Wednesday, February 26, 2025

यूक्रेन-वार्ता से आगे जाएँगे दुनिया के ज्वलंत-प्रश्न


उम्मीद पहले से थी कि राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठने के बाद डॉनल्ड ट्रंप यूक्रेन की लड़ाई को रुकवाने के लिए हस्तक्षेप करेंगे, पर सब कुछ इतनी तेजी से होगा, इसका अनुमान नहीं था. दुनिया ‘मनमौजी’ मानकर उनकी बातों की अनदेखी करती रही है, पर अब सब मज़ाक नहीं लग रहा है.

इस हफ्ते दुनिया यूक्रेन की लड़ाई के तीन साल पूरे हो रहे हैं. इस लड़ाई में करीब दस लाख लोग मारे गए या घायल हुए हैं, जिससे यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे खूनी यूरोपीय युद्ध बन गया है. यह लड़ाई गहरे धार्मिक, जातीय और सांस्कृतिक संबंधों की कहानी कहती है, पर इसने दुनिया की अर्थव्यवस्था को जो घाव लगाए हैं, उन्हें भरने की जरूरत है.  

अगले कुछ दिनों में नज़र आने लगेगा कि वैश्विक-राजनीति में अमेरिका और रूस एक-दूसरे के साथ खड़े हैं. सवाल है कि क्या चीन की भी इसमें कोई भूमिका होगी या चीन का दबदबा रोकने की यह कोशिश है? सामने की बातों में तो चीन ने अमेरिकी पहल की तारीफ की है. 

लगता है कि बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा होने वाला है. भारत को ऐसे में अपने हितों की रक्षा करनी होगी. इस लड़ाई के दौरान भारत ने अपने दीर्घकालिक संबंधों को देखते हुए रूस की निंदा करने से परहेज किया है.  

Sunday, February 23, 2025

दिल्ली में एक सपने का टूटना, और नई सरकार के सामने खड़ी चुनौतियाँ

आम आदमी पार्टी की हार और भाजपा की जीत का असर दिल्ली से बाहर देश के दूसरे इलाकों पर भी होगा। हालाँकि दिल्ली बहुत छोटा बल्कि आधा, राज्य है, फिर भी राष्ट्रीय-राजधानी होने के नाते सबकी निगाहों में चढ़ता है। वहाँ एक ऐसी पार्टी का शासन था, जिसके जन्म और सफलता के साथ पूरे देश के आम आदमी के सपने जुड़े हुए थे। उन सपनों को टूटे कई साल हो गए हैं, पर जिस वाहन पर वे सवार थे, वह अब जाकर ध्वस्त हुआ। बेशक, केंद्र की शक्तिशाली सत्तारूढ़ पार्टी ने उन्हें पराजित कर दिया, लेकिन अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के राजनीतिक पतन के पीछे तमाम कारण ऐसे हैं, जिन्हें उन्होंने खुद जन्म दिया। 

नतीजे भाजपा की विजय के बारे में कम और ‘आप’ के पतन के बारे में ज्यादा हैं। यह बदलाव राजनीतिक परिदृश्य में अचानक नहीं हुआ है, बल्कि इसके पीछे 2014 से चल रही कशमकश है। केंद्र सरकार ने उपराज्यपाल, नगर निगमों, केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय और दिल्ली पुलिस के माध्यम से शासन पर नकेल डाल रखी थी। आम आदमी पार्टी की सरकार ने भी अपने पूरे समय में केंद्र के साथ तकरार जारी रखी। इसके नेता केजरीवाल की राष्ट्रीय-महत्वाकांक्षाएँ कभी छिपी नहीं रहीं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ जितनी निजी थीं, उतनी सार्वजनिक नहीं। 

मोदी की सफलता

बीजेपी ने इससे पहले दिल्ली विधानसभा का चुनाव 1993 में जीता था। पिछले दो चुनावों में केंद्र में अपनी सरकार होने के बावजूद वह जीत नहीं पाई। इसका एक बड़ा कारण राज्य स्तर पर कुशल संगठन की कमी थी। इसबार पार्टी ने न केवल पूरी ताकत से यह चुनाव लड़ा, साथ ही संगठन का पूरा इस्तेमाल किया। ऐसा करते हुए उसने किसी नेता को संभावित मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने की कोशिश भी नहीं की, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे रखा। प्रधानमंत्री ने भी दिल्ली के प्रचार को पर्याप्त समय दिया और आम आदमी पार्टी को ‘आपदा’ बताकर एक नया रूप भी दिया। उन्होंने जिस तरह से प्रचार किया, उससे समझ में आ गया था कि वे दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन को कितना महत्व दे रहे हैं। 

Saturday, February 22, 2025

तमिलनाडु में क्या फिर से शुरू होगा हिंदी-विरोधी आंदोलन?

नई शिक्षा-नीति और केंद्र की तीन-भाषा नीति के खिलाफ सड़कों पर लिखे नारे


हिंदी की पढ़ाई को लेकर तमिलनाडु में एकबार फिर से तलवारें खिंचती दिखाई पड़ रही हैं। राज्य के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने मंगलवार को एक विशाल विरोध-प्रदर्शन में चेतावनी दी कि हिंदी थोपने वाली केंद्र सरकार के खिलाफ एक और विद्रोह जन्म ले सकता है। उनके पहले मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राज्यों पर शिक्षा-निधि के मार्फत दबाव बनाने का आरोप लगाया था। राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में द्रमुक ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) और तीन-भाषा फॉर्मूले की आलोचना करके माहौल को गरमा दिया है। 

तमिलनाडु में भाषा केवल शिक्षा या संस्कृति का विषय नहीं है। द्रविड़-राजनीति ने इसके सहारे ही सफलता हासिल की है। द्रविड़ आंदोलन, जिसने डीएमके और एआईएडीएमके दोनों को जन्म दिया, भाषाई आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर आधारित था। राष्ट्रीय आंदोलन के कारण इस राज्य में भी कांग्रेस, मुख्यधारा की पार्टी थी, पर भाषा पर केंद्रित द्रविड़ आंदोलन ने राज्य से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया और आज तमिलनाडु में कांग्रेस द्रमुक के सहारे है।  

इस राज्य में भाषा-विवाद लगातार उठते रहते हैं। पिछले साल संसदीय शीत-सत्र में 5 दिसंबर को विरोधी दलों के सदस्यों ने ‘भारतीय न्याय संहिता’ के हिंदी और संस्कृत नामों के विरोध में सरकार पर हमला बोला। उन्होंने सरकार पर ‘हिंदी इंपोज़ीशन’ का आरोप लगाया। एक दशक पहले तक ऐसे आरोप आमतौर पर द्रमुक-अद्रमुक और दक्षिण भारतीय सदस्य लगाते थे। अब ऐसे आरोप लगाने वालों में कांग्रेस पार्टी भी शामिल है।

Thursday, February 20, 2025

हिंदी या उर्दू?


हिंदी ।।तीन।।

पिछले कुछ समय से फेसबुक पर मेरी पोस्ट में जब कोई अरबी-फारसी मूल का शब्द आ जाता था, तो एक सज्जन झिड़की भरे अंदाज़ में लिखते थे कि उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए। एक और सज्जन ने करीब दो-तीन सौ शब्दों की सूची जारी कर दी, जिनके बारे में उनका कहना था कि संस्कृत-मूल के शब्द लिखे जाएँ। मैं ऐसे मित्रों से अनुरोध करूँगा कि पहले तो वे लिपि और भाषा के अंतर को समझें और दूसरे हिंदी के विकास का अध्ययन करें। बहरहाल तंग आकर मैंने उन साहब को अपनी मित्र सूची से हटा दिया। फेसबुक में जिसे मित्र-सूची कहते हैं, वह मित्र-सूची होती भी नहीं है। मित्र होते तो कम से कम कुछ बुनियादी बातें, तो मेरे बारे में समझते होते, ख़ैर। 

उर्दू से कुछ लोगों का आशय होता है, जिस भाषा में अरबी-फारसी के शब्द बहुतायत से हों और जो नस्तालिक लिपि में लिखी जाती हो। उर्दू साहित्य के शीर्ष विद्वानों में से एक शम्सुर्रहमान फारुकी ने लिखा है कि भाषा के नाम की हैसियत से 'उर्दू' शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1780 के आसपास हुआ था। उसके पहले इसके हिंदवी, हिंदी और रेख़्ता नाम प्रचलित थे। आज के दौर में उर्दू और हिंदी, मोटे तौर पर एक ही भाषा के दो नाम हैं। उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों को शामिल करने की वज़ह से और नस्तालिक-लिपि के कारण तलफ़्फ़ुज़ का अंतर है, पर बुनियादी वाक्य-विन्यास एक है। 

आधुनिक हिंदी और उर्दू का विकास वस्तुतः हिंदी और उर्दू का विकास है। इन दोनों भाषाओं का विभाजन आज से करीब दो-ढाई सौ साल पहले होना शुरू हुआ था, जो हमारे सामाजिक-विभाजन का भी दौर है। इस विभाजन ने 1947 में राजनीतिक-विभाजन की शक्ल ले ली, तो यह और पक्का हो गया। भाषा की सतह पर भी दोनों के बुनियादी अंतरों को समझे बिना इस विकास को समझना मुश्किल है। 

Wednesday, February 19, 2025

क्या टैरिफ तय करेगा वैश्विक-संबंधों की दिशा?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वॉशिंगटन-यात्रा के दौरान कोई बड़ा समझौता नहीं हुआ, पर संबंधों का महत्वाकांक्षी एजेंडा ज़रूर तैयार हुआ है. यात्रा के पहले आप्रवासियों के निर्वासन को लेकर जो तल्खी थी, वह इस दौरान व्यक्त नहीं हुई. 

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप जिस ‘रेसिप्रोकल टैरिफ’ के विचार को आगे बढ़ा रहे हैं, वह केवल भारत को ही नहीं, सारी दुनिया को प्रभावित करेगा. यह विचार नब्बे के दशक में शुरू हुए वैश्वीकरण के उलट है. इसके कारण विश्व-व्यापार संगठन जैसी संस्थाएँ अपना उद्देश्य खो बैठेंगी, क्योंकि बहुपक्षीय-समझौते मतलब खो बैठेंगे.  

जहाँ तक भारत का सवाल है, अभी तक ज्यादातर बातें अमेरिका की ओर से कही गई हैं. अलबत्ता यात्रा के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य काफी सकारात्मक है.  इसमें व्यापार समझौते की योजना भी है, जो संभवतः इस साल के अंत तक हो सकता है. 

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने रविवार को उम्मीद जताई कि अब दोनों पक्ष एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी सामर्थ्य के साथ मिलकर काम कर सकेंगे. इस दिशा में पहली बार 2020 में चर्चा हुई थी, पर पिछले चार साल में इसे अमेरिका ने ही कम तरज़ीह दी.