Monday, June 6, 2011

रामदेव नहीं जनता पर ध्यान दो


केन्द्र सरकार ने पहले रामदेव को रिझाने की कोशिश की फिर दुत्कारा। इससे उसकी नासमझी ही दिखाई पड़ती है। कांग्रेस इस वक्त टूटी नाव पर सवार है। अचानक वह मँझधार में आ गई है। इसका फायदा भाजपा को भले न मिले कांग्रेस का नुकसान हो गया। इसकी वजह यह है कि पिछले दो दशक में सरकारों ने आर्थिक मसलों को अहमियत दी राजनीति पर ध्यान नहीं दिया। आज के जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख-  

बाबा रामदेव-आंदोलन की सबसे बड़ी आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह राजनीति से प्रेरित है। आरएसएस और भाजपा के नेताओं का आशीर्वाद पाने के बाद इसकी शक्ल हिन्दुत्ववादी भी हो गई है। रामदेव के साथ अन्ना हजारे हैं और जैसी कि कुछ अखबारों में खबर थी कि माओवादी भी। काले धन, भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों को लेकर चलाए जा रहे आंदोलन को कौन अ-राजनैतिक कहेगा? पर क्या राजनीति अपराध है? राजनैतिक आंदोलन चलाने में गलत क्या है? हाल के दिनों में लगातार बैकफुट पर खेल रही कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार ने पहली बार सख्ती के संकेत दिए हैं। क्या वह इस सख्ती पर कायम रह पाएगी?
बाबा रामदेव ने दिल्ली में पिछले साल इसी विषय पर एक रैली की थी जिसमें उनके भक्त बड़ी संख्या में एकत्र हुए थे, पर मुख्यधारा के मीडिया ने उनपर ध्यान नहीं दिया था। सिर्फ एक धार्मिक चैनल पर वह कार्यक्रम प्रसारित हुआ था। उस कार्यक्रम के कुछ महीनों बाद दिल्ली में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के दो सफल कार्यक्रम हुए। जंतर-मंतर वाले कार्यक्रम को मीडिया का जबर्दस्त सहारा मिला। केन्द्र सरकार को झुकना पड़ा। बाबा रामदेव के सामने भी सरकार झुक रही थी। पर बाबा और उनके सहयोगी अपनी तैयारी को सस्ते में खर्च क्यों करते? सख्ती बरत कर बाबा को राजनैतिक सहारा देने को मज़बूर हुई है। पर सोचने की बात है कि यह सब क्यों हो रहा है।
रामदेव पिछले कई साल से ब्लैक मनी को लेकर जनता के पास जा रहे हैं। उनके सहयोगियों ने जनता को समझ में आने वाली भाषा में सामाजिक-आर्थिक सवालों को समझाया। वह सही था या गलत इस पर बात करने का समय अब नहीं है। तकरीबन बीस साल के आर्थिक उदारीकरण के परिणाम हमारे सामने हैं। लम्बे अरसे से चली आ रही कमांड अर्थव्यवस्था को खत्म होना ही था, पर उसके विकल्प में जो व्यवस्था धीरे-धीरे सामने आ रही है उसकी ओर दुनिया ने ध्यान नहीं दिया है। चीन और भारत के रूप में दुनिया को दो नए राजनैतिक मॉडल भी मिल रहे हैं। चीन के राजनैतिक अंतर्विरोध अभी सामने नहीं आए हैं, पर भारत में वह नज़र आने लगे हैं। संयोग है कि अन्ना हजारे को समर्थन देने वालों में सबसे बड़ी संख्या इसी उदारवाद से निकले निकले नौजवानों की है।
आर्थिक उदारीकरण की धारा का देश की लगभग सभी पार्टियों ने समर्थन किया है। 1991 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद 1996 से 1998 तक कांग्रेस के समर्थन से बनी तीसरे मोर्चे की सरकारों और उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी का एनडीए सरकार ने वैश्वीकरण से उपजे उदारीकरण को आगे बढ़ाया। उसके बाद से यूपीए का यह दूसरा चैप्टर है। उदारीकरण के बीस साल का अनुभव यह है कि तकरीबन सभी पार्टियों ने जनता को विश्वास में लेने के बजाय निजीकरण को उदारीकरण का मूल मंत्र मान लिया। पूँजी निवेश के नाम पर क्रोनी कैपिटलिज्म की छाया ने देश को घेर लिया। स्वदेशी आंदोलन के साथ जुड़े रहे और आज़ादी के बाद पैदा हुए देशी कॉरपोरेट हाउसों के कारिन्दे पीएम-सीएम हाउसों के इर्द-गिर्द मधु मक्खियों की तरह भनभनाने लगे। अमेरिकी तर्ज पर लॉबीइंग व्यवस्था भी प्रवेश कर गई। अमेरिका में पिछली एक सदी में लॉबीइंग से सम्बद्ध काफी कड़े कानून बनाए गए हैं। हमारे यहाँ मैदान खुला था। राजनैतिक पत्रकारिता सायास या अनायास इसके चंगुल में आ गई।
इंडिया शाइनिंग हालांकि एनडीए का नारा था, पर इसका प्रवर्तन कांग्रेस ने किया था। बंगाल में वाम मोर्चा ने भी इसे लागू किया। जैसे–जैसे व्यवस्था के द्वार खुले वैसे-वैसे जनता की बदहाली की तस्वीर भी सामने आने लगी। इंडिया शाइनिंग पर इंडिया क्राइंग हावी हो गया। जनता समझ पाने में असमर्थ थी कि सही राह क्या है। राजनैतिक पार्टियों के भीतर संजीदगी खत्म हो गई। उदारवाद के शुरूआती दिनों में ही हर्षद मेहता कांड और जैन हवाला कांड से बात समझ में आ गई थी कि देश की वित्तीय, कारोबारी और राजनैतिक संस्थाओं में घुन लगा है। उदारवाद के साथ पारदर्शिता, मूल्यबद्धता और संस्थागत-स्पष्टता के जिन तत्वों को जुड़ना चाहिए था वे नहीं जुड़े।
व्यवस्थागत पारदर्शिता लाने में एक महत्वपूर्ण कारक है मीडिया। अपनी साफ समझ और काफी सीमा तक राजनैतिक शक्तियों से समान दूरी रखकर मीडिया अपनी साख बनाकर रख सकता था। पर उसने प्रचार का भोंपू या ब्लैक मेल करने वाला हथियार बनना पसंद किया। बिजनेस की ज़रूरत के हिसाब से साख का सवाल पीछे रह गया। लॉबीइंग का तड़का लग जाने के बाद मीडिया को नया मतलब मिल गया। अखबार चमकदार रेशमी पन्नों में तब्दील हो गए। पत्रकारिता की नई परिभाषा बनी विज्ञापनों के बाद बची जगह भरने की कला। बहरहाल जनता को भरमाने वाली बातें बढ़ती चली गईं।    
लोकतंत्र में साइलेंट मेजॉरिटी का मतलब अचानक खड़े होने वाले आंदोलनों के वक्त समझ में आता है। बाबा रामदेव का समर्थन करने वालों में साधारण कर्मचारी, दुकानदार और गृहणियाँ। इनमें से बहुत से लोग नहीं जानते कि व्यवस्था कैसे चलती है। पर वे कभी न कभी व्यवस्था की मार झेल चुके हैं। बाबा की राजनीति क्या है और वे किस राजनैतिक धड़े के साथ जाएंगे, इस पर ध्यान देने के बजाय ध्यान इस बात पर देना चाहिए कि जनता किन बातों पर ध्यान देती है। शायद राजनैतिक दलों का ध्यान इस ओर जाए।  

3 comments:

  1. सरकार को सलाह उत्तम है, पर क्या वह मानेगी?

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  2. राजनीती करने का पट्टा तो सिर्फ कांग्रेस ने ही लिखवा है दूसरा राजनीती कैसे कर सकता है ,चाहे बाबा हो,संघ हो,भाजपा हो !!!!!!!!!!!!

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  3. रतन सिंह शेखावत जी की बात से पूरी तरह सहमत. कांग्रेसी नेता सत्‍ता के नशे में अंधे हो गए हैं, उन्‍हें जीडीपी में बढोतरी दिखती है पर अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई नजर नहीं आती. इस विरोधाभास को समझने का कभी प्रयास नहीं किया.
    खुद देश चलाने के काबिल नहीं हैं और जब कोई इन्‍हें सही मार्ग दिखाए तो उसे कहते हैं अपना काम करो, हमें राजनीति मत सिखाओ.

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