ली की यूपीए सरकार आंध्र प्रदेश में तेलंगाना की राजनैतिक माँग और जगनमोहन रेड्डी के बढ़ते प्रभाव के कारण अर्दब में  आ गई है। वहाँ से बाहर निकलने का रास्ता नज़र नहीं आता। उधर टू-जी की नई चार्जशीट में दयानिधि मारन का नाम आने के बाद एक और मंत्री के जाने का खतरा पैदा हो गया है। अब डीएमके के साथ बदलते रिश्तों और केन्द्र सरकार को चलाए रखने के लिए संख्याबल हासिल करने की एक्सरसाइज चलेगी। अगले कुछ दिनों में ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल में बहु-प्रतीक्षित फेर-बदल की सम्भावना है। राजनीति के सबसे रोचक या तो अंदेशे होते हैं या उम्मीदें। शेष जोड़-घटाना है। संयोग से तीनों तत्वों का योग इस वक्त बन गया है। शायद मंत्रिमंडल में हेर-फेर के काम को टालना पड़े। यह वक्त एक नई समस्या और खड़ी करने के लिए मौज़ूं नहीं लगता।

आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने लगातार दो सेल्फ गोल किए हैं। तेलंगाना मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर कांग्रेस ने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है। उधर जगनमोहन रेड्डी से जाने-अनजाने पंगा लेकर कांग्रेस ने आंध्र में संकट मोल ले लिया है। दोनों बातें एक-दूसरे की पूरक साबित हो रहीं हैं। सन 2004 में चुनावी सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा कर दिया था। संयोग से केन्द्र में उसकी सरकार बन गई। तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं हुई, यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में कामयाब भी हो गई थी। नवम्बर 2009 में के चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का वादा तो कर दिया, पर सबको पता था कि यह सिर्फ बात मामले को टालने के लिए है। चिदम्बरम का वह वक्तव्य बगैर सोचे-समझे दिया गया था और इस मसले पर कांग्रेस की बचकाना समझ का प्रतीक था। इस बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गई, जिसने बजाय समाधान देने के कुछ नए सवाल खड़े कर दिए।  इस रपट को लेकर आंध्र प्रदेश की हाईकोर्ट तक ने अपने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, तेलंगाना आंदोलन को मैनेज करने के बाबत केन्द्र सरकार को हिदायतें हैं।

Monday, July 4, 2011

राजनीति को भी चाहिए सिस्टमेटिक सुधार

प्रधानमंत्री का कहना है कि लोकपाल की व्यवस्था संवैधानिक दायरे में होनी चाहिए।  इसपर किसी को आपत्ति नहीं। संवैधानिक दायरे से बाहर वह हो भी नहीं सकता। होगा तो संसद से पास नहीं होगा। पास हो भी गया तो सुप्रीम कोर्ट में नामंज़ूर हो जाएगा। सर्वदलीय बैठक में इस बात पर सहमति थी कि एक मजबूत लोकपाल बिल आना चाहिए। अब बात बिल की बारीकियों पर होगी। लोकपाल बिल पर जब भी बात होती है अन्ना हजारे के अनशन का ज़िक्र होता है। क्या ज़रूरत है अनशन के बारे में बोलने की? क्या आपको उम्मीद नहीं कि 15 अगस्त तक बिल पेश कर देंगे? चूंकि पूरी व्यवस्था 42 साल से चुप बैठी है इसलिए आंदोलन जैसी बातें होतीं हैं। बिल के उपबन्धों पर बातें कीजिए अनशन पर नहीं। इसे समझने की कोशिश कीजिए कि किस बिन्दु पर किसे आपत्ति है। नीचे पढ़ें जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेखः-

किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

सियासत की बारादरी में काला बाज़ार

लोकपाल बिल पर सर्वदलीय सम्मेलन शुरू होने के पहले ही देश को इस बात की आशा थी कि इस बैठक में कोई सर्वानुमति नहीं उभरेगी। फिर भी बैठक में ज्यादातर पार्टियों का शामिल होना अच्छी बात थी। यह बैठक अन्ना हजारे ने नहीं सरकार ने बुलाई थी। क्योंकि संसद से प्रस्ताव पास कराने के लिए सरकार की ओर से विधेयक पेश होना जरूरी है। इसलिए इसके निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं। अच्छा हो कि इसका मसौदा ऐसा बनाया जाय कि उसपर बहस की गुंजाइश ही न रहे। क्या ऐसा कभी सम्भव है?

Friday, July 1, 2011

किसने बनाया इस देश को भिंडी बाज़ार?



देश में एक माहौल बना दिया गया है, और यह बात मैं सविनय कहता हूँ, कि अनेक मामलों में मीडिया की भूमिका आरोप लगाने वाले की, अभियोजक की और जज की हो गई है। प्रधानमंत्री ने पाँच सम्पादकों को अपने घर बुलाकर यह बात कही। अंग्रेजी में बोले गए 1884 शब्दों में से केवल 25 शब्दों का आशय ऊपर दिया गया है। इस वाक्य पर प्रधानमंत्री का कितना ज़ोर था, यह वही अनुमान लगा सकता है, जो सामने था। पर एक सहज सवाल उठता है कि क्या सरकार के सामने खड़ी दिक्कतों के लिए मीडिया जिम्मेदार है?
हाल में कुछ केन्द्रीय नेताओं ने स्वीकार किया था कि प्रधानमंत्री को मीडिया से सम्पर्क बढ़ाना चाहिए। सम्पादकों से उनकी मुलाकात इस नई धारणा को बल मिला है कि निगेटिव कवरेज के कारण सरकार की छवि को धक्का लगा है। अन्ना-आंदोलन के सन्दर्भ में सरकार पहले के मुकाबले ज्यादा सतर्क और आक्रामक नज़र आती है। रामदेव के रामलीला-अभियान के विफल होने के बाद अब अगली चुनौती अन्ना का 16 अगस्त से प्रस्तावित अनशन है। पर ऐसा क्यों माना जाय कि अनशन होगा?

प्रधानमंत्री का सम्पादक सम्मेलन

मंजुल का कार्टून साभार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या दूसरे शब्दों में कहें यूपीए-2 सरकार अब पीआर एक्सरसाइज़ कर रही है। प्रधानमंत्री का यह संवाद किसी किस्म का विचार-विमर्श नहीं था। एक प्रकार का संवाददाता सम्मेलन था। जनता से जुड़ने के लिए सम्पादकों की ज़रूरत नहीं होती। खासतौर से जब सम्पादकों का तटस्थता भाव क्रमशः कम हो रहा हो। फिर भी किसी बात पर सफाई देना गलत नहीं है। प्रधानमंत्री ने जो भी कहा, वह पहले भी वे किसी न किसी तरह कहते रहे हैं। 


उनकी तमाम बातों में एक तो मीडिया की शिकायत और सीएजी की भूमिका पर उनकी टिप्पणी विचारणीय है। उन्हें शिकायत है, पर मेरी धारणा है कि मीडिया की भूमिका शिकायतकर्ता, अभियोजक और जज की है और होनी चाहिए। जनता की शिकायतें सामने लाना उसका काम है। उसे कोई आरोप समझ में आए तो उसे लगाना भी चाहिए और जज की तरह निष्पक्ष, तटस्थ और न्यायप्रिय उसे होना चाहिए। पर इस जज के फैसले कार्यपालिका लागू नहीं करती, जनता लागू करती है। साथ ही इस जज को जिन मूल्यों, नियमों और सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करने होते हैं उनकी पर्याप्त समझ होनी चाहिए। 

Monday, June 27, 2011

बदलाव के दो दशक


आज के मुकाबले 1991 के जून महीने का भारत कहीं ज्यादा संशयग्रस्त और बेज़ार था। धार्मिक, जातीय, क्षेत्रीय सवालों के अलावा आतंकवादी हिंसा आज की तुलना में कहीं भयावह थी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर रूस के पराभव का हम पर असर पड़ा था। सबसे बड़ी बात आर्थिक मोर्चे पर हमारे अंतर्विरोध अचानक बढ़ गए थे। देश की आंतरिक राजनीति निराशाजनक थी। राजीव गांधी की हत्या के बाद पूरा देश स्तब्ध था। उस दौर के संकट को हमने न सिर्फ आसानी से निपटाया, बल्कि आर्थिक सफलता की बुनियाद भी तभी रखी गई। आज हमारे सामने संकट नहीं हैं, बल्कि व्यवस्थागत प्रश्न हैं, जिनके उत्तर यह देश आसानी से दे सकता है। लखनऊ के जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित लेख। 

पिछले हफ्ते भारत में एक राजनैतिक बदलाव के दो दशक पूरे हो गए। 21 जून 1991 को पीवी नरसिंह राव की सरकार के गठन के बाद एक नया दौर शुरू हुआ था, जिसका सबसे बड़ा असर आर्थिक नीति पर पड़ा। यह अर्थिक दर्शन नरसिंह राव की देन था, कांग्रेस पार्टी की योजना थी या मनमोहन सिंह का स्वप्न था, ऐसा नहीं मानना चाहिए। कांग्रेस के परम्परागत विचार-दर्शन में फ्री-मार्केट की अवधारणा उस शिद्दत से नहीं थी, जिस शिद्दत से भारत में उसने उस साल प्रवेश किया। यह सब अनायास नहीं हुआ। और न उसके पीछे कोई साजिश थी।

Friday, June 24, 2011

जादू की छड़ी आपके हाथ में है


जैसी उम्मीद थी लोकपाल बिल को लेकर बनी कमेटी में सहमति नहीं बनी। सहमति होती तो कमेटी की कोई ज़रूरत नहीं था। कमेटी बनी थी आंदोलन को फौरी तौर पर बढ़ने से रोकने के वास्ते। अब सरकार ने शायद मुकाबले की रणनीति बना ली है। हालांकि दिग्विजय सिंह की बात को आधिकारिक नहीं मानना चाहिए, पर उनका स्वर बता रहा है कि सरकार के सोच-विचार की दिशा क्या है। सरकार ने 3 जुलाई को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। राज्यों से माँगी गई सलाह का कोई अर्थ नहीं है। यों भी सरकार लोकपाल और लोकायुक्त को जोड़ने के पक्ष में नहीं है।

लोकपाल बने या न बने, यह मामला राजनैतिक नहीं है। उसकी शक्तियाँ क्या हों और उसकी सीमाएं क्या हों, इसके बारे में संविधानवेत्ताओं से लेकर सामान्य नागरिक तक सबको अपनी समझ से विचार करना चाहिए। इस फैसले के दूरगामी परिणाम निहित हैं। इसके स्वरूप और अधिकार सीमा का अंतिम फैसला संसद को करना है। संसद और दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच अधिकारों को लेकर अक्सर मतभेद उजागर होते हैं। उनके समाधान भी निकाले जाते हैं।

Monday, June 20, 2011

सपने ही सही, देखने में हर्ज क्या है?



लोकपाल विधेयक और काले धन के बारे में यूपीए के रुख में बदलाव आया है। सरकार अब अन्ना और बाबा से दो-दो हाथ करने के मूड में नज़र आती है। मसला यह नहीं है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाय या नहीं। मसला इससे कहीं बड़ा है। अन्ना की टीम जिस प्रकार का लोकपाल चाहती है उसका संगठनात्मक स्वरूप सरकारी सुझाव के मुकाबले बहुत व्यापक है। सरकार की अधिकतर जाँच एजेंसियाँ उसमें न सिर्फ शामिल करने का सुझाव है, उसकी शक्तियाँ भी काफी ज्यादा रखने का सुझाव है।
बाबा रामदेव के आंदोलन की फौरी तौर पर हवा निकल जाने से कांग्रेस पार्टी उत्साह में है। उसे उम्मीद है कि अन्ना का अगला आंदोलन टाँय-टाँय फिस्स हो जाएगा। चूंकि अन्ना ने न्यायपालिका और सांसदों के आचरण की जाँच भी शामिल करने की माँग की है इसलिए सांसदों और न्यायपालिका से समर्थन नहीं मिलेगा। कांग्रेस का ताज़ा प्रस्ताव है कि इस मामले पर सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया जाए। अन्ना हजारे 16 अगस्त से अनशन शुरू करने की धमकी दे रहे हैं। सवाल है कि यह अनशन शुरू हुआ तो क्या उसकी दशा भी रामदेव के अनशन जैसी होगी? या उसके उलट कुछ होगा?

Saturday, June 18, 2011

व्यवस्था को अनुशासन में लाना असम्भव नहीं


हर लहज़ा है क़त्ले-आम मगर 
कहते हैं कि क़ातिल कोई नहीं
लू के मौसम में 
बहारों की हवा माँगते हैं
अली सरदार ज़ाफरी की दोनों पंक्तियाँ अलग-अलग जगह से ली गईं हैं। मैने इन्हें लेख के शीर्षक के रूप में इस्तेमाल करना चाहा था। बहरहाल ये जिस रूप में छपी हैं उसमें भी एक अर्थ है। मेरा आशय केवल हालात को बयान करने का था। मुझे लगता है इस वक्त भ्रष्टाचार को लेकर सारी बहस ने राजनैतिक रंग ले लिया है। हम लक्ष्य से भटक रहे हैं। इसकी परिणति क्या है, इसपर नहीं सोच रहे। व्यवस्था का भ्रष्ट या अनुशासनहीन होना प्रतिगामी है। 
  
हाल में दिल्ली की एक अदालत ने पाया कि बगैर लाइसेंसों के सैकड़ों ब्ल्यू लाइन बसें सड़कों पर चल रहीं है। एक-दो नहीं तमाम बसें। ये बसें पुलिस और परिवहन विभाग के कर्मचारियों की मदद के बगैर नहीं चल सकतीं थीं। इस सिलसिले में उन रूटों पर तैनात पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है, जिनपर ये बसें चलतीं थीं। एक ओर हमें लगता है कि देश की प्रशासनिक व्यवस्था कमज़ोर है, पर गरीब जनता के नज़रिए से देखें तो पता लगेगा कि वह सबसे ज्यादा उस मशीनरी से परेशान है जिसे उसकी रक्षा के लिए तैनात किया गया है।

Monday, June 13, 2011

अन्ना और बाबा नहीं, यह जनता का दबाव है



बाबा रामदेव को अपना अनशन तोड़ना पड़ा क्योंकि उसे जारी रखना सम्भव नहीं था। बाबा के सलाहकारों ने प्लान बी तैयार नहीं किया था। रामलीला मैदान पर सरकारी कार्रवाई के बाद मैदान छोड़ा था तो उसके बाद की योजना सोच-विचारकर तैयार करनी चाहिए थी। आंदोलन का लक्ष्य भी स्पष्ट होना चाहिए। अन्ना-आंदोलन के संदर्भ में सरकार फँसी है। प्रणब मुखर्जी के ताज़ा वक्तव्य से सरकार की वैचारिक नासमझी नज़र आती है। वे इन आंदोलनों को लोकतंत्र विरोधी मानते हैं तो क्यों अन्ना की टीम को लोकपाल बिल बनाने के लिए समिति में शामिल किया? संसद ही सब कुछ है वाला तर्क इमर्जेंसी लागू करते वक्त भी दिया गया था। कोई नहीं कहता कि जनांदोलनों के सहारे संसद को डिक्टेट किया जाय। आंदोलनों का लक्ष्य संसद को कुछ बातें याद दिलाना है। दूसरी बात चुनाव के बाद जनता हाथ झाड़कर बैठ जाय और अगले चुनाव तक इंतज़ार करे, ऐसा लोकतांत्रिक दर्शन कहाँ से विकसित हो गया? नीचे पढ़ें जन संदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा आलेख


इंटरनेट के एक फोरम पर किसी ने लिखा 'नो,नो,नो... पहले संघ की सेना फिर शिवसेना, मनसे की सेना, बजरंग दल की सेना और अब बाबा की सेना।' बाबा रामदेव के पास अन्ना हजारे की तुलना में बेहतर जनाधार, संगठन शक्ति, साधन और बाहरी समर्थन हासिल है। बावजूद इसके उनका आंदोलन उस तेजी को नहीं पकड़ पाया जो अन्ना के आंदोलन को मिली। शांति भूषण के सीडी प्रकरण के बावजूद सरकारी मशीनरी आंदोलन के नेताओं को विवादास्पद बनाने में कामयाब नहीं हो पाई। पर रामदेव के आंदोलन के पीछे किसी राजनैतिक उदेदश्य की गंध आने से उसका प्रभाव कम हो गया। बाहरी तौर पर दोनों आंदोलनों में गहरी एकता है, पर दोनों में अंतर्विरोध भी हैं।
बुनियादी तौर पर दोनों आंदोलन जो सवाल उठा रहे हैं, उनसे जनता सहमत है। जनता काले धन को भ्रष्टाचार का हिस्सा मानती है। और वह है भी। बाबा रामदेव को श्रेय जाता है कि उन्होंने एक बुनियादी सवाल को लेकर लोकमत तैयार किया। कुछ साल पहले तक ऐसी माँग को स्टेट मशीनरी हवा में उड़ा देती थी। स्विस बैंकों में भारतीय पैसा जमा है, इसे मानते सब थे। वह पैसा कितना है, किसका है और उसे किस तरह वापस लाया जाय, इस सवाल को रामदेव ने उठाया। यूपीए के उदय के बाद भाजपा के एक खेमे ने इसे अपनी भावी रणनीति बनाया था, पर भाजपा उसे लेकर जनता को उस हद तक प्रभावित करने में कामयाब नहीं हो पाई, जितना रामदेव हुए।

Friday, June 10, 2011

योग सेना क्यों बनाना चाहते हैं रामदेव?


बाबा रामदेव के पास अच्छा जनाधार है। योग के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के सहारे उन्होंने देश के बड़े क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाया है। पिछले कुछ वर्षों से वे राजनैतिक सवाल भी उठा रहे हैं। उनकी सभाओं में दिए गए व्याख्यानों को सुनें तो उनमें बहुत सी बातें अच्छी लगती हैं। ज्यादातर व्याख्यान उनके सहयोगियों के हैं। इनमें भारतीय गौरव, प्रतिभा और क्षमता पर जोर होता है। राष्ट्रवाद को जगाने का यह अच्छा तरीका है, पर आधुनिक दुनिया को देखने का केवल यही तरीका नहीं। युरोप को केवल गालियाँ देने से काम नहीं होगा। हमें अपने दोष भी देखने चाहिए। प्राचीन भारत में ज्ञान-विज्ञान था तो विज्ञान का विरोध भी था, वैसे ही जैसे युरोप में था। इतिहास को देखने और समझने की दृष्टि जनता के बीच विकसित करना अच्छा है, पर उसका लक्ष्य वैचारिक पारदर्शिता का होना चाहिए। इसी तरह वंचित वर्गों के बारे में रामदेव के पास कोई दृष्टिकोण नहीं है।

शोर के इस दौर में बचकाना बातें


एक चैनल से फोन आया कि कल रात रामदेव-मंडली पर पुलिस-छापे के बाबत आपकी क्या राय है? फिर पूछा, आप रामदेव के फॉलोवर तो नहीं हैं? उन्हें बताया कि फॉलोवर नहीं, पर विरोधी भी नहीं हैं। चैनल ने पूछा रामदेव प्रकरण पर हम बहस करना चाहते हैं। आप आएंगे? वास्तव में ऐसे मौके आएं तो बहस में शामिल होना चाहिए। अपने विचार साफ करने के अलावा दूसरे लोगों तक पहुँचाने का यह बेहतर मौका होता है। यों भी हमारा समाज मौज-मस्ती का शिकार है। वह अपने मसलों पर ध्यान नहीं देता।  
क्या राष्ट्रीय प्रश्नों पर टीवी-बहस हो सकती है? उन लोगों को कोई दिक्कत नहीं जो सीधी राय रखते हैं। इस पार या उस पार। मैदान में या तो बाबा भक्त हैं या विरोधी। पर राष्ट्रीय बहस के लिए ठंडापन चाहिए। हमारे मीडिया महारथी तथ्यों से परिचित होने के पहले धड़ा-धड़ विचार व्यक्त करना पसंद करते हैं। नुक्कड़ों और चौराहों की तरह। लगातार चार-चार दिन तक एक ही मसले पर धाराप्रवाह कवरेज से सामान्य व्यक्ति असहज और असामान्य हो जाता है। आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा जनांदोलन। दिल्ली के रामलीला मैदान पर जालियांवाला दोहराया गया। रामदेव ज़ीरो से हीरो। ऐसा लाइव नॉन स्टॉप सुनाई पड़े तो हम बाकी बातें भूल जाते हैं। मीडिया, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दूसरों का पर्दापाश करता है। अपनी भूमिका पर बात नहीं करता।

Monday, June 6, 2011

रामदेव और मीडिया

एक अरसे बाद भारतीय मीडिया को राजनैतिक कवरेज़ के दौरान किसी दृष्टिकोण को अपनाने का मौका मिल रहा है। अन्ना हज़ारे और अब रामदेव के आंदोलन के बाद राष्ट्रीय क्षितिज पर युद्ध के बादल नज़र आने लगे हैं। साख खोने के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कवरेज और प्रिंट मीडिया का दृष्टिकोण आज भी  प्रासंगिक है। सत्ता के गलियारे में पसंदीदा चैनल और पत्रकारों की कमी नहीं है। वस्तुतः बहुसंख्यक पत्रकार सरकार से बेहतर वास्ता रखना चाहते हैं। हमारे यहाँ खुद को निष्पक्ष कहने का चलन है। फिर भी पत्रकार सीधे स्टैंड लेने से घबराते हैं। बहरहाल रामदेव प्रसंग पर आज के अखबारों पर नज़र डालें तो दिखाई पड़ेगा कि जितनी दुविधा में सरकार है उससे ज्यादा दुविधा में पत्रकार हैं। दिल्ली से निकलने वाले आज के ज्यादातर अखबारों ने रामदेव प्रकरण पर सम्पादकीय नहीं लिखे हैं या लिखे हैं तो काफी संभाल कर। हाथ बचाकर लिखे गए आलेख संस्थानों के राजनैतिक दृष्टिकोण और पत्रकारों के संशय को भी व्यक्त करते हैं।

द यूपीए'ज़ पोलिटिकल बैंकरप्सी शीर्षक से अपने सम्पादकीय में द हिन्दू ने लिखा है कि बाबा रामदेव के शिविर पर आधी रात को पुलिस कार्रवाई निरंकुश, बर्बर और अलोकतांत्रिक है। हिन्दू ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि एक ओर प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में चार मंत्री जिस व्यक्ति के स्वागत में हवाई अड्डे पहुँचे उसे ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने ठग घोषित कर दिया। ...रामदेव की माँगों पर ध्यान दें तो वे ऊटपटाँग लगती हैं और कई माँगें तो भारतीय संविधान के दायरे में फिट भी नहीं होतीं।...रामदेव मामले ने यूपीए सरकार का राजनैतिक दिवालियापन साबित कर दिया है।

रामदेव नहीं जनता पर ध्यान दो


केन्द्र सरकार ने पहले रामदेव को रिझाने की कोशिश की फिर दुत्कारा। इससे उसकी नासमझी ही दिखाई पड़ती है। कांग्रेस इस वक्त टूटी नाव पर सवार है। अचानक वह मँझधार में आ गई है। इसका फायदा भाजपा को भले न मिले कांग्रेस का नुकसान हो गया। इसकी वजह यह है कि पिछले दो दशक में सरकारों ने आर्थिक मसलों को अहमियत दी राजनीति पर ध्यान नहीं दिया। आज के जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख-  

बाबा रामदेव-आंदोलन की सबसे बड़ी आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह राजनीति से प्रेरित है। आरएसएस और भाजपा के नेताओं का आशीर्वाद पाने के बाद इसकी शक्ल हिन्दुत्ववादी भी हो गई है। रामदेव के साथ अन्ना हजारे हैं और जैसी कि कुछ अखबारों में खबर थी कि माओवादी भी। काले धन, भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों को लेकर चलाए जा रहे आंदोलन को कौन अ-राजनैतिक कहेगा? पर क्या राजनीति अपराध है? राजनैतिक आंदोलन चलाने में गलत क्या है? हाल के दिनों में लगातार बैकफुट पर खेल रही कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार ने पहली बार सख्ती के संकेत दिए हैं। क्या वह इस सख्ती पर कायम रह पाएगी?

Monday, May 30, 2011

उफनती लहरें और अनाड़ी खेवैया



यूपीए सरकार की लगातार बिगड़ती छवि को दुरुस्त करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस महीने की दस तारीख को पब्लिक रिलेशनिंग के लिए एक और ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाया है। इस ग्रुप की हर रोज़ बैठक होगी और मीडिया को ब्रीफ किया जाएगा। यह सामान्य सी जानकारी हमारे राजनैतिक सिस्टम के भ्रम और कमज़ोरियों को भी ज़ाहिर करती है। सरकार का नेतृत्व तमाम मसलों पर जल्द फैसले करने के बजाय ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बनाकर अपना पल्ला झाड़ता है। यूपीए-दो ने पिछले साल में कितने जीओएम बना लिए इसकी औपचारिक जानकारी नहीं है, पर इनकी संख्या 50 से 200 के बीच बताई जाती है। दूसरी ओर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में एक और संस्था खड़ी होने से राजनीति और राजनैतिक नेतृत्व बजाय ताकतवर होने के और कमज़ोर हो गया है। यह कमज़ोरी पार्टी की अपनी कमज़ोरी है साथ ही गठबंधन सरकारों की देन भी है।

Monday, May 23, 2011

दिल्ली पर संशय के मेघ


यूपीए सरकार के सात साल पूरे हो गए। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद बनी यह सरकार यूपीए प्रथम की तुलना में ज्यादा स्थिर मानी जा रही थी। एक तो कांग्रेस का बहुमत बेहतर था। दूसरे इसमें वामपंथी मित्र नहीं थे, जो सरकार के लिए किसी भी विपक्ष से ज्यादा बड़े विरोधी साबित हो रहे थे। यूपीए के लिए इससे भी ज्यादा बड़ा संतोष इस बात पर था कि एनडीए की न सिर्फ ताकत घटी, उसमें शामिल दलों की संख्या भी घटी। मुख्य विपक्षी दल भाजपा का नेतृत्व बदला। उसके भीतर की कलह सामने आई। यूपीए के लिए एक तरह से यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की तरह से था। पर यूपीए के पिछले दो साल की उपलब्धियाँ देखें तो खुश होने की वजह नज़र नहीं आती।

Friday, May 20, 2011

बुनियाद के पत्थरों को डरना क्या



चुनाव परिणाम आते ही पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि करके केन्द्र सरकार ने राजनैतिक नासमझी का परिचय दिया है। पेट्रोल कम्पनियों के बढ़ते घाटे की बात समझ में आती है, पर इतने दिन दाम बढ़ाए बगैर काम चल गया तो क्या कुछ दिन और रुका नहीं जा सकता था? इसका राजनैतिक फलितार्थ क्या है? यही कि वामपंथी पार्टियाँ इसका विरोध करतीं थीं। वे हार गईं। अब मार्केट फोर्सेज़ हावी हो जाएंगी।  इधर दिल्ली में मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में दो रुपए प्रति लिटर की बढ़ोत्तरी कर दी। उसके पन्द्रह दिन पहले अमूल ने कीमतें बढ़ाईं थीं। इस साल खरबूजे 30 रुपए, आम पचास रुपए, तरबूज पन्द्रह रुपए और सेब सौ रुपए के ऊपर चल रहे हैं। ककड़ी और खीरे भी गरीबों की पहुँच से बाहर हैं।

Tuesday, May 17, 2011

टॉप गोज़ टु बॉटम

अखबार के मास्टहैड का इस्तेमाल अब इतने तरीकों से होने लगा है कि कुछ लोगों के लिए यह दिलचस्पी का विषय नहीं रह गया है। फिर भी 14 मई के टेलीग्राफ के पहले सफे ने ध्यान खींचा है। इसमें मास्टहैड अखबार की छत से उतर कर फर्श पर चला गया है।

अखबार के ब्रैंड बनने पर तमाम बातें हैं। पत्रकारों और सम्पादकों, खबरों और विश्लेषणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है ब्रैंड। बाकी उत्पादों की बात करें तो ब्रैंड माने प्रोडक्ट की गुणवत्ता की मोहर। अखबार इस माने में हमेशा ब्रैंड थे। उन्हें पढ़ा ही इसीलिए जाता था कि उनकी पहचान थी। लेफ्ट या राइट। कंज़र्वेटिव या लिबरल। कांग्रेसी या संघी। दृष्टिकोण या पॉइंट ऑफ व्यू, खबरों को पेश करने का सलीका, तरीका वगैरह-वगैरह। एक हिसाब से देखें तो अखबारों ने ही सारी दुनिया को ब्रैंड का महत्व समझाया। दुनिया भर की खबरों को एक पर्चे पर छाप दो तो वह अखबार नहीं बनता। सिर्फ मास्टहैड लगा देने से वह अखबार बन जाता है। और इस तरह वह सिर्फ मालिक की ही नहीं पाठक की धरोहर भी होती है। बहरहाल...

हाल में बड़ी संख्या में अखबारों ने अपने मास्टहैड के साथ खेला है। हिन्दी में नवभारत टाइम्स तो लाल रंग में अंग्रेजी के तीन अक्षरों के आधार पर खुद को यंग इंडिया का अखबार घोषित कर चुका है। ऐसे में टेलीग्राफ ने अपने मास्टहैड के मार्फत नई सरकार का स्वागत किया है। अच्छा-बुरा उसके पाठक जानें, पर बाकी अखबार दफ्तरों में कुलबुलाहट ज़रूर होगी कि इसने तो मार लिया मैदान, अब इससे बेहतर क्या करें गुरू।

क्या कोई बता सकता है कि इसका मतलब कुछ अलग सा करने के अलावा और क्या हो सकता है?

Monday, May 16, 2011

आमतौर पर वोटर नाराज़गी का वोट देता है



भारतीय राजनीति के एक्टर, कंडक्टर, दर्शक, श्रोता और समीक्षक लम्बे अर्से से समझने की कोशिश करते रहे हैं कि वोटर क्या देखकर वोट देता है। व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है या पार्टी, मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं या नारे। जाति और धर्म महत्वपूर्ण हैं या नीतियाँ। कम्बल, शराब और नोट हमारे लोकतंत्र की ताकत है या खोट हैं? सब कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र पुष्ट, परिपक्व और समझदार है। पर उसकी गहराई में जाएं तो नज़र आएगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कुछ घाघ लोगों के जोड़-घटाने पर चलती है। जिसका गणित सही बैठ गया वह बालकनी पर खड़ा होकर जनता की ओर हाथ लहराता है। नीचे खड़ी जनता में आधे से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ता होते हैं जिनकी आँखों में नई सरकार के सहारे अपने जीवन का गणित बैठाने के सपने होतें हैं।

Saturday, May 14, 2011

पोल पंडितों की पोल

हर चुनाव में एक्जिट पोल पंडितों की परीक्षा होती है। वे हर बार गलत साबित होते हैं, फिर भी कहीं न कहीं से खुद को सही साबित कर लेते हैं। इस बार भी बंगाल और असम के मामले में प्रायः सभी पोल सही साबित हुए, सबके अनुमान ऊपरनीचे रहे। केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में पोलों की पोल खुली।

एक्जिट पोल को हम मोटे तौर पर देखते हैं। बंगाल यानी टीएमसी+ या वाम मोर्चा प्लस, असम में इतने बड़े अन्य का ब्रेक अप नहीं मिलता। तमिलनाडु में अगर छोटे-छोटे दलों के बारे में पता करेंगे तो पोल काफी गलत साबित होंगे। ज्यादातर पोल अपने निष्कर्षों को साबित करना चाहते हैं। इनके वैज्ञानिक अध्ययन का वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए। 

इन नतीजों में छिपी हैं कुछ पहेलियाँ



कोलकाता के टेलीग्राफ का पहला पेज
इस चुनाव परिणाम ने पाँच राज्यों में जितने राजनैतिक समाधान दिए हैं उससे ज्यादा पहेलियाँ  बिखेर दी हैं। अब बंगाल, तमिलनाडु और केरल से रोचक खबरों का इंतज़ार कीजिए। जनता बेचैन है। वह बदलाव चाहती है, जहाँ रास्ता नज़र आया वहां सब बदल दिया। जहाँ नज़र नहीं आया वहाँ गहरा असमंजस छोड़ दिया। बंगाल में उसने वाम मोर्चे के चीथड़े उड़ा दिए और केरल में दोनों मोर्चों को म्यूजिकल चेयर खेलने का आदेश दे दिया। बंगाल की जीत से ज्यादा विस्मयकारी है जयललिता की धमाकेदार वापसी। ममता बनर्जी की जीत तो पिछले तीन साल से आसमान पर लिखी थी। पर बुढ़ापे में करुणानिधि की इस गति का सपना एक्ज़िट पोल-पंडितों ने नहीं देखा।

पोस्ट-घोटाला भारत के इस पहले चुनाव का संदेश क्या है? कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। और जनता ने सन 2009 में यूपीए पर जो भरोसा जताया था, वह अब भी कायम है? क्या हाल के सिविल सोसायटी-आंदोलन की जनता ने अनदेखी कर दी? तब फिर तमिलनाडु में जयललिता की जीत को क्या माना जाए? और तमिलनाडु की जनता की भ्रष्टाचार से नाराज़गी है तो जयललिता को जिताने का क्या मतलब है? उनपर क्या कम आरोप हैं? 

खुद को पुनर्परिभाषित करे वाम मोर्चा

यह लेख 13 मई के दैनिक जनवाणी में छपा था। इसके संदर्भ अब भी प्रासंगिक हैं, इसलिए इसे यहाँ लगाया है।

हार कर भी जीत सकता है वाम मोर्चा

कल्पना कीजिए कभी चीन में चुनावों के मार्फत सरकार बदलने लगे तो क्या होगा? चीन में ही नहीं उत्तरी कोरिया और क्यूबा में क्या होगा? यह कल्पना कभी सच हुई तो सत्ता परिवर्तन के बाद का नज़ारा कुछ वैसा होगा जैसा हमें पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगा। बशर्ते परिणाम वैसे ही हों जैसे एक्ज़िट पोल बता रहे हैं। देश का मीडिया इस बात पर एकमत लगता है कि वाम मोर्चा की 34 साल पुरानी सरकार विदा होगी। ऐसा नहीं हुआ तो विस्मय होगा और मीडिया की समझदारी विश्लेषण का नया विषय होगी।

Tuesday, May 10, 2011

पोस्ट घोटाला, पहले चुनाव


पाँच विधानसभाओं के चुनाव तय करेंगे राष्ट्रीय राजनीति की दिशा
तेरह को खत्म होंगे कुछ किन्तु-परन्तु
प्रमोद जोशी

राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति और चुनाव हमारे महोत्सव हैं। इस विषय पर हाई स्कूल के छात्रों से लेख लिखवाने का वक्त अभी नहीं आया, पर आयडिया अच्छा है। गरबा डांस, भांगड़ा, कथाकली, कुचीपुडी और लाल मिर्चे के अचार जैसी है हमारी चुनाव संस्कृति। जब हम कुछ फैसला नहीं कर पाते तो जनता पर छोड़ देते हैं कि वही कुछ फैसला करे।    

टू-जी मामले में कनिमोझी की ज़मानत पर फैसला 14 मई तक के लिए मुल्तवी हो गया है। 14 के एक दिन पहले 13 को तमिलनाडु सहित पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम सामने आ चुके होंगे। कनिमोझी की ज़मानत का चुनाव परिणाम से कोई वास्ता नहीं है, पर चुनाव परिणाम का रिश्ता समूचे देश की राजनीति से है। तमिलनाडु की जनता क्या इतना जानने के बाद भी डीएमके को जिताएगी? डीएमके हार गई तो क्या यूपीए के समीकरण बदलेंगे?

कुछ ऐसे ही सवाल बंगाल के चुनाव को लेकर हैं। बंगाल में तृण मूल कांग्रेस का सितारा बुलंदी पर है। वे जीतीं तो मुख्यमंत्री भी बनेंगी। बेशक उनके बाद रेल मंत्रालय उनकी पार्टी को ही मिलेगा, पर क्या कांग्रेस बंगाल की सरकार में शामिल होगी? सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महत्वपूर्ण सफलता मिली थी। पर अब सन 2009 नहीं है। और न वह कांग्रेस है। पिछले एक साल में राष्ट्रीय राजनीति 360 डिग्री घूम गई है।