Saturday, June 18, 2011

व्यवस्था को अनुशासन में लाना असम्भव नहीं


हर लहज़ा है क़त्ले-आम मगर 
कहते हैं कि क़ातिल कोई नहीं
लू के मौसम में 
बहारों की हवा माँगते हैं
अली सरदार ज़ाफरी की दोनों पंक्तियाँ अलग-अलग जगह से ली गईं हैं। मैने इन्हें लेख के शीर्षक के रूप में इस्तेमाल करना चाहा था। बहरहाल ये जिस रूप में छपी हैं उसमें भी एक अर्थ है। मेरा आशय केवल हालात को बयान करने का था। मुझे लगता है इस वक्त भ्रष्टाचार को लेकर सारी बहस ने राजनैतिक रंग ले लिया है। हम लक्ष्य से भटक रहे हैं। इसकी परिणति क्या है, इसपर नहीं सोच रहे। व्यवस्था का भ्रष्ट या अनुशासनहीन होना प्रतिगामी है। 
  
हाल में दिल्ली की एक अदालत ने पाया कि बगैर लाइसेंसों के सैकड़ों ब्ल्यू लाइन बसें सड़कों पर चल रहीं है। एक-दो नहीं तमाम बसें। ये बसें पुलिस और परिवहन विभाग के कर्मचारियों की मदद के बगैर नहीं चल सकतीं थीं। इस सिलसिले में उन रूटों पर तैनात पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है, जिनपर ये बसें चलतीं थीं। एक ओर हमें लगता है कि देश की प्रशासनिक व्यवस्था कमज़ोर है, पर गरीब जनता के नज़रिए से देखें तो पता लगेगा कि वह सबसे ज्यादा उस मशीनरी से परेशान है जिसे उसकी रक्षा के लिए तैनात किया गया है।

आप छोटे दुकानदार, सब्जी का ठेला लगाने वाले, रिक्शा चलाने वाले, फेरी वाले या ऐसा ही कोई छोटा काम करने वाले हैं, तो आपको हर कदम पर सरकारी दरबान खड़े दिखाई देंगे। इन दरबानों के साथ-साथ आपको इलाके के दादा और जन-प्रतिनिधि की पूजा भी करनी पड़ सकती है। इस पूरी व्यवस्था में आपको लूटने की इच्छा रखने वालों की लम्बी कतार है। मददगार कोई नहीं।

जैसे ही आप किसी शहर की या राज्य की सीमा से निकलें या उसमें प्रवेश करें तो सरकारी विभागों के सहायता शिविर दिखाई पड़ेंगे। व्यापार कर सहायता केन्द्र, पुलिस-सहायता केन्द्र वगैरह। सरकारी अस्पतालों, नगरपालिकाओं, शिक्षा संस्थाओं और जनसेवा में लगे सरकारी दफ्तरों में जैसा सेवा-कार्य किया जाता है उससे हर कोई परिचित है। एक ज़माना था जब खराब हुई टेलीफोन लाइन बगैर पैसा दिए ठीक नहीं होती थी। बिजली का लाइनमैन आज भी उसी अंदाज़ में काम करता है।

आप अपने घर में मामूली से निर्माण के लिए कुछ ईंटें गिरवाएं और देखें कि कितने इंसपेक्टर दरियाफ्त करने चले आते हैं। उनकी दिलचस्पी अवैध निर्माण को रोकने में नहीं बल्कि उसे बढ़ावा देने में है, ताकि उनकी जेब गर्म हो। आप कानून सही काम करना चाहेंगे तो वे करने नहीं देंगे। इसके विपरीत यदि आप गलत इरादे से ही निकले हैं तो निर्भय होकर काम करें, क्योंकि पूरी सरकारी व्यवस्था आपकी सेवा में उपस्थित है। देश की राजधानी में जब अवैध निर्माण को लेकर कानूनी कार्रवाई की बात आई तब यह भी पता लगा कि शहर की तीन चौथाई इमारतों में अवैध तरीके से निर्माण करे गए हैं। इस बात को देश के सबसे ऊँचे से लेकर सबसे नीचे तक के नेता और अफसर जानते हैं।

विश्व बैंक की हाल की एक रपट में कहा गया है कि भारत के विकास के तमाम प्रयास भ्रष्टाचार के कारण निरर्थक होते हैं। सरकार हर साल राष्ट्रीय आय की तकरीबन दो फीसदी रकम गरीबी से लड़ने पर खर्च करती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जो अनाज गरीबों के लिए भेजा जाता है, उसका 40 फीसदी ही गरीबों तक पहुँचता है। इसी तरह राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत मजदूरी की रकम को बीच मे डकारने और मजदूरों को कम पैसा देने की शिकायतें हैं। स्थानीय प्रशासन, ग्रामीण विकास और पंचायत राज के तहत होने वाले तमाम काम के लिए यों भी साधन कम हैं। ऊपर से भ्रष्टाचार के चूहे कुतर कर खत्म करते जा रहे हैं।

टू-जी और सीडब्ल्यूजी और आदर्श सोसाइटी के मामले खुलने पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। यह तो होना ही था। एक ओर हमारी सॉफ्ट स्टेट मामूली अपराधियों से हमें नहीं बचा पाती, वहीं थाने में गरीब लड़की की हत्या की जा सकती है और अपराधियों को बचाने के लिए बड़े अफसर तक आगे आ जाते हैं। सरकारी डॉक्टर पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट लिखने तक में अन्याय करते हैं। ध्यान दें टू-जी मामले में कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट के दबाव से हुई है। सीएजी की रपट के आधार पर सरकार ने अपनी तरफ से कार्रवाई की शुरुआत नहीं की थी।

लोकपाल विधेयक राजनैतिक जकड़बंदी में फँसा है। उसके तैयार होने और पास होने के रास्ते में कई रुकावटें हैं। वह बन भी गया तो ग्रास रूट मे बैठे भ्रष्टाचार को दूर करने की कोई गारंटी नहीं है। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार को हम भूलते जा रहे हैं। या मान चुके हैं कि उसे दूर करना सम्भव नहीं। भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था का हिस्सा बन चुका है। पिछले कई सौ साल में हमने काम के हर स्तर पर अड़ंगे लगाने की महारत हासिल कर ली है। यह केवल सरकारी दफ्तरों में नहीं है, प्राइवेट सेक्टर की कम्पनियों में भी है। दस्तूरी, हफ्ता और रंगदारी जैसी शब्दावली हमारे जीवन का हिस्सा है। महाशक्ति बनने की इच्छा रखने वाले देश के लिए यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
सवाल है क्या इस स्थिति को कभी सुधारा नहीं जा सकता? यह इतनी गहराई तक व्याप्त है तो क्यों है? इसे ठीक करें तो कहाँ से शुरुआत हो? इस किस्म के सवाल जेहन में आते हैं। लोकपाल पर केन्द्रित बहस स्वाभाविक रूप से भ्रष्टाचार पर केन्द्रित बहस है। लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री हो या न हो यह बड़ा मुद्दा नहीं है। मुद्दा है कि क्या हम बेईमानी की इस व्यवस्था खुश हैं? खुश नहीं हैं तो इसे ठीक कैसे करेंगे? यह मसला मूलतः गवर्नेंस या सुशासन से जुड़ा है। लोकपाल के दायरे में जिस प्रधानमंत्री को लाने की बात है वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं हैं, बल्कि किसी भी पार्टी या गठबंधन का नेता है। यह विषय राजनीति के दायरे से बाहर आना चाहिए।

सुशासन एक व्यवस्था का नाम है। पहले हम अपनी व्यवस्था को देखें। टू-जी के बारे में सीएजी ने सरकारी दस्तावेजों के सहारे पता लगा लिया था कि स्पेक्ट्रम के आबंटन में अनियमितता हुई। बावजूद इसके किसी ने उसे महत्व नहीं दिया। वस्तुतः यह सीएजी की पहली रपट नहीं है। और न यह पहला विभाग है जिसके बारे में कोई रपट आई है। सीएजी का काम ही वित्तीय अनियमितताओं की ओर ध्यान दिलाना है। हर साल सीएजी के दफ्तर से इस किस्म की सैकड़ों किताबें बनती हैं और सरकारी गोदामों में पड़ी रह जाती हैं। टू-जी रपट को पढ़ें तो उससे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यवस्थागत संरचना में जब भी और जहाँ भी आपत्तियाँ दर्ज कराई गईं वहाँ किसी ने अपने विवेकाधीन अधिकार का इस्तेमाल करके उसे बदल दिया। और राजनैतिक नेतृत्व ने उस अनियमितता की अनदेखी कर दी।

लोकपाल के मार्फत देश में व्यवस्थागत अनियमितताओं पर नज़र रखने वाली राष्ट्रीय व्यवस्था कड़ी करने का विचार है। ऐसी व्यवस्था जो सरकारी दबाव से मुक्त हो। आज की व्यवस्था में अनियमितता करने वालों को ही अपने बारे में फैसला करने का अधिकार है। पिछले कुछ समय से चुनाव व्यवस्था में आए बदलाव पर गौर करें। एक थोड़े से समय के लिए चुनाव-व्यवस्था सरकारी चंगुल से बाहर आ जाती है। हालांकि चुनाव आयोग को सरकार ही चुनती है, पर खास मौके पर वह सरकारी व्यवस्था से बाहर आ जाता है। इस व्यवस्था में भी तमाम खामियाँ हैं। मसलन चुनाव आयोग का अपना काडर नहीं है। सरकारी अफसर और कर्मचारी कुछ समय के लिए यह काम करते हैं और वापस अपने काम पर लौट जाते हैं। उनपर प्रशासनिक और राजनैतिक दबाव फिर भी बना रह सकता है। पर इस अस्थायी स्वायत्तता का फायदा हमें नज़र आता है।

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण सम्भव है। पहले हमें इस बात पर एक राय बनानी चाहिए कि उसके खिलाफ एक स्थायी स्वायत्त व्यवस्था चाहिए या नहीं। यह संस्था भी निरंकुश बन सकती है। उसका भी दुरुपयोग हो सकता है। ऐसे संदेह स्वाभाविक हैं। चुनाव आयोग के बारे में भी ऐसा सोचा गया था। उसमें एक के बजाय तीन आयुक्त बनाने की व्यवस्था लागू की गई। लोकपाल बना तो उसके बारे में और व्यापक स्तर पर सोचना होगा। पर पहले यह तो मंजूर करें कि ऐसी व्यवस्था बने। यह व्यवस्था एक लोकपाल के सहारे नहीं चलेगी। हजारों या लाखों व्यक्तियों का संगठन इसके लिए ज़रूरी होगा। उसकी एक कीमत होगी। यह कीमत वाजिब होगी क्योंकि आज का भ्रष्टाचार हमसे भारी कीमत वसूल रहा है।    



 


5 comments:

  1. बिल्कुल सही बात कही है| कई लोगों को कहते सुना कि भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता, जबतक सामाजिक व्यवस्थाएं रहेंगी भ्रष्टाचार रहेगा|लेकिन किस आधार पर का ज़वाब किसी के पास नही होता|
    लोकपाल बनने या न बनने से यह समस्या कितनी हल हो पाएगी यह शुरू से ही बहस का विषय रहा है लेकिन जड़ में जो बातें हैं इसे खत्म किया जाये, वास्तव में प्रयास इस और होने चाहिए लेकिन सरकार और सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि अपनी-अपनी जिद पर अड़े हैं और कोई ठोस हल निकलता नही दिख रहा है जो ज्यदा ज़रुरी है

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  2. प्रमोद जी,

    हमारा समाज पश्चिम के समाज से पृथक है, हमें अपनी व्यवस्था को उनकी व्यवस्था का दर्पण नहीं बनाना चाहिए. हम अपने घरों में फर्श पर संगमरमर लगाते हैं, और घर का कूड़ा दहलीज से दो फुट आगे रास्ते पर फेकते है. हमारी सभ्यता के लिए देश या समाज कोई माईने नहीं रखता, व्यक्तिवाद और परिवारवाद ही अब सब कुछ है. देश पर मरने वालों को पहले शहीद कहा जाता था, अब मंदबुद्धि इंसान कहा जाता है.

    हम कानून बनाकर कभी भ्रष्टाचार से नहीं लड़ सकते, क्योंकि हमारी सभ्यता नियमों का पालन केवल धार्मिक परिप्रेक्ष में करना जानती है, राष्ट्रीय या सामाजिक परिप्रेक्ष में नहीं. मेरे ख्याल से हर सरकारी विभाग में एक "रेट शीट" लगा दिया जाना चाहिए -- किस बाबु को कितना चाहिए ये हम भी तो जाने. हमारा काम हो जाये तो फिर औरों के बारे में सोचने की क्या ज़रुरत है?!

    "मेरा फर्श तो साफ़ हो गया बाबू, आम रस्ते पर मैने जो कूड़ा फेंका, अब वो मेरा सरदर्द क्यों बने?" क्या आप समझते हैं कि कभी हम हमारे इस मनोभाव को बदल पाएंगे?

    देसी बाबू

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  3. यह हमारे लोकतंत्र की सबसे कठिन बिमारी है और शायद सबसे मुश्किल इसका इलाज करना भी है, और अब तो मध्यम वर्ग और नीचे का वर्ग भी इस भ्रष्टाचार का एअक बड़ा हिस्सा डकार रहा है, जितने अधिक लोग इसमें शामिल होते जायेंगे उतना ही मुश्किल इसका इलाज करना होता जाएगा .

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  4. रामदेव बाबा दोषी हैं भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन छेड़ जनता का अपार समर्थन मिलने के बावजूद पता नही कब हर हर महादेव के नारे लगने लगे मामला कहां से कहां पहुच गया अब कांग्रेस अन्ना को भी वही पहुंचाने के जुगाड़ मे है । भ्रष्टाचार केवल और केवल कड़ी सजा से ही रुक सकता है बाकी सब बाते बेमानी हैं ।

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