जैसी उम्मीद थी लोकपाल बिल को लेकर बनी कमेटी में सहमति नहीं बनी। सहमति होती तो कमेटी की कोई ज़रूरत नहीं था। कमेटी बनी थी आंदोलन को फौरी तौर पर बढ़ने से रोकने के वास्ते। अब सरकार ने शायद मुकाबले की रणनीति बना ली है। हालांकि दिग्विजय सिंह की बात को आधिकारिक नहीं मानना चाहिए, पर उनका स्वर बता रहा है कि सरकार के सोच-विचार की दिशा क्या है। सरकार ने 3 जुलाई को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। राज्यों से माँगी गई सलाह का कोई अर्थ नहीं है। यों भी सरकार लोकपाल और लोकायुक्त को जोड़ने के पक्ष में नहीं है।
लोकपाल बने या न बने, यह मामला राजनैतिक नहीं है। उसकी शक्तियाँ क्या हों और उसकी सीमाएं क्या हों, इसके बारे में संविधानवेत्ताओं से लेकर सामान्य नागरिक तक सबको अपनी समझ से विचार करना चाहिए। इस फैसले के दूरगामी परिणाम निहित हैं। इसके स्वरूप और अधिकार सीमा का अंतिम फैसला संसद को करना है। संसद और दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच अधिकारों को लेकर अक्सर मतभेद उजागर होते हैं। उनके समाधान भी निकाले जाते हैं।
भारतीय संसद जन-भावना का प्रतिनिधित्व करती है, पर वह ब्रिटिश संसद के समान अंतिम संस्था नहीं है। 1976 में हमारी संसद ने बयालीसवाँ संविधान संशोधन विधेयक पास करके सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक समीक्षा अधिकार को सीमित कर दिया था। उसके बाद बनी संसद ने उस अधिकार को पुनर्स्थापित कर दिया। सवाल यह है कि जन भावना किस रूप में और कब व्यक्त हो रही है। इसलिए हमें धैर्य के साथ इस चर्चा को देखना, सुनना और समझना चाहिए।
कपिल सिब्बल ने हाल में कहा, भला कहीं ऐसा होता है कि देश की कार्यपालिका प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई होती हो। आपने किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलता देखा? अनुभव बताता है कि जापान, कोरिया, पेरू, फिलिपाइंस और इस्रायल समेत अनेक देशों के बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के मुकदमे चले हैं। ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि हमारे यहाँ वैसा ही होगा जैसा दुनिया में कहीं और हो चुका है। और हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सरकार बगैर किसी दबाव के काम करे। और यह भी कि राजनैतिक कारणों से किसी को प्रताड़ित करने की स्थिति न बने। लोकपाल बिल बनाने के लिए जिस तरह से कमेटी बनी वह भी तो अपने किस्म की अनोखी थी। देश की जनता धैर्य के साथ सारी बातों को समझना चाहती है।
लोकपाल बिल बनाने वाली संयुक्त समिति की बैठकों की वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं की गई। होती तो शायद बातें बेहतर तरीके से बाहर आतीं। अब दोनों पक्ष अपने-अपने ढंग से बातें रख रहे हैं। सरकारी पक्ष का कहना है कि समानांतर सरकार बनाने की माँग नहीं मानी जा सकती। पर क्या किसी ने समानांतर सरकार बनाने की माँग की है? यह समझ लिया जाना चाहिए कि जनता की माँग राष्ट्र-राज्य को मजबूत और प्रभावशाली बनाने की है। सरकार इस राष्ट्र-राज्य का एक अंग है। उसे जितने अधिकार मिलने चाहिए उसके अनुपात में उसके दायित्व भी होने चाहिए।
भ्रष्टाचार के खिलाफ सजग और सबल व्यवस्था सरकार को मजबूत बनाने के लिए है, कमज़ोर बनाने के लिए नहीं। चूंकि ऐसा लगता है कि सरकार ताकतवर लोगों के दबाव में झुकती है इसलिए जनता अपनी ताकत का इस्तेमाल करके इस व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहती है। अन्ना हजारे ने पूछा क्या चुनाव आयोग समानांतर सरकार है? वस्तुतः वह सरकार का हिस्सा ही है। कुछ समय के लिए वह कार्यपालिका के सीधे दबाव में नहीं रहता। ऐसा वह संवैधानिक दायित्वों के कारण करता है। ताकतवर लोकपाल अन्ना हजारे का सेवक नहीं होगा। और न उनसे उसका कोई वास्ता होगा। वह इसी सरकारी व्यवस्था से निकल कर आएगा। इस व्यवस्था को ताकतवर बनाने की ही मुहिम होनी चाहिए। अभी तक जो भी बहस है वह इस व्यवस्था के अंतर्गत ही है। सरकार अन्ना हजारे की टीम को इस कमेटी में शामिल न करके सीधे कानून बनाती तब बेहतर था, पर पिछले 42 साल में ऐसा नहीं हो पाया तो क्यों?
लोकपाल विधेयक बनाने के लिए संवैधानिक विशेषज्ञता की ज़रूरत है, पर उसकी दिशा राजनीति को तय करनी है। अन्ना हजारे का अनशन-मार्ग एक प्रकार की राजनीति है। उसे अ-राजनीति नहीं कहा जा सकता, पर इस राजनीति को दलगत राजनीति से बाहर रहना चाहिए। बाबा रामदेव और अन्ना की राजनीति में भी अभी फर्क है। यह फर्क बना रहेगा तभी अन्ना-मार्ग को सफलता मिलेगी। इस राजनीति का सीमित लक्ष्य है, व्यवस्थागत परिवर्तन। इसमें केवल लोकपाल की स्थापना से काम नहीं होगा। अभी चुनाव की राजनीति और धनशक्ति के गठजोड़ के खिलाफ कानूनी व्यवस्थाओं की ज़रूरत भी है।
लोकपाल बन जाने मात्र से समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा। इससे केवल दो बातें होंगी। एक, राजनेताओं, कारोबारियों, अफसरों और अपराधियों को जनता और लोकपाल का भय भी रहेगा। दूसरे सरकारी निर्णय करने की व्यवस्थाएं परिभाषित होंगी। इस दौरान केवल टू-जी स्कैम ही सामने नहीं आया है। संचार मंत्री, विधि मंत्री, अटॉर्नी जनरल, सीएजी, पीएसी जैसी संस्थाओं की भूमिकाएं भी स्पष्ट हुईं हैं। आने वाले वक्त में लोकपाल व्यवस्था के दोष भी सामने आएंगे। उसमें भी भ्रष्टाचार प्रवेश करेगा। उसे फिर ठीक करना होगा। दरअसल कानून से नहीं जनता के जागने और उसकी भागीदारी से व्यवस्था ठीक होगी। कोई जादू की छड़ी व्यवस्था को सुनहरा बनाने वाली नहीं है। और जनता की अनदेखी के बाद कोई भी व्यवस्था जिम्मेदारी से चलने वाली नहीं है।
अक्सर हम अपनी संसद की भूमिका को समझ नहीं पाते हैं। संसद विचार-विनिमय का सबसे ऊँचा फोरम है। हाल के वर्षों में सामाजिक बदलाव में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सामाजिक न्याय, पंचायती राज व्यवस्था, सार्वभौमिक शिक्षा के अधिकार, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसे अनेक कार्यक्रमों का श्रेय हमारी संसद को जाता है। इस व्यवस्था के संचालन में सबसे बड़ी भूमिका संसद की है। जनता से सीधे वही जुड़ती है। क्या यह संसद अपने सदस्यों की भूमिका की जाँच की जिम्मेदारी किसी संस्था या व्यवस्था को देना चाहेगी? यह सवाल व्यवस्थागत सुधार का है। हाल में संसद के सामने पैसे लेकर सवाल पूछने और सांसद निधि के दुरुपयोग के मामले सामने आए। कुछ सदस्यों की सदस्यता खत्म हुई। यह व्यवस्थागत बदलाव ही है।
संसद के सामने अनेक मामले ऐसे पड़े हैं, जो राजनीति के कारण आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं। महिला आरक्षण विधेयक पर सर्वदलीय बैठक का नवीनतम दौर भी नाकामयाब रहा। भोजन के अधिकार और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लेकर बिल का मसौदा तैयार है। पर अगले सत्र में यह आगे बढ़ पाएगा या नहीं कहना मुश्किल है। साम्प्रदायिक हिंसा पर संशोधित विधेयक तैयार है। यह मसला भी राजनीति के कंटकाकीर्ण मार्ग से होकर जाता है। उद्योगों के लिए जमीन के अधिग्रहण के कानून पर भी संसद को चर्चा करने का मौका नहीं मिल पा रहा है। जब आप ध्यान देंगे तो पता लगेगा कि देश के लिए ज़रूरी तमाम काम संसद के सामने पड़े हैं और उनपर विचार नहीं हो पा रहा है। इसकी वजह यह है कि संसदीय कार्यवाही को रोकना और किसी फौरी मसले पर जोर देना आज की
राजनीति का हिस्सा बन गया है।
कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने संसदीय कर्म को सुचारू किए बगैर नहीं चलती। हम इस बात को नहीं देखते कि अक्सर संसद अपनी जिम्मेदारी का दस प्रतिशत काम भी नहीं कर पाती। संसदीय कर्म की गम्मीरता को समझने का काम भी जनता का है। समूचे मीडिया में संसदीय कवरेज घटती चली गई है। यह दोष किसका है? आप खुद से पूछें। हम अपने प्रतिनिधियों को चुनने के बाद लम्बी तानकर सो जाएंगे तो जवाब कौन देगा? लोकतंत्र आपकी व्यवस्था है। आपकी लगातार भागीदारी इसमें चाहिए। इन पंक्तियों को पढ़कर अपने कर्म को सुनिश्चित करना भी एक प्रकार की भागीदारी है। आप हैं सिविल सोसायटी, जिसके निर्देश से यह व्यवस्था चलती है। इसलिए वेस्टइंडीज़ के दौरे से थोड़ा वक्त निकाल कर कृपया इस बहस में शामिल हों। फैसले अपने आप ठीक होते जाएंगे।
बिलकुल सही बात है -जनता की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है.यहाँ लोग वोट दाल कर गफलत में पद जाते हैं और व्यवस्था को कोसते रहते हैं वही सब समस्याओं की जद है.
ReplyDeleteजन लोकपाल कानून की हमें इसलिए जरूरत है जिससे हरामखोर लोग इस देश के मंत्री,प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति जैसे सम्माननीय पदों पर बैठकर किसी इमानदार सच्चे,अच्छे व देशभक्त इंसान को आँख ना दिखा सके ...आज ज्यादातर हरामखोर इस देश के मंत्री हैं जिससे पूरी इंसानियत रोती है.....
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